
कविताएँ:: आलोक रंजन मलबा मकान बना, इश्तिहार हुआ। घर ढहा, इश्तिहार हुआ। सादे अखबार या रंगीन स्क्रीन पर नहीं उस रद्दी पर जिसके चीथड़ों पर लिखा जा सकता है सब कुछ, फट जाने पर उनकी सटाई भी। नागरिक ढांचा है मलबों का, एक कीमती इमारत जिसके पुर्ज़े गिरवी हैं। आवासों का बनना, उनका ढहना, ईंटों का बँटवारा है कि मलबों के लोग न बन जाएं घर। कहना निचोड़े जा चुके शब्दों के अंतहीन दुहराव से बनते हैं स्वादहीन...