हर दिन आसमान को आशा भरी निगाह से निहारता हूँ

डायरी : गिरीन्द्रनाथ झा

न बरखा, न खेती, बिन पानी सब सून

खेत उजड़ता दिख रहा है. बारिश इस बार धरती की प्यास नहीं बुझा रही है. डीजल फूँक कर जो धनरोपनी कर रहे हैं और जो खेत को परती छोड़कर बैठे हैं,  दोनों ही निराश हैं-

हर दिन आसमान को आशा भरी निगाह से निहारता हूँ लेकिन…किसानी कर रहे हमलोग परेशान हैं. फ़सल की आस जब नहीं दिख रही है, तब ऋण का बोझ हमें परेशान कर देता है. नींद ग़ायब हो जाती है. खेती नहीं कर रहे लोग ऐसे वक़्त में जब ‘क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए’ का ज्ञान देते हैं तो लगता है कि उन्हें कहूँ कि बस एक कट्ठा में खेती कर देख लें.

दरअसल किसानी का पेशा प्रकृति से जुड़ा है, लाख वैज्ञानिक तरीक़े का इस्तेमाल कर लें लेकिन माटी को तो इस मौसम में बारिश ही चाहिए. सुखाड़ जैसी स्थिति आ गयी है.

इस बार लगता है कि धरती फट जाएगी. खेत में दरार साफ़ दिखने लगा है. यह स्थिति मन को और निराश कर देती है.

डीज़ल फूँक कर धनरोपनी नहीं कराने का फ़ैसला डराता भी है, लेकिन क्या करें ? सरकार तमाम तरह की बात करती है, योजनाएँ बनाती हैं लेकिन किसान को मज़बूत करने के बजाय उसे मजबूर बना रही है.

योजना का लाभ उठाने के लिए हमें इतनी काग़ज़ी प्रक्रियाओं से जूझना पड़ता है कि हम हार जाते हैं. डीज़ल अनुदान लेने के लिए जिस तरह की प्रक्रिया प्रखंड-अंचल मुख्यालय में देखने को मिलती है तो लगता है इससे अच्छा किसी से पैसा उधार लेकर खेती कर ली जाए. यही हक़ीक़त है.
किसान बाप के बेटे-बेटी को, जिसकी आजीविका खेती से चलती है, उसे अपनी ही ज़मीन लिए बाबू साब के दफ़्तरों का चक्कर लगाना पड़ता है.

बारिश के अभाव ने मन को भी सूखा कर दिया है. किसानी का पेशा ऐसे समय में सबसे अधिक परेशान करता है.

बाबूजी डायरी लिखते थे, हर रोज़. उनका 1984 का सर्वोदय डायरी पलटते हुए धनरोपनी का यह गीत मिलता है – “बदरिया चलाबैत अछि बाण, सब मिलि झट-झट रोपहु धान …” लेकिन  बादल बरसने को तैयार ही नहीं हैं. इन सबके बावजूद बाबूजी की डायरी विपरीत परिस्थिति में मुझे संबल देती है, उनके शब्द से लगता है कि हमारी नियति में लड़ना ही सत्य है.

उधर, मानसून सत्र को लेकर मुल्क मगन है और इधर हम धनरोपनी और पानी का रोना रो रहे हैं. हमारी समस्या में ग्लैमर नहीं है, हमारी परेशानी में ख़बर का ज़ायक़ेदार तड़का नहीं है, हमारी बात न्यूज़रूम की टीआरपी नहीं है, हमारे सूखते खेत सरकार बहादुर के लिए वोट का मसाला नहीं है, ऐसे में हम जहाँ थे, वहीं हैं. हम रोते हैं तो ही हुक्मरानों को अच्छा लगता है. हमारा रोना सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए डाइनिंग टेबल का रायता है.

वैसे बारिश आज नहीं तो कल आएगी…फिर एक दिन हम बाढ़ में डूब जाएँगे तब अचानक हवाई दौरा शुरू हो जाएगा…अगले साल  की तैयारी शुरू हो जाएगी.

[ गिरीन्द्रनाथ झा पत्रकार- कथाकार हैं. पूर्णिया अवस्थित अपने गाँव चनका में रहते हैं और किसानी करते हैं. इनसे girindranath@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है. ]

कवर फोटो : शिरीष पाठक.

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इन्द्रधनुष

जब समय और समाज इस तरह होते जाएँ, जैसे अभी हैं तो साहित्य ज़रूरी दवा है. इंद्रधनुष इस विस्तृत मरुस्थल में थोड़ी जगह हरी कर पाए, बचा पाए, नई बना पाए, इतनी ही आकांक्षा है.

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