कविता-भित्ति ::
जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 – 15 नवम्बर 1937) समादृत कवि-कहानीकार-नाटककार हैं। प्रसाद छायावाद के आधार स्तम्भों में से एक हैं। ‘उर्वशी’, ‘झरना’, ‘चित्राधार’, ‘आँसू’, ‘लहर’, ‘कानन-कुसुम’, ‘करुणालय’, ‘प्रेम पथिक’, ‘महाराणा का महत्त्व’, ‘कामायनी’, ‘वन मिलन’ उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं। ‘कामायनी’ उनकी विशिष्ट रचना है। कविता-भित्ति के इस अंक में प्रसाद की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं:

बीती विभावरी जाग री

बीती विभावरी जाग री!
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा-घट उषा नागरी।

खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस-गागरी।

अधरों में राग अमंद पिए,
अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली!
आँखों में भरे विहाग री!

सब जीवन बीता जाता है

सब जीवन बीता जाता है
धूप-छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है

समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है।

ले चल वहाँ भुलावा देकर

ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी, अंबर के कानों में गहरी—
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे!

जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया ढीले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो, ताराओं की पाँति घनी रे!

जिस गंभीर मधुर छाया में—विश्व चित्र-पट चल माया में—
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई दुख-सुख वाली, सत्य बनी रे!

श्रम-विश्राम क्षितिज बेला से—जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से—बिखराती हो ज्योति घनी रे!

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इंद्रधनुष पर प्रकाशित स्तम्भ ‘कविता-भित्ति’ के अंतर्गत अपनी भाषा की सुदीर्घ और सुसम्पन्न काव्य-परम्परा से संवाद और स्मरण करने के उद्देश्य से हम अपनी भाषा के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर की रचना का पाठ और पुनरावलोकन करते हैं। इस स्तम्भ में प्रकाशित कृतियों को देखने के लिए देखें: कविता-भित्ति