लेख ::
मधुरिमा
सीवान की धरती पर बहती घाघरा और गंडक, ये सिर्फ़ नदियाँ नहीं, इस दोआबा के अनगिनत सोतों से फूट कर अग्निलीक की धारा बनी है। आर्थिक, सामाजिक परिदृश्य में लोकजीवन की शीतलता और जेठ की दुपहरिया में धहाती लू की थपेड़े खाती राजनीतिक दांव-पेंच के साथ-साथ देवली, असांव, अमरपुर, हसनपुरा, जैजोर, उसरी जैसे कई गांवों की अद्भुत गाथा कहती है अग्निलीक।
आज़ादी के काल से उसके बाद तक घाघरा के तटवर्ती इलाकों में डकैती और लूट-पाट की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से राजनीतिक पैठ बनाकर धीरे-धीरे लोग किस तरह से अपने जीवन में परिवर्तन लाते हैं और परिवर्तन की इस कहानी में राजनीतिक उठा-पटक, गुटबाज़ी, जातिवाद, सत्ता तंत्र की निरंकुशता और नृशंसता के साथ साथ प्रेम की मीठी चिंगारी भी कथा में जलती रहती है। घाघरा के तट पर शाहजहां द्वारा बनाई गई अधूरी मस्जिद के खंडहर में लीला साह और जसोदा की अधूरी प्रेम कहानी की आवाज संपूर्ण उपन्यास में गूंजती रहती है। इसी गूंज में रेवती और मनोहर का प्रेम भी शामिल हो जाता है। पुरुषों की सत्ता में एक हद स्थापित है। इस हद के बाहर जाने पर हिंसा, हत्या, दुख और अवसाद बतौर सजा निर्धारित है। गांव के आर्थिक, राजनीतिक परिदृश्य में चुपके से स्त्री शक्ति की मज़बूत धारा भी घाघरा के पेट से हुलकती हुई आगे बढती है। शारीरिक, मानसिक हर तरह से प्रताड़ित स्त्री जब विद्रोह करती है, तब वह अपने अनुकूल राह तैयार कर लेती है। रेशमा का अकरम अंसारी के विरुद्ध चुनाव में खड़ा होना और आरक्षण का अवसर मिलते ही मुखिया, सरपंच जैसे महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की दावेदारी, एक ठोस धरातल तैयार करती है।
उपन्यास के सभी किरदारों की अपनी अलहदा पहचान है। किसी खास पात्र को आप हीरो नहीं कह सकते। भूमिहीन मज़दूर से किसान बनते अकलू यादव और बेहतर भविष्य की महत्वाकांक्षा में किसानी से डकैती की ओर बढ़ते कदम, स्याह और सफ़ेद नहीं, मटमैले किरदार। जसोदा मां के आंचल की छांव में समय के चाक पर कच्ची मिट्टी से गढ़े लीलाधर, डकैती में छिटके पिता के खून में ऐसे पकते हैं, जैसे आवां में ठोस पका हुआ घड़ा। समय के साथ चलते हुए अपनी मिट्टी-पानी में एक ठोस धरातल के निर्माण में सक्षम मां जसोदा के लीलाधर, धीर-गंभीर और दूरदर्शी और एक सफल मुखिया के रूप में प्रतिष्ठित; जो राजनीति के हर पेचोख़म से वाकिफ़ हैं। ढलती उम्र में वक्त की बेरुखी से लड़खड़ाकर भी संभलने की जद्दोजहद करता एक नायक। रेणु जी के मैला आंचल की तरह यहां हर पात्र स्वयं में महत्वपूर्ण है। बावजूद इन सबके यह एक नायिका प्रधान उपन्यास अधिक है। वो भी एक नहीं, तीन-तीन नायिकाएं, जसोदा, रेशमा, रेवती। हर नारी पात्र अपने युग की त्रासदी झेलती, लड़ती और युग के साथ आगे बढती हुई। तमाम शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न झेलकर भी उन्मुक्त। नारी पात्रों का विद्रोहिणी स्वरूप उभरकर आता है इस उपन्यास में। चाहे वह शमशेर साईं की पत्नी हो या अकरम अंसारी की बेग़म अपने किरदार में सभी सशक्त नारी पात्र हैं। ज़िन्दगी की धूप-छांव से गुज़रते हुए तमाम इंसानी कमजोरियों के बरक्स खुद मुख्तार और परिस्थितियों को अपने अनुकूल करतीं स्वयंसिद्धा नारी पात्र। यथार्थ के कड़वे धरातल को घाघरा और गंडक के उफान की तरह लपेटतीं, ज़िन्दगी को सहेजतीं, मुख्यधारा की ओर अग्रसर ग्रामीण स्त्रियों के विकास की एक निश्चित कथा है। स्वयं को नई धारा में स्थापित करने की ओर उन्मुख, अंत तक अपने अशेष कार्यों के लिए संघर्षरत, चिता की अग्नि से आकाश की ओर लीक बनाती हुई स्त्री की मनोदशा की गाथा कहती है अग्निलीक।
हृषीकेश सुलभ जी के इस उपन्यास में सीवान के आसपास बसे गांवों का लोक जीवन, विश्वास-मान्यताएं, रहन-सहन, परिवेश और जीवन शैली में हो रहे परिवर्तन का यथार्थ है। गांव का दूधहा पोखर, लंगटू ब्रह्म , लगहर गाय,धनहर खेत और खेती-बाड़ी में बसी जिजीविषा, अंचल विशेष की इस गाथा को सुलभ जी ने अद्भुत अंदाज़ में उकेरा है। एक अलग तरह की भाषा, आंचलिक मिठास से सराबोर गांव की संस्कृति , मनके की एक-एक मोती की तरह लोक परिवेश को पिरोया गया है। गांव की सुरम्य सुरभि इस उपन्यास के एक-एक हर्फ़ में है।
सन सत्तावन। बीसवीं सदी का सत्तावनवां साल। गदर के सौ साल बाद का साल। सौ साल पहले जिस घाघरा तट पर विद्रोहियों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे, उसी घाघरा तट पर पलने वाले बिलट महतो जैसे डकैतों के गिरोहों ने घाघरा तट से गंडकी के बीच के इलाके में अपना ऐसा दबदबा बनाया था कि सिसवन, रघुनाथपुर, दरौली, आन्दर, महाराजगंज , बसंतपुर, गोपालगंज, कुचायकोट , बरौली आदि थानों की पुलिस की नींद हराम हो गई थी।
इस काल की परिस्थिति और पृष्ठभूमि से निर्मित इस उपन्यास की कथा चार पीढ़ी पार कर वर्तमान तक आती है। और समाप्ति तक अपनी रोचकता तथा प्रवाह बनाए रखती है। बल्कि यूं कहें कि आगे अब क्या होगा?! यह उत्सुकता भी बनी रहती है। आरंभ में शमशेर साईं की हत्या का रहस्य अंत तक रहस्य बना रहा, क्योंकि अक्सर यथार्थ में भी राजनीतिक हत्या का रहस्य नहीं ही सुलझ पाता है। समय को हम चाहे सैंकड़ों साल पीछे छोड़ दें, आसानी से सामंतवादी मानसिकता भी नहीं बदलती और नहीं बदलते स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण। संभवतः यथार्थ का यही कड़वा सच लेखक के कलम से निकला है। शायद यही मानसिकता उपन्यास के निर्मम अंत का कारण बनी है। यथार्थ के ताने-बाने के साथ प्रेम की लताफ़ती मरहम, घाघरा,गंडक के तट का रोमानी सौंदर्य और गांव घर की मनोहारी छवि का मनोरम वर्णन और सबसे बड़ी बात, सुलभ जी की सुरमयी भाषा पाठक को बांध लेती है।
जसोदा के अतल गहराइयों में प्रेम की अधूरी लौ चौथी पुश्त की रेवती की आंखों में उतरकर भी अधूरी रह जाती है। सामंतवादी सोच और स्त्री की मान मर्यादा के तावेदार पुरुष के सामने किसी रिश्ते की कोई बिसात नहीं होती। पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसी मानसिकताएं और भी जड़ें जमा लेती हैं। गांव की राजनीति में अपनी पैठ बनाकर जिस लीलाधर यादव ने पिता अकलू यादव के डकैती का खून रसूख दार मुखिया बनकर एक लंबे अरसे में घाघरा के जल में धो डाला था। उस रसूख को अमीरी में पले-बढ़े पोते सुजीत ने पलभर में गंडक में बहा डाला। कहते हैं न बूड़े वंश कबीर के ,उपजे पूत कमाल। एक हत्या के आरंभ से छितरकर एक हत्या के अंत तक यह उपन्यास पाठक को अचंभित कर देता है।
गांव में बसी ज़िन्दगी को हूबहू उसी रूप में पन्नों पर उकेर देने की महारत बहुत कम साहित्यकारों को हासिल है। इस मामले में सुलभ जी अद्भुत चितेरे हैं। यह उपन्यास पढ़ते हुए एक-एक दृश्य, संवाद, परिवेश सभी सिनेमा के रील की तरह आंखों से गुजरता रहा। गुज़रता रहा घाघरा और गंडक के दोआबे में बसा सीवान का ग्रामीण सौंदर्य!
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मधुरिमा कवि-आलोचक हैं। वे हिंदी और मैथिली में समान रुचि और गति से लिखती हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘धरती ही सहती है’ प्रकाशित है। उनसे madhurimamishra71@gmail.com पर बात हो सकती है।