डायरी : गिरीन्द्रनाथ झा न बरखा, न खेती, बिन पानी सब सून खेत उजड़ता दिख रहा है. बारिश इस बार धरती की प्यास नहीं बुझा रही है. डीजल फूँक कर जो धनरोपनी कर रहे हैं और जो खेत को परती छोड़कर बैठे हैं, दोनों ही निराश हैं- हर दिन आसमान को आशा भरी निगाह से निहारता हूँ लेकिन…किसानी कर रहे हमलोग परेशान हैं. फ़सल की आस जब नहीं दिख रही है, तब ऋण का बोझ हमें परेशान कर देता है. नींद ग़ायब हो जाती है. खेती नहीं...
हर दिन आसमान को आशा भरी निगाह से निहारता हूँ
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