संपादकीय::
प्रभात प्रणीत

नव वर्ष की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। हम सभी के लिए बदलती तारीखों के बीच यह दिन सिर्फ एक तारीख भर से कहीं ज्यादा होता है। एक पड़ाव पर पहुंचने, एक नई सुबह के आगाज के साथ-साथ यह हमें बीते एक वर्ष के मूल्यांकन का मौका भी देता है। पिछले वर्षों की तुलना में इंद्रधनुष के तहत होने वाले सार्वजनिक कार्यक्रमों की संख्या इस वर्ष काफी कम रही। हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण इंद्रधनुष की विचारधारा, स्तरीयता, और सुगमता है, उतना ही महत्वपूर्ण विचलन, आडंबर और तुच्छता से बचे रहना भी है। साहित्य और खासकर हिंदी साहित्य का वर्तमान ऐसे मौके बार-बार उत्पन्न करता है जब हमारी थोड़ी सी चूक हमें उस दलदल की तरफ आसानी से धकेल सकती है। साहित्य के साथ एक विडंबना तो है कि अपने मूल में यह जितना भी पवित्र हो, उद्देश्य, आचरण के स्तर पर इसके प्रतिभागी से चाहे जितनी भी शुद्धता की मांग हो, व्यवहारिक तौर पर यह इसके बिल्कुल उलट है। फ्रांसीसी दार्शनिक लुईस गेब्रियल एम्ब्रोइस का मानना था कि साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है जैसे शब्द मनुष्य की अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से यदि हम वर्तमान को पढ़ने की कोशिश करें तो घोर निराशा होगी। आम समाज से भी और साहित्यिक समाज से भी। समाज में व्यक्ति पीछे छूट रहा है, निरीह हो रहा है, क्योंकि विभिन्न तंत्र, सत्ताएं रोज शक्तिशाली होती जा रही हैं और यही तंत्र एक सत्ता की चाह में साहित्यिक समाज पर हावी होने की कोशिश कर रहा है, ईश्वर बनना चाह रहा है। प्रश्न यह है कि तथाकथित सामाजिक प्राणी मनुष्य अपनी इस थोपी गई निरीहिता के साथ क्या करे। मैं फ्रायड के इस विचार से सहमत नहीं जिसमें उसने किसी व्यक्ति द्वारा अस्तित्व के स्वतंत्र चुनाव पर बाध्यता और प्रतिनिषेध को आरोपित कर दिया। उसका मानना था कि जीवन की विवशता पर इंसान का कोई वश नहीं, और उसने अपने पूरे विश्लेषण में इस स्थिति की उत्पत्ति का कोई ठोस कारण बताए बिना इन निषेधों को सीधे स्वीकार लिया। मूल्यों के विचार को वह सत्ता से जोड़ता तो है लेकिन वह स्वयं इस सत्ता के बारे में चुप रहता है, कोई चुनौती और उसका आधार ढूंढ नहीं पाता। जबकि एक मनोविश्लेषक से मेरी यह न्यूनतम अपेक्षा होती। इस संबंध में सिमोन द बोउवार के विचार ज्यादा प्रेरक हैं जब वह कहती हैं कि अपने अस्तित्व को स्थापित करना चाहने वाला व्यक्ति अपनी दी हुई परिस्थितियों से परे जाकर स्वतंत्र परियोजनाओं में प्रतिबद्ध होकर ही अपने आपको वापस पा सकता है। सिमोन के ये शब्द मुझे आज ज्यादा प्रासंगिक और जरूरी लगते हैं।

हिंदी साहित्यिक समाज के गौरवशाली इतिहास के बावजूद हम आज की कड़वी सच्चाई को नकार नहीं सकते। आज जब लेखन से महत्वपूर्ण लेखक हो, रचना से ज्यादा लेखक की पृष्ठभूमि प्रतिक्रिया की दिशा और दशा तय करती हो, कई बार सम्मानित पुरस्कार भी विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक समीकरणों से निर्देशित हों, विभिन्न शहरों में मठ बन गए हों और ईर्ष्या, कुटिलता से भरे उसके मठाधीश अपनी कुंठा के साथ मौजूद हों, और इनकी दहशत से स्वाभाविक रूप से कोई नवागंतुक सहम जाता हो तो फिर आप इस हिंदी समाज के स्याह पक्ष से इंकार नहीं कर सकते। ऐसे मठों के निर्माण से अच्छे लेखन की राह में अवरोध उत्पन्न ज़रूर होते हैं लेकिन यह क्षणिक ही होता है। अंततः तो लिखा हुआ ही रह जाता है। हिंदी साहित्य और साहित्यिक जगत का पतन सिर्फ इस विद्या के पतन का द्योतक नहीं हो सकता है। जर्मन विचारक, दार्शनिक योहान वुल्फगांग फान गेटे जिन्होंने बोध, संवेदना और रोमांटिज्म से मिश्रित “विमर क्लासिसिज्म” आंदोलन की शुरुआत की थी, का स्पष्ट मानना था कि “साहित्य का पतन एक राष्ट्र के पतन का संकेत देता है”।  अतः प्रश्न पूरे समाज और राष्ट्र के पतन का है और इसलिए भी यह स्थिति विचारणीय तो है। जो लिखा जा रहा है, जिस तरह लिखा जा रहा है और जिसके लिए लिखा जा रहा है इस पर नजर रखना जरूरी है। सारे संकेत यहीं हैं और यदि हमारी रुचि किसी निदान में है तो वह भी इसी के इर्द गिर्द है। जो विकृति है, क्षय है, विचलन है वह अनायास नहीं है, स्वाभाविक नहीं है। पिछले कुछ दशकों में विश्व राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक रूप से काफी हद तक बदल चुका है, इस परिस्थिति में यह जानना जरूरी है कि लेखक की प्राथमिकता क्या है।उसकी कविता या कहानी में जो आ रहा है उसका मानवता से क्या सरोकार है। हर जगह से उपेक्षित किया जा रहा व्यक्ति उसमें अपनी प्रेरणा, राह ढूंढ पा रहा है या नहीं। नसों में धंस चुके पूंजीवाद के असर और स्वप्न में खोए बुर्जुआ समाज की प्रतिक्रिया के इतर और बावजूद जो दुनिया रची जानी चाहिए या कम से कम बची होनी चाहिए, उस संदर्भ में जो लिखा जा रहा है उसकी प्रकृति मूल्यांकन का एक महत्वपूर्ण आधार होना चाहिए।

समाज और साहित्यिक जगत की विकृतियां भयावह इसलिए भी होती जा रही हैं  क्योंकि यह दौर आत्ममुग्धता के घनघोर चपेट में है। महानता की गैरजरूरी मांग और घोषणा की जल्दबाजी पूरी मौलिकता को नष्ट कर दे रही है। हर व्यक्ति के पास स्वयं का प्रमाण पत्र और घोषणा पत्र है जिसका इस्तेमाल वह कभी खुद को महान साबित करने में करता है तो कभी किसी को तुच्छ साबित करने में। इंद्रधनुष के पूरे सफर में हमलोगाें ने इस तरह की विकृतियों से खुद को बचाने की पूरी कोशिश की है। ऐसे किसी भी संभावित विचलन के प्रति हम सदैव सचेत रहे हैं । दरअसल यह दौर ऐसा है जब तमाम तरह के आंतरिक और बाह्य दवाबों के बीच संतुलित रह पाना और बच पाना सरल नहीं है। सत्ता और उसके षड्यंत्रों से प्रभावित होता समाज जब धीरे-धीरे प्रतिरोध की अपनी स्वभाविकता को भी खोने लगे और जॉम्बी बनती पीढ़ी एक सामान्य घटना बनकर रह जाए तो इसका अर्थ और परिणाम किसी भी विवेकशीलता के लिए बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है जिसके परतों में मनुष्यता के कब्र दफन हैं। अपनी आंखों के सामने बड़े-बड़े मीनारों को ढहते देखना, और अपने ढहने को कुतर्कों से ढकने की कोशिश करते हुए देखना पीड़ादायक है। न तो सभ्यता की विकृतियों को सुनहरे पैबंद से ढका जा सकता है और न ही अपनी आंखें बंद भर कर लेने से तथ्य बदल जाते हैं। संकट सिर्फ यह प्राप्त भर नहीं है, यह कहीं ज्यादा गहरा इसलिए है क्योंकि अब कोशिश बची खुची संवेदनशीलता और समझ को कुंद कर देने की है। और यदि यह षड्यंत्र भी सफल हो गया तब अवशेषों की गिनती भी असंभव हो जाएगी।

लेकिन इस गहरे निराशा के दौर में भी तमाम क्षय के बावजूद मनुष्यता को कायम रखने हेतु जो भी संभावना नजर आती है वह चंद निर्दोष सामाजिक विचारों और साहित्य की  छांव के पास ही नजर आती है। इसे कायम रखने की कोशिश करते रहनी होगी। परिणाम और कल पर हमारा बस नहीं, यह हमारा विषय भी नहीं। हम ऑस्कर वाइल्ड के इन शब्दों से प्रेरित हो सकते हैं कि “साहित्य हमेशा जीवन की आशा करता है। वह उसकी नकल नहीं करता बल्कि उसे उसके उद्देश्य के अनुसार ढालता है।”और हमें और पूरे साहित्यिक समाज को इस जिम्मेदारी को समझना चाहिए। रास्ते और रौशनी इन्हीं के मध्य हैं। हमें प्रयासरत रहना होगा, इसी आह्वान के साथ।

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