समय निरंतर ही रूखड़ा होता जा रहा है. उससे टेक लगा कर बैठना प्रतिदिन ज़्यादा कष्टप्रद . समाज पर भी सूखा हावी. ऐसे में ज़रूरी है, जहाँ तक सम्भव हो, साहित्य की चादर हम ओढ़े चलें. उन सब को साथ कर लें जो सड़क से कुछ किनारे चल रहे हैं, जो चलना चाहते हैं , शायद दौड़ना भी, पर रास्ते अभी भी उनको दूर ही दिखते हैं.किसी नए लिखने पढ़ने वाले को यह ज़रूरी लगता है कि उसके आसपास कुछ ऐसे लोग हों जिन तक वह बेहिचक जा सके. एक ऐसा मंच जहाँ उसे सचमुच की गंभीरता से सुना जाए ना कि सिर्फ़ कोरम के निर्वहन के तौर पर. अपना समाज आप बनाना होगा- यह कोई नई बात नहीं है. जब समय और समाज इस तरह होते जाएँ, जैसे अभी हैं तो साहित्य ज़रूरी दवा है. इंद्रधनुष इस विस्तृत मरुस्थल में थोड़ी जगह हरी कर पाए, बचा पाए, नई बना पाए, इतनी ही आकांक्षा है. एक जगह ऐसी हो दुनिया में, जहाँ आप भटकते हुए भी पहुँचें, तो कोई हाथ बढ़ा कर लोक ले आपको.
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