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अपने तरीके से लड़ते आदमी की शक्ल

आलेख :: संजय कुंदन मंगलेश डबराल ने अपनी कविताओं में अमानवीयता के विरुद्ध एक साधारण मनुष्य के संघर्ष को चित्रित किया। रघुवीर सहाय ने उनकी कविताओं के बारे में लिखा है, “उनकी कविताएं…अपने ही तरीके से लड़ते हुए आदमी की शक्ल दिखलाती हैं। वह खड़े होने भर की जगह में खड़ा हुआ है और उसके साथ है शायद हल्का-सा कोई रंग या शायद उम्मीद या शायद एक मैदान या अंधेरा। ये ही चीज़ें उसके संघर्ष को …अर्थ देती हैं...

परमाणु बमों की होड़ के बरक्स मनुष्यता को बचाने का आह्वान

समीक्षा:: सुशील कुमार भारद्वाज        संदर्भ:: अवधेश प्रीत का उपन्यास ‘रुई लपेटी आग’ फिलवक्त जब एक तरफ रूस-यूक्रेन के बीच लम्बे अरसे से युद्ध चल रहा है तो दूसरी तरफ चीन-ताइवान आमने–सामने की स्थिति में हैं और इस युद्धोन्माद में सम्पूर्ण विश्व गोलबंद हो रहा है. ऐसी स्थिति में कब तीसरा विश्वयुद्ध छिड़ जाए या किसी सनक के पल में कोई सत्ताकांक्षी राष्ट्राध्यक्ष परमाणु शक्ति का प्रयोग कर...

नया शहर, भाषा, भोजन और इंदिरा ग़ाँधी

डायरी :: तोषी पांडेय मुझे इस नए शहर में आये दो महीने हो चुके हैं और हमारी समूची जेनेरेशन- जिसे न करियर में कुछ समझ आ रहा है और न ही प्रेम में वाले बोझ को लिए हज़ारों बोझिल चहेरे शाम को राइट और लेफ्ट स्वाइप करते मिल जाते हैं। कुछ इन छोटे छोटे एस्कपों से थक गये हैं और कुछ अभी उसको ही जीवन मान चुके हैं। *** मुझे कई बार इनके बीच में मिसफिट महसूस होता है, कुछ ने सलाह दी है शहर एक्सप्लोर करो, एक जगह से...

प्रश्न की बेहतर समझ की तरफ़

आलेख :: अंचित एक कवि, एक इंजिनियरिंग संस्थान में क्या करेगा? यह एक प्रश्न कई प्रश्नों की पीठ पर खड़ा है जिनको आगे खुलना है। क़िस्सा वहाँ शुरू होता है कि आईआईटी गुवाहाटी की साहित्यिक संस्था के निमंत्रण पर मैं यह तय करता हूँ कि मुझे कविता की कार्यशाला के लिए जाना चाहिए। नए का रोमांच हमेशा आकर्षक होता है। फिर हिंदी समाज की झालमुड़ी संस्कृति से समय-समय पर उदासीनता होना स्वाभाविक है। ऐसे में एक...

अल्पमत के पक्ष में खड़ीं कविताएँ

समीक्षा :: अरुण श्री “डरा नहीं हूँ मैं हजारों अस्वीकारों से बनी है मेरी काया हजारों बदरंग कूंचियों ने बनायी हैं मेरी तस्वीर हजारों कलमों ने लिखी है एक नज़्म जिसका उनवान है मुस्कराहट और वे मेरी मुस्कुराहटें नहीं छीन सकते” संकलन की प्रतिनिधि कविता में कवि की यह घोषणा पढ़ते हुए यह अनुमान हो जाता है कि कवि कितने ताप दाब  के बाद यह आकार पा सका होगा। ताप और दाब से तात्पर्य यह नहीं कि उसे पिघलाकर साँचे...

कला, साहित्य और संगीत : कुछ नोट्स

गद्य :: राकेश कुमार मिश्र कला, साहित्य और संगीत : कुछ नोट्स (1.) कला को जीने का समय सबसे महत्वपूर्ण समय है. इसका मतलब ये नहीं कि कला के दूसरे क्षणों का महत्व नहीं है. कला की ‘तैयारी’ मुझे कला के ‘सम्प्रेषण’ से कहीं ज्यादा आकर्षित करती है. मेरे लिये कला की ‘तैयारी’ का ये मतलब नहीं है कि किसी कला या अपने काम पर बहुत व्यवस्थित होकर काम करना. पर इसके बजाए कला के हर छोटे से छोटे हिस्से को जानने की...

किसान और हम: रोजमर्रा के ‘नए हथियारों’ के खिलाफ

आलेख :: उपांशु भारत में हुए हालिया किसान आंदोलन को कई तरह से पढ़ा गया है। उन पाठों में एक पाठ यह भी है जो किसान आंदोलन के आसपास की परिस्थिति को लेखक के शब्दों को ‘अनपैक’ करता है। यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि लेख वहाँ से आगे चलता हुआ समसामयिक प्रवृतियों की भी एक द्वंदात्मक विवेचना करने की कोशिश करता है और समकालीन भारतीय समाज और उसकी राजनीति की ओर इशारा करता है। —सम्पादक 1932 में...

स्वदेश से निर्मल पाठक की घर वापसी तक

आलेख :: बड़े प्रश्न १ : अंचित जंब्रा की एक मज़ेदार किताब दोबारा पढ़ रहा इन दिनों। और बेकन को याद करते हुए यह कह दूँ कि धीमे-धीमे चुभलाते हुए। कभी-कभी दो दिनों तक भी उस किताब तक नहीं लौट पाता। ऐसे में किसी ने कहा कि मुझे ‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ देख लेनी चाहिए और इस ताकीद के साथ कि पाँच एपिसोड हैं और यह कि पसंद आएगी। निर्मल का नाम निर्मल इसीलिए है कि उसके पिता जी को निर्मल वर्मा की...

ये सभी एकाकार हैं इस धात्विक परिधि में

संस्मरण :: कवि रमाकान्त रथ से मिलना : सतीश नूतन ‌हम श्रद्धा से जब कोई कार्य ठान लेते हैं तो प्रतिफल निश्चित ही अच्छा होता है। उड़ीसा जाना-आना लगा रहता है और साहित्यजीवी होने के कारण स्वतः ही एक नाता बनता जाता है। मैं उड़ीसा के कई साहित्यकारों को जानता तो था पर मिला नहीं था। एक-एक कर सभी विद्वान सहित्यजीवियों से शब्द-संगति की इच्छा बलवती हुई। इसी क्रम में उड़ीसा के कई मित्रो से पूछा- यार, तेरे पास...

पितृसत्ता का विपरीत मातृसत्ता नहीं बंधुत्व है

न से नारी :: उद्धरण : जर्मेन ग्रियर अनुवाद एवं प्रस्तुति :  प्रकृति पार्थ जर्मेन ग्रियर (जन्म 1939) का जन्म ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और अब वे इंग्लैंड में रहती हैं. उनकी पुस्तक ‘द फीमेल यूनक‘ (1970) के प्रकाशन ने उन्हें एक लेखिका के रूप में और महिलाओं की मुक्ति और लैंगिकता पर एक आधिकारिक टिप्पणीकार के रूप में स्थापित किया. किताब के शीर्षक के अनुसार महिलाओं की लैंगिकता में निष्क्रियता...