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कैफ़ आलम कैफ़ की ग़ज़लें
1.
बस देख के तुझ को दम निकले
ये सोच के ही तो हम निकले
गर मिलना हो दो लम्हों का
तो हम भी घर से कम निकले
वो प्यास कहाँ अब लोगों में
जो मारे पा ज़मज़म निकले
जो डूब के देखा आँखों में
हर आँख यहाँ अब नम निकले
क्या हाल बताऊँ लोगों का
कब किस को कैसा ग़म निकले
जो जलते थे तेरे होने पे
तेरे जाने पे हम दम निकले
ऐ कैफ़ ये राहें मुश्किल हैं
ये देख के फिर भी हम निकले
2.
खो चुके हैं हम मताऐ-जाँ तेरे रुख़सार पर
ख़्वाब है या है हक़ीक़त शक है इस दीदार पर
उंगलियाँ उठने लगी हैं अब मेरे किरदार पर
राज़ तेरे आँसुओं का खुल गया संसार पर
वो जो रुख़्सत हो गया तो हर ख़ुशी जाती रही
जम गई है गर्द-ए-वहशत अब दर-ओ-दीवार पर
मक्खियों ने हमसे पहले होंठ अपने रख दिए
मैंने उंगली से बनाया फूल जब दीवार पर
मेरी आँखें मुनजमिद थीं जिसकी आँखें देख कर
मैंने देखी थीं वो आँखें डोलती दो-चार पर
वस्ल की दावत पे उकसाया था मैंने ही उसे
अब तलक भड़का हुआ है वो मेरे इनकार पर
3.
इस दिल में है तुम को रहना
हम को तो है बस ये कहना
बातें दिल की यूँ तुम करना
जो भी कहना सच-मुच कहना
भोली सूरत उस पे तिल है
उफ़ क्या कहना, उफ़ क्या कहना
जब लब खोले फूल झड़े हैं
मुश्किल है क़ाबू में रहना
बिखरी ज़ुल्फ़ें रंग सुनहरा
उससे बढ़ के क्या हो गहना
ये तो अपनी क़िस्मत है
इक पल हँसना और ग़म सहना
माँ-सी ममता है उस में
सब की प्यारी वो है बहना
4.
ये दास्तान-ए-हयात क्या है ये हम बताएँ कि तुम बताओ
रफ़ाक़तों का सिला मिला है ये हम बताएँ कि तुम बताओ
न सानी उसका कोई यहाँ है न उस से बढ़ के कोई हुआ है
जो एक है, वो वही ख़ुदा है ये हम बताएँ कि तुम बताओ
इन आँधियों में डटा रहा मैं न हार माना, लगा रहा मैं
चराग़ अब तक जला हुआ है ये हम बताएँ कि तुम बताओ
जो दिख रहा है, हुआ नहीं है जो हो रहा है, दिखा नहीं है
ज़माना कितना नया-नया है ये हम बताएँ कि तुम बताओ
तबाही बरपा तो हर तरफ़ है बिके हुए हैं हज़ारों चेहरे
ज़मीर सब का नहीं बिका है ये हम बताएँ कि तुम बताओ
ऐ कैफ़, तुम क्यों मचल रहे हो क्यों शोले भड़के हुए हैं दिल में
अभी मोहब्बत की इब्तिदा है ये हम बताएँ कि तुम बताओ
5.
तुम्हारी यादों में हम बसे हैं, हमारी उल्फ़त का यह असर है
तुम्हारे हाथों में कुछ नहीं अब, हमारी संगत का यह असर है
न सो रहा हूँ, न जागता हूँ, अब ऐसे आलम में क्या बताऊँ
यह मान लेना पड़ेगा मुझको, तुम्हारी उल्फ़त का यह असर है
चराग़-ए-दिल यूँ बुझा है ऐसे, सँभल सका न यह दिल अभी तक
लगेंगी सदियाँ, है ज़ख़्म गहरा, उसी की क़ुर्बत का यह असर है
गुज़र रहा था कहीं से इक दिन, तो सामने से वो आ रहे थे
वो आँखें अपनी चुरा रहे थे, हमारी हैबत का यह असर है
वो दूर मुझसे न रह सकेगा, वो पास मेरे ही आ बसेगा
मेरी मोहब्बत के हैं ये जलवे, मेरी ज़रूरत का यह असर है
उसे भुलाना तो चाहता हूँ मगर ये मुमकिन न हो सकेगा
इसी की चाहत रहेगी दिल में, इसी की रग़बत का यह असर है
हम अपनी शामों में ख़ाक हो लें, वो अपने घर में लरज़ते होंगे
ऐ कैफ़! अच्छी रही कहानी, हमारी क़िस्मत का यह असर है
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कैफ़ आलम कैफ़ उर्दू शायरी की सबसे नई पीढ़ी से आते हैं। इंद्रधनुष को उन्होंने अपनी मूल उर्दू ग़ज़लों का हिंदी लिप्यंतरण भेजा है।
उनसे kaifalam3zncc@gmail.com पर बात हो सकती है। 

