राजकमल चौधरी के कुछ उद्धरण :

परिश्रम और प्रतिभा आप-ही-आप आदमी को अकेला बना देती है। उसे दूसरों का साथ करने का अवकाश नहीं देती। इतना समय भी नहीं कि वह दूसरों के आलस्य, आराम, शौक, भावुकताओं का हिस्सेदार बन सके। परिश्रम आदमी को भीड़ बनने, और प्रतिभा भीड़ में खो जाने की इजाजत नहीं देती।

आदमी जितना ऊपर चढ़ता है, नीचे की जमीन को उतना ही भूलना चाहता है, क्यूंकि नीचे देखने पर उसे डर लगता है। नीचे गिर जाने का डर !

जिन्हें अपने जीने, और अपने जिए जाने के सबूतों का प्रचार करना नहीं आता—कोई उनकी याद नहीं रखता है।

…जिसकी आत्मा में शक्ति होती है कि वह अपने सपनों को जीवित रख सके, वह नहीं मरता है।

वक्त जानने के लिए, वक्त की पाबन्दी अनिवार्य है।

पाप की तरह नैतिकता भी नशा है। नैतिकता भी आदत है। नैतिकता भी आदमी को गुलाम और अन्धा बनाती है। जैसे किसी औरत का प्यार अन्धा बनाता है।

बिना साहस किए किसी को प्यार नहीं मिलता है।

सबसे बड़ी बात है करुणा !

धीरे-धीरे उम्र ढलती जाती है। मगर, उत्ताप नहीं ढलता। इच्छाएँ और भी प्रबल होती हैं। मन और भी पागल।

आदमी जब आदमी नहीं होता, बर्फ का पिघलता हुआ टुकड़ा होता है— वह मर जाता है।

आत्मरति! पररति नहीं मिले, तो और क्या उपाय है ?

लोग दूसरी स्थितियों और घटनाओं से लड़ते हैं। यह लड़ाई गलत है, यह लड़ाई नकली है। लोगों को सबसे पहले अपने-आपसे लड़ना चाहिए। नहीं तो एक वक्त आता है, जब आदमी खुद ही खुद को पराजित करने में खुश होने लगता है। पराजय उसकी आदत बन जाती है। पराजय उसकी अकेली खुशी।

अखबार अब अखबार नहीं रह गए हैं। जनता के खिलाफ पूँजीपतियों की लड़ाई के हथियार बन गए हैं। जनता पैसे देकर ये अखबार खरीदती है और शिकार बनती है।

ईमानदारी अब खरीद-बिक्री की चीज हो गई है।

… गृहस्थ स्त्रियाँ प्यार नहीं कर सकतीं। प्यार कर सकती हैं आवारा औरतें। जिन्हें किसी चीज की परवाह नहीं है। जो सामाजिक मर्यादाएँ नहीं मानतीं। नैतिक नियंत्रण नहीं मानतीं। धर्म नहीं मानती हैं।

साधारण मनुष्य होने से बढ़कर सुख की बात दूसरी नहीं है।

आदमी की शुरुआत उसके अपने परिवार से होती है। परिवार का वातावरण और परिस्थितियाँ ही सबसे पहले उसके व्यक्तित्व और कार्यों पर प्रभाव डालतीं हैं।

… प्यार मरता है। वासनाएँ भी मर जाती हैं। करुणा नहीं! केवल एक करुणा नहीं मरती है।

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राजकमल चौधरी ( 13 दिसम्बर, 1929 – 19 जून 1967 ) हिन्दी-मैथिली के समादृत कवि–कथाकार हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनके उपन्यास ‘मछली मरी हुई’ से साभार लिए गए हैं। 

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