सम्पादकीय ::
प्रभात प्रणीत

पाँच वर्ष पूर्व आज ही के दिन इंद्रधनुष ने अपनी यात्रा शुरू की थी। न्यूनतम साधन और एक छोटी टीम के साथ की गई इस यात्रा के दौरान आप सभी का जो प्रेम हमें प्राप्त हुआ उससे हम अभिभूत हैं। स्वाभाविक रूप से इससे उत्पन्न उत्तरदायित्व का बोध हमें है। संयोग से हमारी यह यात्रा इतिहास के उस कालखंड में हुई है जब व्यक्ति, समाज और राजनीति ने वैसी करवट ली है जिसकी कल्पना करना भी कुछ समय पूर्व तक काफी कठिन था। इस बीच बहुत कुछ बहुत तीव्र गति से बदला है, इतनी तीव्र गति से कि उसे स्वीकारने और उसके साथ सामंजस्य बैठा पाना आसान नहीं था। तमाम लोग इसमें असफल भी होते रहे। सुबह और शाम की दूरी, फर्क, रंग और गंध सब आपस में उलझ से गये, सिरा थामने की कोशिश करते हमारे जैसे लोगों के हाथों से मानो पूरी सृष्टि फिसलती चली गई। और यह सिर्फ धरती के इस हिस्से की ही कहानी नहीं है। एक दशक पूर्व जब हमलोगों ने इस निष्कर्ष के तरफ सोचना शुरू कर दिया था कि कुछ अपवादों को छोड़कर मनुष्यत्व, स्वतंत्रता, सार्वभौमिकता अपनी जड़ें गहरी कर चुका है और आदमखोर अनैतिक संघर्ष, दमन, भूत की कहानी बनकर रह जाएँगे, भविष्य मानवतावादी और लोकतांत्रिक मूल्यों पर केंद्रित होगा, तभी एक गर्म बयार सी बह चली और धरती के तमाम हिस्से झुलसने लगे।

संभवतः हमारे आकलन अति-उत्साही थे या फिर हमारा मानव व्यवहार संबंधित अध्ययन अपूर्ण है, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान के पाठ अधूरे हैं। स्थापित शक्तिशाली परिभाषाएँ, सीमाएं वस्तुतः खोखली हैं, अपने मूल में अप्रासंगिक हैं और हमें और हमारी दिशा को सीधे प्रभावित करने वाली गठित और पोषित अवधारणाओं में कहीं कुछ तो गलत है। जैसे, पशुता खौफनाक ही होती है और यांत्रिकी महान; इस समझ में कहीं कुछ गायब है, छूटा हुआ है। वॉल्ट व्हिटमैन का मनुष्य जाति से अपनी निष्ठा तोड़ पशुओं के बीच सहज होना क्या अनायास था, अस्वाभाविक था? उनकी “एनिमल्स” कविता को हमने कितनी गंभीरता से आत्मसात किया! साहित्य का व्यक्ति शासन हेतु, जीवन हेतु तंत्र नहीं बना सकता, वह रौशनी दिखा सकता है, आगे का काम तो नष्ट हो रही पीढ़ियों का है।

अन्य पशुओं से आमूल भिन्न सिद्ध होने की हमारी वहशी होड़, हर तथ्य के सरलीकरण का हमारा प्रयास, मशीन बनाते-बनाते मशीन बन जाने की हमारी आकांक्षा ने हमारी संवेदनशील, कच्चे मन-मस्तिष्क की निर्दोष प्राकृति के साथ खिलवाड़ कर दिया है। हमारी संवेदनशीलता कुंद पड़ती गई, हमारी स्वाभाविकता नष्ट होती गई और हर बात निर्धारित तार्किकता, निर्देशित स्पष्टता की चाह के भेंट चढ़ गई। हमारे नैसर्गिक गुणों को तमाम परिभाषाओं की कसौटी पर कसकर अपराध घोषित कर दिया गया। हमारी संवेदनशीलता को कमजोरी कहा गया, परखने के क्रम के द्वंद्व को स्खलन बता दिया गया  हम भूल गए कि हमारा द्वंद्व हमें ज़ॉम्बी बनने से रोकता है, ठहरने का मौका देता है, जबकि एकरूपता वाली कृत्रिमता की माँग हमें भीड़ में तब्दील कर देती है जिसका दुरुपयोग कोई भी तंत्र आसानी से कर सकता है। उदाहरण हर तरफ, हर दिशा में मौजूद है।

यदि हम इस दयनीय स्थिति में हैं तो निदान के पहले स्वावलोकन, निष्पक्ष परीक्षण की आवश्यकता है। क्रमिक विकास के सिद्धांतों, इतिहास और विसंगतियों का अध्ययन ज़रूरी है। सुंदरता और कुरूपता हमारी दृष्टि दोष न हो कर वैयक्तिक सत्य बन जाये तो गंभीर मूल्यांकन ज़रूरी है। हमारी नजरों में किसी वज़ह से ऊँचाई पर बैठे लोग यदि मौलिक मानवीयता खोते दिखें तो उत्पन्न पीड़ा के बीच अर्थ और समझ बनाते कारकों पर ध्यान देना होगा। उदाहरणार्थ, आतंक, विध्वंस भी क्या द्विअर्थी हो सकते हैं, क्या इसमें भी मनमाफिक चयन की संभावना बची रहती है? यूक्रेन में मारे जा रहे लोगों का दर्द फिलिस्तीन में मर रहे लोगों से अलग कैसे है? इनसे संबंधित प्रतिक्रियाओं में, प्रतिक्रिया देने वाले स्वर में फर्क क्यों है? हजारों किलोमीटर दूर जॉर्ज फ्लोयड की नृशंस हत्या पर “ब्लैक लाइव्स मैटर” के टैग के साथ विरोध प्रदर्शन करने वाले नामचीन लोग अपने घरों से चंद किलोमीटर दूर रोज हो रही वैसी ही वीभत्स हत्याओं, अत्याचारों चुप कैसे रह जाते हैं? सरेआम लिंच किये जा रहे, मारे जा रहे, अपने ही मुल्क में अवांछित या फिर दोयम दर्जे का नागरिक साबित किये जा रहे समुदाय, वर्ग उन्हें कैसे दिखाई नहीं देते? मानव मस्तिष्क में ऐसी बेशर्म चयन की प्रणाली क्या सभ्यता के आरंभ से है? और यदि है तो विज्ञान, दर्शन, साहित्य की सबसे बड़ी उपयोगिता तो इसे दुरुस्त करने की थी, मूल के विकार को ठीक करने के बजाय उसे अन्य तथाकथित उपलब्धियों की तरफ मोड़ देना किसकी साजिश थी या है?

डार्विन का विकासवाद हो या हीगेल का इतिहासवाद या फिर बेंथम और जे. एस. मिल के उपयोगितावाद ही, उनके सूक्ष्म विश्लेषण की वास्तविक जीवन में क्या उपयोगिता बची जब हम मूल मानवीय विकार का हल नहीं ढूँढ पाये जो अंततः सबकुछ नष्ट करने पर उतारू है। विडंबना यह है कि उपरोक्त तमाम वाद के आलोचक फ्रेडरिक नीत्शे भी कोई निदान उपलब्ध नहीं करा पाते। मानव मस्तिष्क की कुरूपता देखिए कि मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद एवं परिघटनामूलक चिंतन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, “ईश्वर मर चुका है” कहने वाले नीत्शे के लेखों का दुरूपयोग रक्त, नस्ल श्रेष्ठ की घोषणा करने वाले फासिस्ट लोग भी कर गये। यह कैसे हो गया, हमने इसकी अनुमति कैसे दे दी, हमारी इन निर्णायक असफलताओं की वज़ह क्या है? शाब्दिक, सैध्दांतिक आडम्बरों को छोड़कर आवश्यकता इन मूल प्रश्न पर लौटने की है।

“ऑशविट्ज़ कॉनशनट्रेशन कैंप’ एक व्यक्ति की जिम्मेवारी नहीं थी, एक समझ का निष्कर्ष नहीं था, उसमें शामिल सामूहिकता, असहनीय वेदनाओं पर उस सामूहिकता का उन्मादी हर्ष हमारी ही असफलताओं की कब्र है, और आश्चर्यजनक रूप से हमने इसे बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लिया।  हद तो यह कि हमने उसे बीता कल भी मान लिया और आज जब हमारे आसपास का एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को सिर्फ उसके भिन्न समुदाय का होने की वजह से जिंदा जला देता है, एक नौकरीपेशा आदमी ट्रेन के डब्बों में ढूँढ-ढूँढ कर एक समुदाय विशेष के व्यक्ति की हत्या करता है, महिलाओं का एक समूह अपने से भिन्न नस्ल की महिला को आदमियों के समूह को नग्न परेड और सामुहिक बलात्कार के लिये सौंप देता है तो हम दंग रह जाने का बखूबी अभिनय कर लेते हैं। हमारी विकृतियों की मीनार हमें भला कैसे अचंभित कर सकती है जबकि हमने इसे स्वयं ही बनने दिया है।  शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, विभिन्न शास्त्रों की क्या प्रासंगिकता जब हम हमें निगलने वाली विकृतियों पर ही विजय प्राप्त नहीं कर सके, और ना ही इस दिशा में कभी गंभीर ही हुए। और साहित्य व कला, साहित्य, कला की ही क्या भूमिका रही है, क्या साहित्य व कला जगत के चमकते सितारे कटघरे से मुक्त हैं, उनकी प्रासंगिकता, प्राथमिकता, उनका चरित्र क्या संदेहास्पद नहीं है? “ऑशविट्ज़ के बाद कविता लिखना बर्बरतापूर्ण है”- थियोडोर एडोर्नो के ये शब्द क्या आज भी नहीं गूंज रहे हैं। थियोडोर एडोर्नो सिर्फ दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री ही नहीं थे बल्कि वे एक संगीतकार भी थे और इसलिए उनके ये शब्द हमारे जेहन को ज्यादा रौंदते हैं।

गंभीर मानवीय विकार को दुरुस्त करना तो बहुत दूर की बात विचारधारा की लड़ाई भी समर्पण, मनोयोग से नहीं लड़ी गई। सत्य, अहिंसा की बात करने वाले एक बूढ़े व्यक्ति की हत्या के पश्चात उनके तथाकथित समर्थकों ने हर जगह उनकी मूर्तियाँ बना डाली, साल का एक दिन उनके नाम पर सुरक्षित कर दिया तो दूसरी तरफ उनकी हत्या करने वाले लोगों ने अपने दिन-रात, महीने-साल उस हत्या को जायज ठहराने, खुद को एक समुदाय का रक्षक बताने के लिये तमाम प्रोपेगेंडा करने और उन्मादी भीड़ के निर्माण में लगाया। परिणामतः यही लोग राजनीतिक, सामाजिक सत्ता पर हावी हो गये। अब उस बूढ़े व्यक्ति के विचारों के समर्थक कहे जानेवाले लोग अचंभित, किंकर्तव्यविमूढ़ होने का अभिनय करते, विलाप करते घूम रहे हैं। क्या इनके पास पीढ़ियों को शिक्षित करने वाले तंत्र, संसाधन की कमी थी, या फिर हत्यारे व उनके समर्थकों की विध्वंसक विचारधारा के प्रति आमजन को आगाह करते रहने के लिए पन्नों की कमी थी या फिर प्रश्न प्राथमिकताओं का है। हमारा प्राप्त हमारी ही करतूत है।

इस भयावह स्थिति में जब हिंसा, दमन आम हो, जिसे उपलब्धि के रूप में प्रदर्शित किया जाए और एक पूरा वर्ग होने वाली मौतों के बदले इस बात के लिये चिंतित हो कि आज उसकी सोसाईटी की सफाई करने वाले हिंसाग्रस्त मजदूर आ पाएंगे या नहीं, रोज की तरह उनका पार्क खूबसूरत दिखेगा कि नहीं जहाँ वे शाम में वॉक करते हुए इंस्टाग्राम के लिए रील बनाते हैं तो इसका अर्थ सिर्फ एक है कि यह सड़ चुका वर्ग चूँकि असंवेदनशील है इसलिए द्वंद्व विहीन भी है। उसके मन में कोई दुविधा नहीं। उसके नफरत, उसकी प्राथमिकता, उसकी आवश्यकता और चुनाव सब उसके लिए शंका मुक्त हैं, स्पष्ट हैं। लेकिन मेरा यह निष्कर्ष भी क्या हताशा में हासिल एक सरलीकरण भर है? कटघरे में तो मैं भी हूँ, कटघरे में तो इस पीढ़ी का, बीत चुकी पीढ़ी का हर व्यक्ति है। समस्या और निदान सिर्फ पूँजीवाद और समाजवाद जैसे प्रचलित शब्दों के मध्य ढूंढना भी वक्त की बर्बादी है। बहुत कुछ उलझा है, निर्धारित सिद्धांतों और सीमाओं के परे है जिन पर नई दृष्टि और व्यापक विमर्श की आवश्यकता है। भौगोलिक सीमाएं और धार्मिक प्रतिबद्धता जब नशा बन जाए और उसकी अंधभक्ति हवस, उत्पीड़न की ओट तो फिर विवेचना का दायरा संपूर्णता में होगा, निर्धारित मापदंडों से परे होगा।

हालाँकि अब कोई सरलीकरण संशय उत्पन्न करता है बावजूद इसके संवेदनशील मन का क्षय और द्वंद्व विहीनता का आक्रामक आग्रह मेरी दृष्टि के मध्य में आ कर बार-बार अवरोध की तरह खड़ा हो जाता है। विद्रोह का स्वर लिए, सभ्यता के मूलभूत प्रश्नों से जुड़कर यथार्थ और पीड़ा के संघर्ष का काव्य गढ़ने वाले मुक्तिबोध का द्वंद्व क्या एकाकी था? उनके अंदर का भय, बेचैनी पूरी पीढ़ी की गाथा है और क्या वह पीढ़ी द्वंद्व मुक्त है? और क्या इसलिए वे हमसे बेहतर नहीं थे? मुक्तिबोध की विमलधारा कविता उनके द्वंद्व को स्पष्ट करते हुए खुले शब्दों में कह रही है कि वे जिस सीमा रेखा को चुनौती दे रहे हैं उसी में बंधे हैं, संघर्षशील हैं, बेचैन है। न तो यह बेचैनी व्यक्तिगत है और न ही मूल द्वंद्व व्यक्तिगत। संवेदनशीलता द्वंद्व गढती है जिसके संप्रेषण, अभिव्यक्ति को पढ़ने वाली परिभाषाएँ पूरी तरह खोखली हैं, विभिन्न स्वार्थो से निर्देशित है। परिणामतः दिशाहीन, भ्रमित पीढ़ी जिसे सबकुछ साफ-साफ दिखने का भ्रम है हमें निगलने को आतुर है और जिसका लाभ अंततः विभिन्न सत्ताएं उठाती जा रहीं हैं। एकरूपता को स्वाभाविक और द्वंद्व को अस्वाभाविक घोषित करने वाले नियामक, ब्लैक एंड व्हाइट में अर्थ की चाह दरअसल तमाम ओटों की जननी है जहाँ विकृतियां अस्तित्व में आती हैं। स्पष्टतः, हम पर थोपी गई परिभाषाएँ, दर्शन अपूर्ण हैं, अक्षम हैं।

यदि हम इसकी पुष्टि करना चाहें तो ऐसे असंख्य उदाहरण मौजूद हैं। जैसे मायकोवस्की का जीवन ही। क्या मायकोवस्की का द्वंद्व सिर्फ अंतः का था, निजी भर था? मायाकोवस्की ने अपने द्वंद्व, वातावरण से अपनी असंबद्धता को कभी नहीं छुपाया।  उनकी रचनाओं में भी यह दिखता है। “ए क्लाउड इन ट्राउज़र्स” (ओब्लाको वी शतानाख) और “बैकबोन फ़्लूट” (फ़्लेटा पॉज़्वोनोचनिक) कविताओं में उन्होंने खुले शब्दों में अपने समय, संसार, वह दुनिया जिसका वे हिस्सा थे, से अपनी निराशा, दूरी और एकतरफ़ा प्यार की त्रासदी को बयां किया है, अपने द्वंद्व को स्पष्ट किया है। वे जिस व्यवस्था के समर्थक थे उसके आलोचक भी थे, और इसे प्रदर्शित करने में उन्हें कोई हिचक भी नहीं थी। मार्क्स, लेनिन का प्रभाव भी उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाया और इसे उन्होंने खुलकर जाहिर किया। प्रेम उनकी जीवन रेखा थी लेकिन उन्होंने जिस स्त्री से सबसे ज्यादा अवधि के लिए प्रेम किया, और जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित थे उस लिल्या ब्रिक के लिए उन्होंने मृत्यु को नहीं चुना। यदि वास्तव में उन्होंने आत्महत्या ही की थी तो इसकी तत्कालीन वज़ह वेरोनिका पोलोन्सकाया थी जिनसे उन्होंने अपेक्षाकृत अल्पावधि के लिए प्रेम किया। अब क्या हमारी तथाकथित नैतिकता निर्देशित कठोर परिभाषाएँ मायकोवस्की के ऐसे कृत्य के साथ न्याय कर सकती हैं?

यह तो तय है कि संवेदनशीलता व्यक्ति को स्थापित नियामकों के विरुद्ध स्वाभाविक रूप से प्रेरित रखती है या इसका एक अर्थ यह भी है कि बीत रही कोई भी सभ्यता मानवीय शुद्ध संवेदनाओं को पढ़ने में बुरी तरह विफल रही है और इसलिए खास कालखंड में प्रभावी, व्यापक दिखती तमाम सभ्यताएं, सत्ताएं अंततः अंत को प्राप्त होती है।

मनुष्य अपनी लघुता से सबसे ज्यादा डरता है और इसलिए उसका सामना परिभाषाओं से करता है, एक युद्ध इन्हें तंत्र के रूप में निर्धारित करने के लिये होता है और दूसरा युद्ध इन्हें कायम रखने के लिये तब तक जारी रहता है जब तक कि मनुष्य की कोई दूसरी लघुता प्रकट न हो जाए। लेकिन सभ्यता अपनी डोर कतई ढ़ीली नहीं करती। इस पूरे भ्रम भरे ऊहापोह भरी स्थिति में एक संवेदनशील व्यक्ति निरन्तर जूझता है। पीड़ा को उपहास बनाकर ध्वस्त करता है। डॉम हेल्डर कैमेरा का यह कहना कि “जब मैं ग़रीबों को खाना देता हूँ, तो वे मुझे संत कहते हैं, जब मैं पूछता हूँ कि ग़रीबों के पास खाना क्यों नहीं है, तो वे मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं” अनायास नहीं था। वे जानते थे कि सत्ताधारी लघुतायें किसी वैसे वाद को स्वीकृति प्रदान नहीं कर सकती जो मनुष्य को उसकी पूर्णता में पहचाने और तमाम आरोपित मिथकों से इतर उसके अस्तित्व के संरक्षण को प्रेरित रहे। और शायद वे कहना चाहते थे कि स्वयं की लघुता को ढकने की निरर्थक कोशिश करती सत्ताएं व्यक्ति को उपेक्षित, नियन्त्रित करने की चाहे जितनी कोशिश कर लें, वह इसे कभी भी स्थायी नहीं बना सकती, इस बात का भ्रम चाहे जितना पाल लें। कुचले जाने वाले लोग न तो कभी फेंकी गई रोटी को स्वीकार करेंगे और न ही बलात् मृत्यु को अंगीकृत करेंगे। चिर स्थायी शांति की कोई भी कल्पना इनके जीत के बगैर पूरी नहीं होगी क्योंकि मनुष्य और मनुष्यता को नकार कर सभ्यता कभी पूर्ण हो ही नहीं सकती। दरअसल यह विरोधाभास ही तमाम विकृतियों की जड़ है जिसे झुठलाने के लिए भी तमाम तंत्र अपनी विलक्षण कृत्रिमताओं के साथ अट्टहास करते हुए मौजूद है। परिणामतः लाल रक्त का समंदर बनाते युद्ध भी हजारों वर्षों की लम्बाई लिए हो सकते हैं और विकृतियों की ऊंचाई भी अंतरिक्ष तक पहुँचा सकती है।

ऐसी परिस्थिति में साहित्य या साहित्यिक व्यक्ति की मूल भूमिका पर होने वाले विमर्श की षट्कोणीय रेखाओं में से मुझे वह रेखा आकर्षित करती है जो मनुष्य के मेरुदंड पर सीधे तन कर आरोपित होती है और मनुष्यत्व के अर्थ को सार्थक करती है।  इंद्रधनुष का प्रयास इसी रेखा के इर्द-गिर्द रहकर उन्हें मजबूती प्रदान करने का रहा है जो आप लोगों के सहयोग से भविष्य में भी कायम रहेगा। हम कोशिश करेंगे कि हमारे आसपास के इलाके में जन्में जॉर्ज ऑरवेल के लिखे पन्नों को, उसके निहितार्थ को (जिन्हें बीते दशकों में लगातार पढ़ाए जाने की आवश्यकता थी और जिसे न पढ़ाए जाने की क़ीमत हम चुका रहे हैं) सुलभ कराएं, हीरा डोम जैसे लेखकों की रचनाओं को जिन्हें जानबूझकर पढ़ा ही नहीं गया, को स्थान दें, और हमेशा की तरह सशंकित या हाशिये पर रुकीं संवेदनशील लेकिन मजबूत आवाजों को स्वर दें जिन्हें सुनना बहुत जरूरी है, इस घुप्प अंधेरे में जहाँ आशा की किरण बची है।

हमें ज्ञात है कि यह यातनाओं का युग है लेकिन हम कोशिश करते रहेंगे।

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प्रभात प्रणीत कवि-कथाकार हैं। उनसे prabhatpraneet@gmail.com पर बात हो सकती है।

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