कविताएँ ::
अशोक कुमार

आठवां रंग

अभी-अभी एक तितली उड़ी है
वह दूर दिख रहे उस इंद्रधनुष में-
आठवां रंग भरना चाहती है.

उसकी इस मासूम चाहना में
शामिल हो गया है सूरज
बादलों ने और भी बारीक कर दिये हैं
पानी के वे नन्हे प्रिज्म.

हवाओं ने हौले उसके पंख सहलाकर
उसको नई उड़ान दे दी है
और नन्हे बच्चे तालियां बजाकर
बढ़ा रहे हैं उसका हौसला.

तूफान दूर खड़ा मुस्कुरा रहा है
नदियां शांत हो गयीं हैं
इस दृश्य में शामिल हो गए हैं पहाड़
और झरनों के कोरस में-
जुड़ गया है कोई आठवां सुर.

और मैं पहाड़ की किसी चोटी खड़ा
ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर
यह कहना चाह रहा हूँ
कि हे दुनिया के समझदार लोगों
थोड़ी देर शांत रहो
अभी यह खूबसूरत तितली
और मेरे यह नन्हे बच्चे
तुम्हारी इस दुनिया को
खूबसूरत बनाने में व्यस्त हैं.

गार्ड

वो मुझे गेट पर मिलता है
हमेशा मुस्कुराते हुए
सलाम करते हुए
बस गर्दन से इशारा करके
वो हाल पूछता भी है-
और हाल बताता भी है.

मैं काम पर जाता हूं
वो वहाँ भी गेट खोलता है
वैसे ही मुस्कुराते हुए
वैसे ही गर्दन झुकाकर
वैसे ही मेरा हाल पूछते
और अपना हाल बताते हुए.

मैं जहाँ भी जाता हूँ
वह मुझे हर जगह मिल जाता है
हमेशा मुस्कुराता हुआ
वैसे ही गर्दन झुकाकर
सलाम करता हुआ.

मैं अक्सर सोचता हूँ
कि क्या यह अलग-अलग चेहरे लिए हुए-
एक ही आदमी है?
या फिर एक जैसे चेहरे लिए हुए
अलग-अलग आदमी?

इस बीते साल में

मुझे इस बीते साल में
सारे रिश्ते निभाने थे
पुरानें दोस्तों से मुलाकात करनी थी
कुछ नए दोस्त बनाने थे.

बच्चे के साथ खेलना था
पिता के साथ बतियाना था
माँ का हाल पूछना था
और कुछ देर उसकी गोद में-
आराम से सुस्ताना था.

कुछ किताबें पढ़नी थीं
कुछ पत्र लिखने थे
कुछ चित्र बनाने थे
कोई यात्रा करनी थी
कुछ किस्से सुनाने थे.

अम्बेडर को समझना था
संविधान को जीना था
गांधी को पढ़ना था
और बुद्ध को पाना था.

गाँव को याद करना था
कुछ अपने लिए जीना था
किसी के काम आना था
कुल मिलाकर मुझे
मुकम्मल इंसान हो जाना था.

और देखो न!!
मुकम्मल होने के इंतज़ार में
तारीख फिर से बदल जाएगी.

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अशोक कुमार संप्रति से शिक्षक हैं और दिल्ली में रहते हैं. उनकी कविताएँ हिन्दी के सभी सभी प्रमुख पटलों पर प्रकाशित हैं. उनसे akgautama2@gmail.com  पर बात हो सकती है.  

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