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सम्पादक की डेस्क से: 1 जनवरी 2023

2022 में यूक्रेन पर रूस के हमले तक आते आते हमारी दुनिया में बहुत कुछ जो ढँका छिपा सा लग सकता था, और ज़ाहिर हुआ। पूँजी के काम करने के तरीके में कोई बदलाव तो नहीं आया पर पूँजी ने अपने आवरण उतार दिए हैं और अब वह अपनी कुरूपता के उल्लास को बहुत खुल कर ज़ाहिर कर रही है, अब इसके लिए किसी को यक़ीन दिलाने की ज़रूरत नहीं है। आने वाला समय पूँजी की सत्ता के आम जन में विधिमान्यकरण (legitimization) का समय है...

रिफ़्रेंस फ़्रेम : २०२२

सम्पादकीय : अंचित समय के गुज़रने, कुछ बीत जाने और कुछ नया आने, इतिहास की गति और यह कि कोई यात्रा चल रही है, कि हम कहीं जा रहे हैं— मानव विकास की यात्रा में यह भी कोई स्टेज है, इस क्षण की ओर उम्मीद से देखते हुए, इसको बीत गए और आने वाले से अलग रखते हुए भी व्यापक निराशा से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता— ठीक वैसे ही जैसे उम्मीद और उदासीनता में अंतर किए बिना लक्ष्य, असल बदलाव का होना चाहिए. दृश्य का बदलना—...

सम्पादकीय : संस्था प्रमुख महोदय के नाम एक पत्र

सम्पादकीय :: प्रभात प्रणीत संस्था प्रमुख महोदय, नमस्कार. आशा है कोविड संक्रमण से मुक्त होने के बाद आप अब पूर्ण स्वस्थ होंगे. कल आपको एक सार्वजनिक कार्यक्रम को संबोधित करते देखकर अच्छा लगा, आप उन खुशनसीबों में से हैं जो इस जानलेवा बीमारी से सुरक्षित बचे हैं और स्वभाविक तौर पर आपको चिकित्सा संबंधित असुविधाओं का भी सामना नहीं करना पड़ा होगा. ना ही कोविड से जूझते वक्त आपको इस बात की चिंता हुई होगी कि...

Because Dumbledores Never Leave

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NEW TRAILS :: CELEBRATING DR. SHANKER A DUTT : ANCHIT We were in the library. Dr. Dutt sat on the other side of the table, his hair slightly greying, wearing a plain half-sleeve shirt, smelling of cigarettes and coffee. It had been almost six months since I had known him. We were discussing a poetry reading program that was soon going to happen and there was a list we were fidgeting with- a list...

इधर-उधर के विचार ‘इन द टाइम ऑफ़ कोरोना’

नए रास्ते :: साहित्य और कोरोनाकाल : अंचित कोरोना और साहित्य के सम्बन्ध में कुछ सीधा कहने और बोलने से बचता रहा था अभी तक. इधर सत्यम ने अपने चैनल के लिए कुछ बोलने की बात की तो मुझको लगा कि थोड़ी बात करनी चाहिए और यह लेख उसी बातचीत के बाद, प्रभात भाई के कहे अनुसार लिख रहा हूँ. जैसा बातचीत में कहा था, बहुत सारे डिस्क्लेमरों के साथ बात करूँगा और जो थोड़ा-बहुत इन दिनों पढ़ता रहा, उसको सिलसिलेवार ढंग से...

अच्छा साहित्य अपने समय की सबसे तीक्ष्ण विवेचना होता है

पाठकों के नाम ख़त :: प्रिय पाठक, पिछले कुछ समय में इंद्रधनुष कई बड़ी चुनौतियों से जूझता रहा. कई तरह के हमले हुए और लगातार कामों में व्यवधान आते रहे. तकनीक के समय में कई बार नुक़सान पहुँचाना आसान हो जाता है -ख़ास कर ऐसे समय में जब आपकी तर्कशक्ति और आपका विवेक, भीड़तंत्र को सबसे बड़ा शत्रु लगता है. हमारे कंटेंट ने कई लोगों को परेशान तो किया ही तभी हमले हुए- यही हमारी सफलता भी है, ऐसा मुझको लगता है...

“लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है” : गांधी और देश

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लेख :: “लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है” : गांधी और देश ◆ प्रभात प्रणीत महात्मा गांधी की 150 वीं सालगिरह को इस साल उत्सव के तौर पर मनाया जा रहा है, देवी-देवताओं और त्योहारों के इस देश में यह कोई असाधारण घटना नहीं है। असंख्य उत्सवों के बीच एक और उत्सव। बचपन से 2 अक्टूबर को कमोबेश इसी रूप में देखने की आदत रही है, सार्वजनिक छुट्टी और आयोजनों से ज्यादा मैं इस दिन को कुछ समझ नहीं...

भाषिक विविधताओं का देश भारत और हिंदी

लेख :: भाषिक विविधताओं का देश भारत और हिंदी — बालमुकुन्द गए कुछ वर्षों से कई साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से साक्षी बनता रहा हूँ। आम तौर पर ऐसे आयोजन भाषा, साहित्य, संस्कृति, इतिहास जैसे विभिन्न विषय केन्द्रित होते हैं लेकिन इन आयोजनों में गाहे-वगाहे एक प्रश्न, एक चिंता बार-बार सम्मुख आती रही है, और वह है लोगों में ‘पढ़ने की परम्परा’ दिनानुदिन कम होते जाने...

इंद्रधनुष की पहली वर्षगाँठ पर प्रधान सम्पादक की चिट्ठी

प्रधान सम्पादक की चिट्ठी :: प्यारे दोस्तों इंद्रधनुष की औपचारिक शुरुआत हुए आज एक वर्ष हो गया. पिछला एक साल कई तरह की चुनौतियों, अनुभवों और संतुष्टियों को देने वाला रहा. सबसे पहले तो संस्था के तौर पर, हमलोग नए हैं, युवा हैं और अभी भी अपने होने की वजहों, अपने होने से पैदा हुई चुनौतियों और हमारे होने से परेशान होने वाले सत्ता प्रतिष्ठानों – इन सब से एक साथ जूझ रहे हैं. समय के साथ आप उत्तेजना...

सच्चाई यही है कि हमाम में सभी नंगे हैं

लेख:: सोने की चिड़िया : प्रभात रंजन प्रणीत हमारे देश को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था, क्या सच में ऐसा था? क्या सच में कभी यह देश इतना विकसित और समृद्ध था कि पूरी दुनिया हम पर रश्क करती थी? इतिहासकार यदि ऐसा मानते हैं तो ऐसा होगा ही. मैं इतिहासकारों के ज्ञान पर संदेह नहीं कर रहा पर आज इस देश की स्थिति को देखकर सहसा किसी को भी इस पर विश्वास करने में एकबारगी दिक्कत तो होगी ही. सोने की चिड़िया...