कविता-भित्ति::
सोहनलाल द्विवेदी

सोहनलाल द्विवेदी ( २२ फरवरी, १९०६ – १ मार्च १९८८ ) का जन्म फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के बिंदकी गाँव में हुआ था। उनकी रचनाएँ देशप्रेम की ओजस्विता के लिए जानी हैं और महात्मा गाँधी पर केंद्रित उनकी कई भावपूर्ण रचनाएँ अत्यंत प्रशंसनीय हैं। वह जन-सरोकार और स्वतंत्रता-संग्राम में सक्रिय रहनेवाले कवि थे। उनकी कविता-शैली सहज और मर्मस्पर्शी होने के साथ ही, गाँधीजी के अहिंसात्मक क्रांति को जन-जन तक विस्तार देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए जानी जाती हैं। उनकी रचनाएँ महात्मा गांधी के विचारों की संवेदना को जन-जन तक प्रसारित करने के लिए जानी जाती हैं।

प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन लिखते हैं-
“जहाँ तक मेरी स्मृति है, जिस कवि को राष्ट्रकवि के नाम से सर्वप्रथम अभिहित किया गया, वे सोहनलाल द्विवेदी थे। गाँधीजी पर केंद्रित उनका गीत ‘युगावतार’ या उनकी चर्चित कृति ‘भैरवी’ की पंक्ति ‘वन्दना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला हो, हो जहाँ बलि शीश अगणित एक सिर मेरा मिला लो’ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सबसे अधिक प्रेरणा गीत था।”

उन्होंने साल १९३७ में लखनऊ से दैनिक पत्र ‘अधिकार’ से संपादक कार्य की शुरुआत की, साथ ही ‘बालसखा’ का सम्पादन भी किया। वह उन रचनाकारों में सर्वप्रतिष्ठ हैं, जिन्होंने बाल-साहित्य को समृद्ध करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। उनकी बाल-कविताएँ अत्यंत सुरुचिपूर्ण और भावपूर्ण हैं, जिनका पाठ बाल-वृंद के बीच काव्यानुभूति लिए चला जाता है। पद्मश्री से अलंकृत कवि के कुछ प्रमुख रचना-संग्रह हैं- ‘भैरवी’, ‘पूजागीत’, ‘विषपान’, ‘वासवदत्ता’, ‘जय गांधी’, ‘दूध-बतासा’ (बाल-काव्यसंग्रह)।

हम अपने स्तंभ ‘कविता-भित्ति’ के माध्यम से यह प्रयास करते हैं कि पाठकों तक हमारी समृद्ध काव्य-परंपरा की संग्रहणीय थाती पहुँचे। इसी क्रम में हम कवि के संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी कुछ प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत करते हैं, ताकि पाठक उत्कृष्ट काव्यभाषा और काव्य-संस्कृति की ओर लौट सकें। प्रस्तुत दो रचनाएँ कवि सोहनलाल द्विवेदी की काव्य-सृष्टि की परिचायक हैं। ‘युगावतार गाँधी’ बापू के जीवन-कर्म के गहरे दर्शन से पूर्ण है। ‘रे मन’ में कवि उत्साह और प्रतिबद्धता के मानवीय गुणों को थामे रखने का उद्घोष करते हुए संगीतमय गीत रचते हैं। लयबद्ध काव्य का संगीत और अनुकरणीय शब्द-संयोजन उनकी कविताओं को स्मृतियों के उन झरोखों में रख जाता है, जिसमें बार-बार झाँका जा सके और कवि के अंतस को महसूस किया जा सके, प्रेरित हुआ जा सके।

१. युगावतार गाँधी

चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,

जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गये उसी पर कोटि माथ;

हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!

युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;

तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
तुम मौन बने, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना;

युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
युग-संचालक, हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार!

तुम युग-युग की रूढ़ियाँ तोड़
रचते रहते नित नई सृष्टि,
उठती नवजीवन की नींवें
ले नवचेतन की दिव्य-दृष्टि;

धर्माडंबर के खँडहर पर
कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त
मानवता का पावन मंदिर
निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!

बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!
गढ़ते तुम अपना रामराज,
आत्माहुति के मणिमाणिक से
मढ़ते जननी का स्वर्णताज!

तुम कालचक्र के रक्त सने
दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़,
मानव को दानव के मुँह से
ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;

पिसती कराहती जगती के
प्राणों में भरते अभय दान,
अधमरे देखते हैं तुमको,
किसने आकर यह किया त्राण?

दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम कालचक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!

कँपता असत्य, कँपती मिथ्या,
बर्बरता कँपती है थरथर!
कँपते सिंहासन, राजमुकुट
कँपते, खिसके आते भू पर,

हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,
सेनायें करती गृह-प्रयाण!
रणभेरी तेरी बजती है,
उड़ता है तेरा ध्वज निशान!

हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?
इस राजतंत्र के खँडहर में
उगता अभिनव भारत स्वतंत्र!

२. रे मन

प्रबल झंझावात में तू
बन अचल हिमवान रे मन।

हो बनी गम्भीर रजनी,
सूझती हो न अवनी,
ढल न अस्ताचल अतल में
बन सुवर्ण विहान रे मन।

उठ रही हो सिन्धु लहरी
हो न मिलती थाह गहरी
नील नीरधि का अकेला
बन सुभग जलयान रे मन।

कमल कलियाँ संकुचित हो,
रश्मियाँ भी बिछलती हो,
तू तुषार गुहा गहन में
बन मधुप की तान रे मन।

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इन्द्रधनुष पर प्रकाशित स्तम्भ ‘कविता-भित्ति’ के अंतर्गत अपनी भाषा की सुदीर्घ और सुसम्पन्न काव्य-परम्परा से संवाद और स्मरण करने के उद्देश्य से हम अपनी भाषा के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर की किसी रचना का पाठ और पुनरावलोकन करते हैं। इस स्तम्भ में प्रकाशित कृतियों को देखने के लिए देखें : कविता-भित्ति