कविताएँ ::
पुरु मालव
यात्रा
मेरे चलते रहने से चल रही है ये दुनिया
जो मेरे रुकने से रुक जायेगी
मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ
तो निगाह दूर तक चली जाती है
दूर चले गए लोग
दूर से भी स्पष्ट दिखते हैं
साथ चलते लोगों को
कितना कम देख पाता हूँ मैं
यह मेरा दृष्टि- दोष नहीं
स्मृति-दोष है
सब लड़ियाँ टूट जाएंगी
सब घुंघरू बिखर जाएंगे
आवाज़ के पखेरू फड़फड़ा कर उड़ेंगे
फिर आकर बैठ जाएंगे नीरवता की डाली पर
मगर पाँव चुपचाप बढ़ जाएंगे आगे
निष्ठुर समय पद-चिह्नों पर
पोंछा फेर देगा
किसकी स्मृति में कौंधेगा चेहरा मेरा
कौन सिहर उठेगा याद करके मुझे.
दुखती रग
और कितनी देर तक बजाते रहोगे तुम
अतीत का घंटा जो़र-ज़ोर से
ठहरो कि कान पोले हो जायेंगे हमारे
पता नहीं कब आयेंगे तुम्हारे वीर पुरुष
इतिहास की कब्रगाहों से
अपनी गौरवशाली विरासत के साथ
कब तक तौलते रहोगे तुम
कल और आज को
श्रेष्ठता की तराजू से
तुम कब तक खंगालते रहोगे
घृणा के अंधकूप को
इसे रीतने क्यों नहीं देते
विषैले पानी के जो झरने
सूखते जाते हैं
तुम क्यों उन्हें कुरेदते रहते हो
कब तक पछीटते रहोगे ख़ुद को
जात-धर्म की दीवारों से
कब तक दोहराते रहोगे
रक्त-रंजित इतिहास को
आखिर तुम इस कुएँ से बाहर
निकल क्यों नहीं जाते.
जब नींद नहीं आती
पियक्कड़ वक़्त
रात की बोतल से काला द्रव
घूँट-घूँट गटकता रहता है
मेरा कंठ सूखता है
मैं स्त्री को तकता हूँ
जो छाती से लगकर सोई है
हमारे दरमियान फ़ासला उतना ही है
जितना कि दोनों आँखों के बीच
अगर बीच में नाक न होती
तो हम एकमेक हो जाते
नदी की तरह बहती है रात
और तुम नींद के पुल से उतर कर
पहुँच चुकी हो सपनों की मीठी और सुंदर दुनिया में
तुम्हारे होठों की मुस्कान इसकी तसदीक करती है
और एक इशारा भी
कि इस ओर की दुनिया भी उतनी ही मीठी और सुंदर हो
मैं प्रतीक्षा में खड़ा हूँ इस पार.
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पुरू मालव कवि हैं और उनकी कविताएँ सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. उनसे purumalav@gmail.com पर बात हो सकती है.