समीक्षा ::
‘तख़्तापलटः तीसरी दुनिया में अमेरिकी दादागिरी’ जाने-माने पत्रकार-इतिहासकार विजय प्रशाद की अंग्रेजी किताब ‘वॉशिंगटन बुलेट्स’ का हिंदी अनुवाद है। इसके अनुवादक हैं- कवि-कथाकार संजय कुंदन। यह किताब एक तरह से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का संक्षिप्त विश्व इतिहास है, जो बताती है कि अमेरिका ने पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए किस तरह के हथकंडे अपनाये और उसकी करतूतों का विश्व पर क्या असर पड़ा। दरअसल दो घटनाओं ने उसके मंसूबों को आसमान में पहुंचा दिया। पहली घटना थी-द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ का कमज़ोर होना और दूसरी थी एटम बम का निर्माण। हिरोशिमा पर एटम बम गिराने के बाद अमेरिकी सत्ताधारियों को यह यकीन हो गया कि वे अपनी अथाह ताक़त से पूरी दुनिया को अपने कदमों में झुका सकते हैं। उसके बाद से शक्ति का समीकरण बदल गया और विश्व की ताक़त यूरोप के बजाय अमेरिका में केंद्रित हो गई।
अब शक्ति की अमेरिकी संकल्पना में यूरोपीय देशों की हैसियत वॉशिंगटन के मातहत की हो गई। अमेरिका ने तमाम वैश्विक संस्थाओं पर अपना दबदबा कायम किया और अपने हित में अंतरराष्ट्रीय नियम-कानून बनवाये। अमेरिका ने अब अपने औद्योगिक-आर्थिक हितों के लिए तीसरी दुनिया के देशों के संसाधनों का नये तरीक़े से दोहन शुरू किया। इसके लिए उन देशों में सीधे-सीधे दख़ल देना शुरू किया। एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में उसने तख़्तापलट करवाये और अपनी कठपुतली सरकारें बनवाईं।
यह किताब तख़्तापलट की कवायदों की कहानियाँ सामने लाती हैं। तख़्तापलट बाक़ायदा अमेरिकी विदेश नीति का एक हिस्सा था। अमेरिकी विदेश मंत्रालय, सीआईए और संबद्ध देशों का दूतावास इस घिनौनी कार्रवाई में लगा रहता था। इसके लिए देशों में सैन्य विद्रोह करवाये गये। तमाम जन नेताओं की हत्या हुईं, सरकारों को आईएमएफ और विश्व बैंक से ज़रिये घेरकर आर्थिक रूप से पंगु बनाया गया। आतंकवाद खड़ा किया गया, फिल्मों, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के ज़रिये लोगों की मानसिकता को प्रभावित करने की कोशिश की गई। इस पर लाखों डॉलर बहाये गये। मकसद एक ही था-चारों तरफ़ अमेरिका का आतंक रहे और अमेरिकी पूंजीपतियों की जेब भरती रहे।
अमेरिकी सत्ता सबसे ज्यादा इस बात से डरी रहती थी कि कहीं फिर कोई समाजवादी-साम्यवादी सरकार न आ जाए। इसलिए किसी भी देश की सरकार ज्यों ही तमाम उद्योग-धंधों का राष्ट्रीयकरण करने लगती, आर्थिक विकास का विकेंद्रकरण करने लगती, गरीब़ जनता के हित में काम करने लगती, अमेरिका के कान खड़ हो जाते। वह तुरंत उस सरकार को बर्खास्त करने के षडयंत्र में जुट जाती। कई ऐसे राजनेताओं को सीधे मार दिया गया। अमेरिका को मंज़ूर नहीं था कि कोई नेता अपने देश में ज़्यादा लोकप्रिय हो और अपने देश के पूंजीपतियों, कुलीनों पर लगाम लगाए। बुरकीना फासो के थॉमस संकारा ऐसे ही नेता थे। उनकी हत्या करा दी गई। उन्होंने कहा था, ‘ अगर आप बुनियादी बदलाव लाना चाहते हैं तो उसके लिए एक हद तक पागलपन की ज़रूरत है। इस मामले में यह नाफ़रमानी से आता है, पुराने सूत्रों को धता बताने और नए भविष्य के निर्माण के साहस से आता है। ऐसे ही पागल लोगों ने हमें वह नज़रिया दिया है, जिससे हम आज पूरे सूझबूझ के साथ काम कर रहे हैं। आज हमें वैसे ही दीवानों की ज़रूरत है। हमें भविष्य के निर्माण का साहस दिखाना होगा।’ उनकी बातों में अमेरिका को अपने लिए चुनौती नज़र आई।
विजय प्रशाद ने विस्तार से बताया है कि किस तरह 1954 में सीआईए ने लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित ग्वाटेमाला के राष्ट्रपति खाकोबो आर्बेंस गुज़मान का तख़्तापलट किया। कारण यह था कि आर्बेंस ने बड़े साहस के साथ अमेरिका की यूनाइटेड फ्रूट कंपनी के स्वार्थों का विरोध किया था।
चिली में हड़ताल और विरोध प्रदर्शन करवाने के लिए अमेरिकी सरकार ने 80 लाख डॉलर खर्च किए। कई राष्ट्राध्यक्षों को हटाने के लिए संसद को ही ख़रीदा गया, अदालती कार्यवाहियों का भी नाटक किया गया। जाहिर है, अमेरिका ने न्यायिक संस्थाओं को भी ख़रीद लिया। जब अगस्त 2016 में ब्राजील में डिल्मा रॉसेफ को संसदीय तख़्तापलट के ज़रिए हटाया गया तो यह कानून को युद्ध का हथियार बनाने (Lawfare) का एक निकृष्ट उदाहरण था। ठीक यही तरीका पूर्व राष्ट्रपति लुईज इनेसियो लूला डी सिल्वा को हटाने के लिए इस्तेमाल में लाया गया। उन्होंने 580 दिन जेल में रहकर मुक़दमे का सामना किया, जिसमें अभियोजन पक्ष कोई ठोस साक्ष्य पेश नहीं कर सका सिवाय ‘दृढ़ विश्वास’ के। इसी तरह इंडोनेशिया के सुकर्णो से अमेरिका इसलिए नाराज़ था कि उनके साम्यवादियों से अच्छे संबंध थे। वहां भी सैन्य अफसरों को लालच देकर सैन्य तख़्तापलट करवाया गया और कम्युनिस्टों का जनसंहार हुआ।
आज पूरा विश्व इस्लामी आतंकवाद की चपेट में है और इसके लिए इस्लामी देशों को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। सचाई यह है कि अरब देशों में अपने हित को सुरक्षित रखने के लिए अमेरिका ने योजनाबद्ध तरीके से कट्टरपंथी इस्लाम को बढ़ावा दिया और उदारवादियों को कमज़ोर किया। आज सऊदी अरब को कट्टरपंथ का केंद्र माना जाता है जबकि वह शुरू से ऐसा नहीं रहा है। जब वहाँ मज़दूर आंदोलन हुआ और समाजवादियों का प्रभाव बढ़ा तो उससे घबरा कर वहां के सत्ताधारियों ने अमेरिका से हाथ मिलाया। अमेरिका ने आंदोलनों को कुचलने में मदद की और कट्टरपंथियों को खुलकर बढ़ावा दिया।
यह किताब ऐसे वृत्तांतों से भरी हुई है। किताब की भूमिका ख़ुद अमेरिकी तख़्तापलट का शिकार रहे बोलीविया के पूर्व राष्ट्रपति इवो मोरालेस आइमा ने लिखी है। उनके शब्दों में ‘उपनिवेशवाद अपने ही हितों के अनुरूप प्रगति की परिभाषा देता आया है। यही उपनिवेशवाद, जिसने हमारी पृथ्वी को आज संकट में डाल दिया है और जिसने प्राकृतिक संसाधनों की लूट से अपार संपत्ति जुटाई है, कहता है कि खुशहाली के हमारे नियम यूटोपिया हैं। अगर मां पृथ्वी के साथ सह अस्तित्व का हमारा सपना पूरा नहीं हो पाया है, सामाजिक न्याय अब भी पूरी तरह ज़मीन पर नहीं उतर पाया है या उसमें कोई कमी रह गई है तो इसके लिए उपनिवेशवाद ज़िम्मेदार है, जिसने हमारी उन राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्रांतियों में हस्तक्षेप किया, जो लोगों में संप्रभुता, गरिमा, शांति और भाईचारे का प्रसार करती थीं। अगर मानवता की मुक्ति अब भी दूर है तो सिर्फ इसलिए कि वॉशिंगटन लोगों पर गोलियां चलवा रहा है।‘
स्वतंत्रता, जनतंत्र और मानवाधिकार की दुहाई देने वाले अमेरिका ने अपने स्वार्थ के लिए विभिन्न देशों के अपराधियों, नशेड़ियों और सबसे निकृष्ट लोगों को बढ़ावा दिया। उसने दुनिया पर कई अनावश्यक युद्ध थोपे। यह किताब सोचने को मज़बूर करती है कि आख़िर दुनिया की यह हालत कब तक बनी रहेगी? क्या कोई नई विश्व व्यवस्था आएगी जो हर देश के नागरिकों की स्वतंत्रता और समृद्धि सुनिश्चित कर सके, जो विश्व में सह अस्तित्व कायम करे और पृथ्वी का विनाश रोके?
यह किताब अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों के जनांदोलनों की भी चर्चा करती है, जिन्हें अमेरिका द्वारा कुचला गया। अमेरिका के ख़िलाफ़ होने वाले इन आंदोलनों की ख़बर चूंकि पश्चिम मीडिया में नहीं आती, इसलिए भारतीय मीडिया भी इस पर चुप्पी साधे रखता है, लिहाजा हम लोग इनसे अनजान हैं। ये आंदोलन कहीं न कहीं हमारे भीतर उम्मीद भी जगाते हैं। इसके सभी वृत्तांत प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित हैं। विजय प्रशाद ने श्रमपूर्वक सीआईए और अमेरिकी विदेश मंत्रालय के पुराने दस्तावेज़ जुटाए हैं। उन्होंने तख़्तापलट में शामिल कई सेवानिवृत्त अधिकारियों से बातचीत के आधार पर भी अपनी बातें रखी हैं। वर्तमान विश्व परिदृश्य को समझने के लिए यह एक ज़रूरी किताब है। हिंदी में ऐसी किताबें अब तक कम ही आई हैं। बेहद कम शब्दों में इसमें अहम बातें कही गई हैं। इसे leftword.com से ऑनलाइन भी मंगवाया जा सकता है।
तख़्तापलट
तीसरी दुनिया में अमेरिकी दादागिरी
लेखकः विजय प्रशाद
अनुवादः संजय कुंदन
वाम प्रकाशन
2254/ 2ए, शादी खामपुर,
न्यू रंजीत नगर, नई दिल्ली-110008
मूल्यः 250 रुपये
एक जरुरी किताब की अच्छी समीक्षा। यह किताब विश्वव्यवस्था और तमाम संघर्षों को एक नए परिपेक्ष्य में समझने हेतु जरूर पढ़ी जानी चाहिए। हिंदी में लाने हेतु संजय कुंदन जी का आभार।