बातचीत ::
कवि अजेय से स्मृति
माननीय सर, नमस्कार।
आप हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं, और हिमालय-क्षेत्र से संबंध रखनेवाले प्रमुख सांस्कृतिक हस्ताक्षरों में से हैं। मैं आपसे आपके लेखकीय जीवन यात्रा और संघर्ष के बारे में साक्षात्कार लेना चाहती हूँ। त्रुटियों और अतिरेक के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। साक्षात्कार से संबंधित कुछ प्रश्न निम्न हैं:
ढालपुर कुल्लू : 16.01.2025
प्रिय स्मृति,
मुझे हिमालय का प्रमुख हस्ताक्षर वगैरह न कहो। हिमालय का इंटेलिजेंशिया यह सहन नहीं करेगा। यहाँ बहुत बड़े-बड़े लोग हैं। हिमालय से भी ऊँचा उन का गौरव है। मुक्तिबोध ने कहा था कि मुझे ऊँचाई से डर लगता है। मुझे भी लगता है। लेकिन यह डर मेरे व्यक्ति को लगता है। मेरे कवि को नहीं। मेरा कवि निस्सन्देह यदा-कदा वहाँ पहुँच कर मज़े लेता रहता है!
मुझे इस प्रश्नावली का उत्तर देने में महीनों लग गए। बीच बीच में मुझे लगा कि ये उत्तर मुझे मय तारीख देने चाहिए थे। जैसा कि दिल्ली के युवा कवि आमिर हमज़ा को दिया, बल्कि अभी भी दे रहा हूँ। साल से ऊपर हो गया उस के साथ लम्बी बतकही के इस सिलसिले को। आमिर बहुत प्यारा इंसान और टैलेंटेड कवि है। मेरे उत्तरों से परेशान होता होगा। पर वह मुझे झेलता है। मुझे तो उत्तर देने में मज़ा आ रहा है। मुझे लग रहा है इन दिनों स्मृति और आमिर के रूप में दो प्यारे फ़रिश्ते आए हैं आसमान से, जो मुझे कुरेद-कुरेद कर मेरी ज़ब्त और प्रतिबंधित सम्भावनाओं को खोल रहे हैं। मैं ये उत्तर देकर बहुत निवृत्त हुआ हूँ। अपने वजूद से रूबरू हो रहा हूँ। अपने पूर्व में किये कार्यों का आकलन कर पा रहा हूँ। आगामी यात्रा की दिशा तय कर पा रहा हूँ। मुझे नहीं पता इन बतकहियों और अंट संट सवाल-ज़वाबों का तुमदोनों क्या करने वाले हो और इसकी क्या सामाजिक उपादेयता है? पर निजी तौर पर मेरे लिए यह एक स्वस्थ विरेचन है। तुम दोनों ने पहाड़ की एक नाज़ुक मासूमियत को बेहद नृशंस, जटिल, गाँठदार अवसाद से लगभग उबार लिया है। उबार नहीं भी लिया है तो उस से लड़ने की स्थिति में तो ला ही दिया है। आप इस सामग्री को अपनी सुविधा और विवेक से सम्पादित कर उपयोग में लाने के लिए स्वतंत्र हैं। बहुत आभार!
सस्नेह
अजेय
1. आपके काव्य-संग्रह का शीर्षक ‘इन सपनों को कौन गाएगा’ में सपने और गीत का प्रसंग क्या आपके आदिवासी लोक से आता है? आप अपनी रचनाओं में आदिवासी-लोक एवं शैली को किस रूप में जगह देते हैं?
इसी शीर्षक से उस संग्रह में एक कविता भी है। उस कविता को पढ़िएगा। उस कविता में एकाध प्रसंग कथाएँ हैं, जिनकी पृष्ठभूमि में ख़ालिस लाहुल का आदिवासी-लोक तो नहीं, हिमाचल के भीतर का आदिवासी ज़रूर है। उन आदिम समुदायों का ठोस लोक तो नहीं, लेकिन उन के कुछ अमूर्त स्वप्न, उनकी कुछ स्मृतियाँ और उनकी एक आदिम लोकधारा है जिस का पसार मेरे लोक तक है। बल्कि उससे भी आगे परा-हिमालय के पठारों तक है। ठीक से ध्यान देने पर पूरब की ओर गढ़वाल नेपाल से आगे जाकर ओस्ट्रोएशिया और पोलिनेशिया तक है– छिटकी हुई! पश्चिम की ओर हिन्दुकुश, कराकोरम के पार यूरेशिया और दक्षिण की ओर विन्ध्य पार गोंडवाना तक उसकी ध्वनियाँ और खुशबूएँ महसूस हो जाती हैं—टुकड़ा टुकड़ा। मुझे लगता है ये सब मूलतः पशुपालक घूमंतू, अर्द्ध-घूमंतू जनजातियाँ रही हैं। हिमालय का इतिहास जिन्हें खश, नाग, कोल, कनैत, किन्नर, किरात, गद्दी जैसे नामों से पहचानता, याद करता है। कालांतर में इनमें से कुछ वणजारे (वणिक/ व्यापारी) बने, किसान बने, कुछ दस्तकार और कुछ रजवाड़ों से लेकर साम्राज्यों तक के सैनिक और मुलाज़िम बने। अंततः जो किसान थे, वे बागवान और पर्यटन-उद्यमी बने हैं। आगे वे कुछ और बनना चाहते हैं। अपनी पहचान को कायम रखते हुए, सभ्यता के समकक्ष उसके अगल-बगल खड़े होना चाहते हैं। हिमालय के भीतर इस आदिवास का बहुत कुछ फॉसिलाईज़्ड रह गया, जिसका सब से बड़ा कारण था इसकी दुर्गमता। यद्यपि बहुत मद्धम और मंथर गति से इस हिंटरलैंड का, जो सहज और पारस्परिक ट्राँस्फर्मेशन सभ्यता की संगत में चला हुआ है, मेरे कवि के लिए परेशान करनेवाला नहीं है। लेकिन जब गाहे-बगाहे इसके हित, इसकी नैतिकताएँ और इसके सरोकार उस बड़ी सभ्यता से टकराने लगे हैं तो इन आदिम संसारों में से वे दबे हुए स्वप्न, छूटे हुए बिम्ब और वे बची हुई स्मृतियाँ आ-आकर उसे सताती हैं! मेरा कवि अपनी कविता में उन सब को ठीक से प्लेस नहीं कर पाता और यह भौगोलिक दुर्गमता के अचानक खत्म होने से हो रहा है। यह तकलीफदेह है। ऐसी विशद और गहन तकलीफ, इतना बड़ा कि समेट लेना असम्भव है। क्योंकि एक तो ये प्राक्-स्मृतियाँ और आद्यबिम्ब बहुत अस्पष्ट हैं, दूसरे ये स्थैतिक नहीं हैं। उत्तरोत्तर बदलती हुई यह इमेजरी है। सभ्यता निरंतर उस आदिवास में दखल दे रही है और उस पूरे लोक को एक तरह से गड्डमड्ड कर दे रही है। यह वैश्विक परिघटना है। इसे मैं वर्चस्व की सभ्यता का सहज देशज ग्रोथ पर अनाधिकार हस्तक्षेप मान रहा हूँ। अतिक्रमण मान रहा हूँ। उद्विग्नता और विचलन के अतिरेक में मैं इसे गा नहीं पा रहा। उन आख्यानों में अन्विति भी नहीं बिठा पा रहा… न ही संगति! इसीलिए सवाल उठ रहा है मन में कि ‘इन सपनों को कौन गाएगा?’
मेरे कवि के मन में धरती के समूचे आदिवास के प्रति सम्मान और अपनापा है। बता दूँ कि यह पुरातन के प्रति मोह से एकाधिक स्तरों पर भिन्न है। बदलाव जहाँ अन्धाधुन्ध, अचानक, ज़बरन हो रहा हो और नकल की तरह हो रहा हो, बड़ी सभ्यताओं की गुलामी की तरह हो रहा हो, वहाँ वह बेचैन हो जाता है। कविता में वह इस व्याकुलता को कितनी नफ़ासत से निभा पाया, नहीं जानता। शायद नहीं ही निभा पाया है, और न ही लोक की रचनात्मक शैली को ही समुचित जगह दे पाया है। वर्ना आप यह सवाल न पूछतीं! उसने कोशिश बड़ी नीयत से की है हालाँकि दिक़्क़त यह है कि उसे यह गीत न केवल अपने लोक के लिए, बल्कि इस लोक से बाहर के श्रोता के लिए भी गाना है। उसे उनका भी साथ चाहिए। समर्थन चाहिए। इसलिए उसे साथ ही साथ बाहर की भाषाओं, शैलियों और मुहावरों को भी साधना है।
2. कृपया हमें अपनी जीवन यात्रा के बारे में थोड़ा संक्षेप में बताएँ। आपके लोक, समाज एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से संबंधित विशेषताएँ क्या हैं?
साँस्कृतिक विशेषताएँ तो आप बता सकती हैं। बताएंगी, यदि उस लोक को देखेंगीं… बाहर से झाँकने की तरह। मुझे अपनी संस्कृति में कुछ विशेष नज़र नहीं आता कि बता पाऊँ। मैं उस लोक के भीतर का आदमी हूँ। भीतर से उसे देखता हूँ। मेरे अपने चश्मे से, पूरे अपनापे के साथ। तमाम पूर्वाग्रहों के साथ। मेरे लिए उसमें सब कुछ सामान्य और साधारण है। मेरे जीने का तरीका, मेरे मूल्यबोध, मेरा भूगोल, मेरी हवा, मेरा पानी, मेरी सौन्दर्य-दृष्टि! अलबत्ता जब मैं अपनी दुनिया से बाहर की संस्कृति को एकदम अलग देखता हूँ तो विस्मित होता हूँ। उस अलगपन को विशेषता कहूँ? यह सोचकर और भी विस्मित हो जाता हूँ। और कुछ-कुछ समझ पाता हूँ कि आप की दुनिया क्यों वैसी हो गई है। याकि क्यों मेरी दुनिया ऐसी रह गई है! यह भी कि क्यों हमारे पुरखे आप की दुनिया को परदेस कहते रहे और आपलोगों को परदेसी। हाँ, जीवन-यात्रा बता देता हूँ– इस यात्रा में धीरे-धीरे आप को स्वतः पता चलता रहेगा कि मेरे लोक, समाज एवं संस्कृति में कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं; यदि कोई हैं तो।
मैं हिमाचल प्रदेश के सीमांत जिले लाहुल-स्पिति से आता हूँ। यह बहुत दूरदराज़ का इलाका है। रोह्ताँग दर्रे के दूसरी ओर। इससे आगे उत्तर में लद्दाख आरम्भ हो जाता है। पश्चिम में पाँगी, पाडर और भद्रवाह। पूर्व में तिब्बत। पिता जी स्कूल टीचर थे। बिरादरी में बात चलती है कि उनकी सामाजिक काबिलियत देख कर मेरे नाना जी ने उन्हें घर-जमाई स्वीकारा। नाना जी के कोई बेटा न था। पिता जी की दो पत्नियाँ थीं। दोनों सगी बहनें। माने, मेरी दो माँएं थीं। छोटी माँ भी स्कूल टीचर थीं। मैं जिन से जन्मा, वे बड़ी थीं। तय हुआ कि वे अनपढ़ हैं, तो घर-बार सम्हालेंगीं। ननिहाल में अच्छी खेती थी। भले वक़्त में आलू से अच्छा पैसा आ जाता था। हालाँकि एक ही फसल होती थी। मई में बुआई और सितम्बर-अक्तूबर में कटाई। शेष छह महीने खेत बर्फ़ से ढँके रहते थे। घर में साठ-सत्तर भेड़ों की रेवड़ होती थी। आठ-दस दुधारू पशु होते थे। गर्मियों में इन्हें ऊँचे चरागाहों में चराया जाता था। यूँ तो इन्हें चराने के लिए ग्वाले वेतन पर नियुक्त किए जाते थे, पर कभी ग्वाले न मिलने पर या देरी से मिलने पर गाँव के किशोर-किशोरियों को यह काम करना पड़ता था। उस उम्र में मैंने स्वयँ यह काम किया है। दो महीने की छुट्टियों में हम स्कूली लड़कों के लिए यह बेहद पसंदीदा और मुफ़ीद काम था। साढ़े तीन-तीन हज़ार मीटर ऊँची घासनियों में भेड़ें चराने का थ्रिल शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता! उस ऊँचाई से हमें केलंग स्कूल और अस्पताल की छतें एक नए पैसे के सिक्के जितने दिखते थे! सड़कें और नदियाँ सलेटी नीली रेखाओं सी! सड़क पर चलती कोई अकेली गाड़ी ऐसे दिखती मानो बुढ़िया की सलेटी लटों पर जूँ रेंग रही हो! जाड़ों में इन मवेशियों को घर पर ही पालना पड़ता था। पशुओं का बाड़ा घरों के बेसमेंट या ग्राऊँड फ्लोर पर होता था। ये बाड़े गरम, अँधेरे और लगभग एयरटाईट हुआ करते। बहुत छोटे-छोटे रोशनदान रखे जाते। सूखी घास और भूसा रखने के लिए बहुत बड़ी इमारतें बनाईं जातीं थीं, जो कई बार रिहायशी मकान से भी बड़ी होतीं। घर की छतों पर भी इन्हें स्टेक किया जाता था। इस के अलावा ब्यूँस (विलो) की टहनियाँ इन्हें खास प्रोटीन के रूप में सर्व की जातीं। इस की छाल सर्दियों में हरी रहती है। हमारी देशज भेड़-बकरियाँ, गऊएं, याक, चँवर गऊएं एवं अन्य संकर नस्लें क़ायदे से स्वयं टहनियाँ छील कर खाने में अभ्यस्त थीं। सातवें दशक में जर्सी नस्ल की गाय आई तो उसे चाकू से छील कर खिलाना पड़ा। माँ कहा करतीं – परदेस में माल को दुहने के लिए बाँधना और चरने के लिए हाँक देना काफी होता है। लाहुल में इन्हें इंसान की तरह बाक़ायदा पालना पड़ता है। माँ को पक्का यक़ीन था कि इंसान और मवेशी दोनों में एक सी संवेदना होती है। डंगर सब कुछ समझता है। वह मवेशियों से खूब बतियाती, दुलारतीं। मानो वे इनसान ही हों। उन्होंने उन सब के इंसानी नाम रखे हुए थे। कहना न मानने पर और अनुशासन तोड़ने पर उन्हें कोसतीं, गरियातीं। गालियाँ वहीं होतीं जो वे अपने बच्चों को देतीं – मूरख! गधा !! डंगर !! मैंने उन्हें पड़ोस वाली मामी के साथ अपने-अपने डंगरों की सीरियस नुक्ताचीनी करते देखा है पूरा रस लेते हुए! बाद में शहर की स्त्रियों को अपने सास-बहुओं की निंदा में उसी गम्भीरता के साथ लिप्त देखा तो पशुपालक युग से लेकर नागर-सभ्यता तक की गति और दिशा का कुछ-कुछ आभास हुआ! सुना है कि जब माँ युवा थीं, एक बौराये हुए गुस्सैल याक ने उन्हें सींग मारी और पैरों के नीचे कुचल दिया था। घातक चोटें आईं। बड़ी मुश्किल से बचीं। उनकी छोटी बहनों ने कहा कि दीदी को मारने वाले याक को गोली मार देनी चाहिए। माँ का तर्क था कि इंसान चूँकि दो पैरों पर खड़ा रहता है, उसका दिल सीधा खड़ा रहता है। जबकि डंगर चौपाया है तो उसका दिल उल्टा लटकता है। बस इसीसे अक्ल में फर्क़ रह गया और वह पिछड़ गया। इसलिए हमें उन की गलतियाँ माफ कर देनी चाहिएँ। मुझे पता नहीं इसे माँ की अनपढ़ता कहना चाहिए या कि अनुभव-जन्य सूझ; पर वह दिल और दिमाग में फर्क़ करना नहीं जानती थीं…
जाड़ों में हमारी स्त्रियाँ ऊन की पिंजाई, कताई, बुनाई-मँडाई करतीं बतियातीं और पुरुष छोलो या ताश खेलते रहते। बुज़ुर्ग कथाएं सुनाते, बच्चे सुनते। तमाम उत्सव जाड़ों में होते। गर्मियों में सभी लोग खेत-खलिहान में व्यस्त रहते। जीवन दुष्कर और संघर्षपूर्ण था, चुनौतीपूर्ण भी। लेकिन काफी सम्यक तरीक़े से व्यवस्थित था। आज जब यह लिख रहा हूँ तो महसूस कर रहा हूँ कि सस्टेनेबिलिटी की क्या महत्ता होती है। हाँ, चूँकि हमारी छोटी माँ पढ़ी-लिखीं थीं और नौकरी करतीं थीं, घर की आर्थिक दशा अच्छी थी। अच्छी का मतलब यह कि वैसा अभाव न रहा, उतनी उथल-पुथल न रही ज़िंदगी में, जितनी कि उस देस में, उस काल में एक आम ग्राम्य परिवार में रही होगी।
दसवीं तक केलंग में ही पढ़ाई की। बोर्ड की परीक्षा में अच्छे अंक आए तो पिता जी ने कहा कि साईंस पढ़ो। साईंस जिस तरह से समझाया गया, मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया। फेल हो गए तो बहुत धक्का लगा। तो हारे हुए यौद्धा की तरह ह्युमेनिटीज़ में गए। आर्ट्स कहते थे उन दिनों। डी.ए.वी कॉलेज (चंडीगढ़) में प्रवेश मिल गया। प्री-यूनिवर्सिटी में मुझे सिविक्स, इकॉन्मिक्स, हिस्ट्री का कॉम्बिनेशन मिला। फर्स्ट ईयर में भूगोल पढ़ना चाहता था लेकिन हिन्दी ऑप्ट करने का संयोग बना। उन दिनों मैं डायरियाँ और पत्र लिखने वाला चुप्पा लड़का था।फिल्मों का शौक़ था। समानांतर सिनेमा-आन्दोलन का दौर था। कला-फिल्में बहुत अच्छी लगती थीं। और जासूसी नॉवल पढ़ने का चस्का बहुत पहले से था। यह सब से सस्ता मनोरंजन था। मेरा परिचय सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों से हुआ तो पढ़ने की लत लग गई। उस की भाषा में मुझे बहुत रस आता था। वहीं से निर्मल वर्मा के कथा-साहित्य की ओर गया। फिर जैनेन्द्र, अज्ञेय को पढ़ने लगा। हिन्दी में मैं अच्छा था। बिना मेहनत किए ख़ूब अंक मिल जाते थे। तो एम.ए भी हिन्दी में किया। पंजाब यूनिवर्सिटी में मेरा हॉस्टल मेहर चन्द महाजन हॉल था। हम उसे एक नम्बर कहते थे। पंजाबी, इंग्लिश, संस्कृत, फाईन आर्ट्स, मास-कम्युनिकेशन, इंडियन थिएटर विभाग के छात्रों से मेल-मिलाप हुआ। इस बीच साहित्य और कलाओं में गहन अभिरुचि विकसित हो गई। पता ही न चला कि कब मैं पूरी डेप्थ और इंटेंसिटी के साथ उस दुनिया में दाखिल हो गया था। पढ़ाई कम होती थी, यूथ फेस्टिवल्स और नृत्य तथा संगीत के कंसर्ट्स देखने में व्यस्त रहा। कवि सत्यपाल सहगल, कुमार विकल आदि से प्रेरित होकर मैं कविताएँ लिखने लगा था।बगल में थिएटर का छात्र पाश, शिव बटालवी, पातर को गाता था। मैंने उससे सुन-सुनकर पंजाबी कविता समझी।पंजाबी या किसी भी क्षेत्रीय भाषा की ताक़त का अहसास पहली बार हुआ। मेरे अन्दर का शर्मीला चुप्पा और बन्द आदमी धीरे-धीरे खुलने लगा और आवारागर्दी में सुकून पाने लगा। पिता जी चाहते थे कि मैं सिविल सर्विसेज़ लिखूँ। मेरा मन नहीं था। लेकिन मेरे अपने मन में भी स्पष्ट नहीं था कि करना क्या है? इसलिए मना नहीं कर पाया। दो साल उसमें लगाए, प्रिलिमिनरी से आगे नहीं बढ़ पाया। मैंने हिन्दी साहित्य और हिस्ट्री ऑप्शन से लिखे दोनो बार। पिता जी कहते थे कि ठीक से कोचिंग लेकर एक कोशिश और करो। लेकिन मुझे अपनी सीमाओं का पता चल गया था। मैं माँ-पिता जी को चीट नहीं करना चाहता था। न ही स्वयं को। सिविल सर्विसेज़ लिखते हुए मेरा परिचय मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ से हुआ। और फिर उस महान कविता ने अंतिम बार मेरा काम तमाम किया।
3. परिवेश की किन घटनाओं ने आपको इतने गहरे तौर पर प्रभावित किया है और कौन सी परिस्थतियाँ आपको लिखने के लिए विवश करती हैं?
कोई एक घटना याद नहीं। ताक़तवर का वर्चस्व। कमज़ोर की बेबसी, हेल्पलेसनेस। शातिर की जीत और भोले की हार। चाहे वह जंगल में हो या शहर में। मेरे मन पर यह सतत घात-प्रतिघातों का सिलसिला है, जो लिखवाता है। जो न तो सह सकता हूँ, न ही कह सकता हूँ। वह लिखता हूँ। ठीक से लिख भी कहाँ पाता हूँ?
4. लाहौल स्पीति और मैदानी समाज की साहित्यिक शैलियों में क्या फर्क है?
बहुत फर्क़ है। और बहुत समानता भी है। फर्क़ संस्कृति का है। संस्कृति यहाँ उस अर्थ में बहुत ‘विकसित’ नहीं है, जिस अर्थ में मैदानों में है। और साहित्य उसका अविभाज्य अंग है। इसे यूँ समझिए कि असल में यह देश के साथ-साथ काल का भी मसला है। हम वाचिक परम्पराओं को ही सदियों से ढोते रहे हैं। कारण था कथित महा-सभ्यताओं से असंपृक्ति। भाषिक बहुलता। लिपि का न होना। अशिक्षा। यह भी कि आधुनिक दौर में भी भौतिक विकास की आँधी में साहित्य और ललित कलाएँ यहाँ बहुत इग्नोर हुईं। उपनिवेशी सत्ता के बाद नए भारत में वाचिक परम्पराओं को भी हम ठीक से सहेज इसलिए नहीं पाए कि हमारे मन में उन के प्रति गहरी हीनभावना पैदा हो गई थी। कहना चाहिए कि अपनी लोक-भाषाओं के प्रति ही हीन भावना थी। हम से पहले एक पीढ़ी आधुनिक पढ़ाई पढ़ लिख गई थी। उसे इस पढ़ाई का एक ही सदुपयोग समझ आया– सरकारी नौकरी। जिस ढंग की पढ़ाई थी, जैसा करिकुलम था, उसे यही समझ आना था। उसकी आम सौन्दर्याभिरुचि प्रायः बम्बईया फिल्मों से प्रभावित थी। जो लोग ज़्यादा ही बौद्धिक थे, मुख्यधारा के हिन्दी अंग्रेज़ी क्लासिक्स पढ़ कर के तृप्त हो जाते थे। स्वयं कुछ लिख छोड़ने का उन्होंने सोचा ही नहीं। पिछली पढ़ी-लिखी पीढ़ियों को लगा कि वे उछलकर के मुख्य धारा में शामिल हो जाएंगे, और ऐसे घुल मिल जाएंगे कि किसी को कानोंकान ख़बर नहीं होगी। लेकिन भारत जैसे जटिल और बहुस्तरीय सामाजिक संरचना वाले देश में यह सम्भव नहीं था। मेरी पीढ़ी ने शिद्दत से सामाजिक उपेक्षा का दंश झेला है। यहाँ की पहली अनियतकालीन हिंदी पत्रिका ‘चन्द्रताल’ 1994 में आरम्भ हुई। जब मेरी पीढ़ी उम्र के तीसरे दशक को पार कर रही थी। क़ायदे से साहित्य लिखना हमारे यहाँ मेरी पीढ़ी ने ही आरम्भ किया है। और जो भी लिख रहा है इन दिनों, बाहरी पाठक को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपनी परम्परा और संस्कृति के बारे में बताना ही उसका मक़सद है। चाहे रचनात्मक लेखन हो या फिर सूचनात्मक लेखन। पिछली पीढ़ी में कुछ लोगों ने सातवें-आठवें दशक में इतिहास लेखन की आरम्भिक शुरुआत की थी। उनकी भाषा अंग्रेज़ी है। मेरा मानना है कि लाहुल का लेखन मुख्यतः अस्मिता के संकट का लेखन है। तदानुसार ही यहाँ विधाएँ और शैलियाँ विकसित हुई हैं। आठवें दशक में मेरे समाज को अपने यहाँ एक सांस्कृतिक खालीपन का अहसास हुआ। अन्य समुदायों के समृद्ध साँस्कृतिक जीवन को देख कर लगा कि हम अपनी विरासत को भूल ही गए हैं। सब से पहले वाचिक परम्पराओं को सहेजने की ज़रूरत शिद्दत से महसूस की गई। सतीश लोप्पा ने अपनी किताब ‘गीत अतीत’ में 1993 में पहली बार यहाँ की ‘घुरे’ लोक-गाथाओं को पुस्तकाकार सहेजा और रचनात्मक साहित्य के लिए पहली बार एक सुनिश्चित आधार भूमि तैयार हुई। उसके बाद हम जैसों ने कतिपय काव्य और कहानी-संग्रह प्रकाशित करवाए हैं। और अभी शैलीगत तुलना-योग्य ख़ास कुछ लिखा नहीं गया है। जहाँ तक वाचिक परम्परा की बात है, गायन और क़िस्सागोई की लोक-परम्पराओं में कोई बड़ा उल्लेखनीय शैलीगत भेद नहीं है।भाषा, देशकाल, संगीत का ही भेद है।
5. लाहौल स्पीति की वाचिक परंपराओं का प्रभाव आपके लेखन में किस प्रकार से आया है?
यह तो आप बताएँ। मैं इस पर क्या कहूँ? बहुत परोक्ष रूप से पड़ा होगा शायद। लोकाख्यानों, लोकवार्ताओं, लोकाचारों, दंतकथाओं और कहावतों को मैंने समकालीन सरोकारों और चेतना के प्रकाश में डील करने का प्रयास किया है। मुझे मालूम है इस प्रयोगधर्मिता ने मेरा नुकसान भी बहुत किया है। पर मुझे इसीमें मज़ा आता है। प्रभाव कितना दृष्टव्य है, यह मैं नहीं बता पाऊँगा। आलोचक-पाठक से इस आकलन की अपेक्षा है।
6.हिन्दी समाज के वृहद इतिहास में लाहौल-स्पीति के समाज की क्या स्थिति है?
हिन्दी के उस वृहद समाज के भीतर लाहुल स्पीति किसी भी तरह से नहीं अटता। न तो भाषिक साम्य है, न कोई नृवैज्ञानिक पारस्परिकता और न ही कोई भू-साँस्कृतिक आपसदारी। मेरा नन्हा-सा, शिशुतुल्य समाज अपने आप में एक अलग ही देस है। मैं अपने समाज को हिन्दी की जातीय अस्मिता और इतिहास से बाहर पाता हूँ। हिंदी बाई डिफाल्ट मेरी अभिव्यक्ति की भाषा बन गई है, बस। कुछ निजी और कुछ सरकारी कारणों से। दूसरी बात, हिंदी समाज भी अपने आप में कोई एक होमोजिनस एंटिटी थोड़े ही है? मिथिला का हिंदी समाज और मालवा का हिंदी समाज एक नहीं है। अरुणाचल के हिंदी समाज और हिमाचल के हिंदी समाज में जमीन-आसमान का अंतर है। जैसे हिन्दी भाषा एक बनती हुई भाषा है, वैसे ही हिन्दी समाज भी एक बनता-बढ़ता हुआ समाज है। तो उस के किस हिस्से के वृहद इतिहास की परिकल्पना करें कि लाहुली समाज की स्थिति उस के बरक्स आँका जा सके?
7. आपकी कविताओं में गाँव क्यों आता है? क्या आप खुद को गाँव का कवि मानते हैं?
उस तरह से गाँव रह ही कहाँ गया है आज? मेरी कविता में गाँव इस लिए आता है कि मेरा बचपन गाँव में बीता है। ठेठ गाँव में। और मेरी माँ गाँव में रहती थी। मेरी सब से गहन और अंतरंग स्मृतियाँ गाँव की हैं। और मैं अपनी यादों के उस गाँव को बचा कर रखना चाहता हूँ। उस खास मायने में गाँव का कवि तो नहीं कह सकता ख़ुद को।और कहूँ भी क्यों? स्वयं को केवल कवि ही मानता हूँ। यह नाम देना और केटेगराईज़ करना तो आलोचकों की सुविधा के लिए है। यह उन्हीं का काम है! हाँ, कोई कहे तो बुरा भी नहीं लगता। जनपद का कवि, गाँव का कवि, आदिवासी कवि… मुझे सब कबूल है।
8.हिन्दी समाज के साथ समन्वय बनाने में आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है?
चुनौतियाँ गिन नहीं पाऊँगा। अनगिनत हैं। और बहुस्तरीय हैं। अधिकतर साँस्कृतिक चुनौतियाँ हैं। सच पूछो तो समन्वय मैं बनाना ही नहीं चाहता। मेरा सपना है कि विश्व की तमाम लघु अस्मिताएँ अक्षुण्ण बनी रहें। स्वतंत्र विकास हो इनका। समन्वय की अवधारणा में एक प्रच्छन्न हेजेमनी है। इन्हें बौना कर डालने की साजिश है। लेकिन मुझे मज़बूरन इसे मानना पड़ रहा है। क्योंकि जिसे आप हिन्दी समाज कह रहे हो, वह यहाँ सत्तासीन है। वह इधर का वर्चस्व का समाज है। देश के स्वतंत्रता-संघर्ष की शुरुआत से लेकर लगभग दो सदियों के पूरे इतिहास में इधर के सामाजिक विकास और सभ्यता के मानदण्ड प्रायः हिन्दी पट्टी तय करती रही है। यह अलग बात है कि ठीक समानंतर ही उस का अपना भी अंग्रेज़ीकरण जारी है ! जो भी हो, इस भाषिक पट्टी को मुख्यधारा मान लिया गया है। उस जैसा बनना मेरे जैसे समाजों की विवशता रही है। मेरा कवि चाहता है कि जल्द ही उस समाज की यह विवशता खत्म हो। वह अपने ढंग से जी पाए।
9. आपने केवल कविताएं ही नहीं लिखी हैं, आपने डायरी- संस्मरण भी लिखे हैं। हम सभी जानते हैं कि आपका बहुत से साहित्यकारों से काफी घनिष्ठ संबंध रहा है। कृपया उन संस्मरणों से हमारा भी थोड़ा परिचय कराएँ।
पत्र और डायरी लिखना लड़कपन से ही मेरा शौक़ रहा। बल्कि डायरियों और संस्मरणों से ही मेरी कविताएँ निकली हैं। एक किताब आ रही है जल्द ही, ज़रूर पढ़िएगा– “रोहताँग : आर पार”। आधार प्रकाशन छाप रहा है। उसमें कुछ-कुछ लोगों के संदर्भ आएंगे। हालाँकि बहुत खुलकर के नहीं। व्यक्तियों पर खुलकर के लिखी हुई किताब तो जीवन के अंत में आएगी। एकदम नाम लेकर किसी के बारे में पूछोगे तो मैं काँशस हो जाऊँगा। कुछ न बता पाऊँगा। चर्चा में संदर्भानुसार जो आ पाएगा, उसे सुनते रहना। साहित्यकारों से संबंधों का बड़ा रोचक सिलसिला रहा। बड़ा ही अजब-गज़ब अनुभव रहा। असल में साहित्यकार से मिलने पर वो तुष्टि नहीं मिल पाती जो हम खोज रहे होते हैं। मैं उनमें एक नायक, एक ईश्वर खोज रहा था— जो कि वे नहीं थे। तो घोर हताशा हुई है। मैंने पाया कि बतौर इंसान कमोबेश हर लेखक बहुत साधारण गुण-अवगुणों का पुतला है। लेकिन वह बेहद आत्ममुग्ध जीव है। बहुत ही गूढ़, परिष्कृत और जटिल अहं का स्वामी। एक मुक़ाम पा लेने के बाद उसका लेखन उसे फुला देता है। उसे लगता है कि वह जो लिख रहा है, वह उसी का जिया हुआ है, उसकी सम्पत्ति है– उसकी अपनी कमाई हुई। वह बहुत से ‘महान’ विचारों को ओढ़ लेता और इस खुशफ़हमी में जीता है, मानो वे उस के अपने ही हों। जबकि वह जानता है कि ये महान विचार दरअसल उसने समाज से ही चुगे थे! घनिष्ठ संबंध की बात आप कर रहे हो, तो उस में एक बड़ा खतरा यह रहता है कि आप उस महान साहित्यकार के संस्कारों से परिचित हो जाते हो। विचार ओढ़ा हुआ भी सुंदर दिख सकता है, आप शिल्पगत चतुराई से उसे अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाए रख सकते हो। लेकिन संस्कार को ओढ़ने का क्राफ्ट डिवेलप नहीं हुआ अभी तक। क्योंकि संस्कार भीतर की चीज़ है। बाहर से कैसे ओढ़ सकते हो? तो संस्कारों को ओढ़ा हुआ आदमी बड़ा बनावटी दिखता है। सच पूछो तो बेहद अश्लील! मुझे लगभग सभी साहित्यकार ऐसे ही मिले। जो अभी तक ऐसे न बन सके थे, वे ऐसे बनना चाहते हुए मिले।
10. आपने मुख्यधारा में लंबे समय तक नौकरी की है। तमाम आत्मसंघर्षों के बावजूद आपने खुद को उस रूप में कैसे ढाला? क्या आपको लाहौल की याद आती है? लाहौल की ऐसी कौन सी चीजें हैं जो आपको रचनात्मक रूप से प्रेरित करती हैं?
जिसे आप मुख्यधारा कह रहे हो, मैं उसमें ढल नहीं पाया। शायद ढलना ही नहीं चाहता। मैं समझौते करता रहा। रोटी के लिए। क्योंकि मैं कुछ और काम नहीं कर सकता था। कुछ और भी करता तो चुनौतियाँ उन्हीं इदारों से आनी थीं। जीना उसी वर्चस्व के नीचे था। पर बावजूद इसके, मैं लाहुल का हूँ। मैं लाहुल होना चाहता हूँ। लाहुल को बचाए रखना चाहता हूँ। अपने भीतर बचा भी रखा है। पर बाहर का मेरे बस में नहीं। क्योंकि वह केवल मुझ अकेले का नहीं। बहुतों का है। ऐसे बहुतों को इस लाहुल को बचाने का शौक़ नहीं। वे उसे जाने देना चाहते हैं। बदलने देना चाहते हैं। मुझे लाहुल की याद ‘आती’ नहीं, लाहुल मेरी याद में स्थायी रूप से और हमेशा से मौजूद है। और मैं बार-बार लाहुल जाना चाहता हूँ। वह बेशक बदले, पर उसे इस तरीक़े से बदलने नहीं देना चाहता। यह मेरा दिवास्वप्न है। मुझे पता है कि यह आसान नहीं। लगभग असम्भव है। लेकिन इस स्वप्न का क्या करूँ? इसे झुठला नहीं सकता। लाहुल का यकलख़्त बदलाव मुझे आतंकित करता है। मेरी चिंता यह है कि लाहुल का एस्थेटिक ट्राँसफर्मेशन कैसे हो। करुणा और विनय के मार्ग पर हो। सम्यक तरीक़े से हो। आहिस्ता-आहिस्ता हो। लाहुल का रूपांतरण ही मुझे रचनात्मक प्रेरणा देता है।
11. आपके ‘भीतर उगा आदमी’ सदा खामोश रहता है। उस खामोशी की वजह क्या है? क्या वह अपने चित्त में मचलते ज्वार-भाटाओं को संतुलित करने का भाव है? या वह किसी आत्मतत्व की खोज में है? या वह सामूहिक ऊर्जा की तलाश में खामोश है?
वह पुरानी कविता है। अब वह आदमी उतना खामोश नहीं है। तब की खामोशी की कोई एक बड़ी वजह नहीं जानता। कई वजहें हो सकती हैं। कई वजहें थीं। एक तो डर था कि कहीं अधिक न बोल जाऊँ। हमारे परिवार में मुखरता और वाचालता बदतमीज़ी थी। हालाँकि कोई और बच्चा यह साहस करे तो पिता जी मुक्त कंठ से तारीफ़ करते। लेकिन उनके अपने बच्चे करें तो ज़बान खींच लें। खींचते नहीं थे, पर गुस्सा इतना आता था उन्हें कि खींच ही लेंगे। यह अजीब था। मुझे इस द्वैत का उत्तर आज तक न मिला!
हाँ, बिल्कुल सही कहा आपने, यह संतुलन का ही प्रयास था। मैं कुशल नहीं था उसमें… अपने आप को धारे, साधे रखने में। भीतर उगे हुए को ‘कंटेन’ करने में। उसकी सार-सम्भाल में। मैं बारहा लड़खड़ा जाता था। मुझसे ऊँच-नीच हो जाती होगी। तो बहुत छुटपन में ही वो डर बैठ गया होगा दिमाग में। इसे कायरता भी कह सकते हो। अक्सर आप कायरता की वजह से भी अंतर्मुखी हो जाते हो। आत्मतत्व को खोजने लगते हो। सामूहिक ऊर्जा का महत्व तो बहुत बाद में पता चला। जब मुक्तिबोध को पढ़ रहा था। मार्क्सवाद को समझना चाह रहा था। उसके बाद मैंने गम्भीरता से सामूहिक ऊर्जा की तलाश की! और मैंने लिखा भी है… मुझे लगता था कि वह ऊर्जा अंततः अंतस में ही है। मुक्तिबोध भी उसे लौट-लौटकर भीतर ही तलाशते थे। लेकिन बाहर जाना भी उस के लिए उतना ही ज़रूरी था। क्योंकि बाहर जाकर ही ठीक से भीतर लौटना हो पाता है।
12. बुद्ध न हो पाना आपके मन को कचोटता है। कृपया इस बारे में अपने विचारों को हमारे सामने रखें। एक बुद्ध की करुणा कविता में किस रूप में उभर कर आती है? वर्तमान समाज में किस प्रकार के बदलाव की हमें जरूरत है?
कविता में करुणा नहीं उभरती दिखती मुझे। न अपनी और न ही अपने किसी समकालीन की कविता में! मुझे करुणा की तलाश है। करुणा चाहिए। मेरे कवि को भी, मेरे व्यक्ति को भी। लेकिन हमारा समकाल बेहद नृशंस है। हमारे समकाल में इस अभाव के प्रति उथली सहानुभूति है, दया है, सांत्वना है, लेकिन करुणा नहीं। और जब कविता जैसी जीवित और जैविक स्पीसीज़ में भी यह तलाश व्यर्थ हो जा रही है तो मुझे लगता है कि स्वयं तथागत बुद्ध भी आज यदि होते तो करुणा ही खोज रहे होते। मुझे ठीक-ठीक अन्दाज़ा नहीं है कि स्वयं उनके युग में कितनी करुणा थी जगत में, मानव समाज में, और प्रकारांतर से कविता में भी! लेकिन मैं जानता हूँ कि हमारे इस युग को, उसकी कविता को, करुणा की सख़्त ज़रूरत है।
‘बुद्ध न हो पाना’ एक अलग कविता है। बुद्ध न हो पाना उस तरह से कचोटता तो नहीं है, हाँ यह पश्चात्ताप का एक स्थायी भाव जैसा ज़रूर है। यहाँ बुद्ध अपने ऐतिहासिक अर्थ में नहीं है। सिद्धार्थ गौतम, जो पार पा गया था, जिसे निर्वाण मिल गया था। और इसका कोई लिटरल बौद्धिक अभिप्राय भी नहीं। यह महज़ प्रतीक है, विनम्रता, अहिंसा और विनय का। ये सभी भाव भीतर मौजूद रहते हुए भी मुझे सरेंडर करने पड़तें हैं। क्यों? क्योंकि हिंसा के इस समय में भौतिक सुविधाएँ अर्जित करने में ये बहुत बड़ी बाधाएँ बन रही हैं। ये मूल्य अप्रासंगिक हो जा रहे हैं। इन सभी भावों को वाईटल जीवन मूल्यों के रूप में ‘रिकवर’ करने की अभीप्सा है। एक निहायत ही दिली, इनसानी और सांसारिक ख्वाहिश! जो लापरवाही से देखने पर आध्यात्मिक जैसा दिखने लगता है। सामाजिक बदलाव चाहे जिस रूप में हो ग्राह्य है, श्लाघ्य है, बशर्ते कि वह नैसर्गिक, मद्धम और सहज सुपाच्य हो। आकस्मिक बदलाव से मेरा मन खराब होता है। यह अशांति लाता है। सामाजिक विश्रृंखलता भी लाता होगा, निश्चय ही।
13. कभी आप ईश्वर को चाय पर बुलाते हैं, कभी ईसा खुद खूंटी पर से उतरकर आपकी बातचीत में शामिल होते हैं। क्या आप किसी ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखते है? आप मानते हैं की आध्यात्मिकता मनुष्य के भीतर उम्मीद की रौशनी को जागृत किए रहता है?
ईश्वर मेरी कविता में नियामक सत्ता की तरह नहीं आता। न ही स्रष्टा और निर्णायक की तरह। वह अति-साधारण मनुष्य, दोस्त की तरह आता है। इतना साधारण कि उसे मैं चाय और बीड़ी ऑफर कर सकता हूँ और वह दोस्तों की गपशप में शामिल हो सकता है। वह अभीतक न देखे गए, अभीतक न पाए गए अनगिनत परतों और तहों के नीचे मनुष्य के बहुत पवित्र और निर्दोष अस्तित्व की अवधारणा है। जिससे बिछुड़न की प्रतीति बनी रहती है। जिससे एक होने, बतियाने और जिसमें घुलमिल जाने के लिए तड़पता रहता है मेरा कवि। अब इसका चाहे रुहानी मतलब निकालिए या फिर मनोवैज्ञानिक विष्लेषण कीजिए; यह पाठक की मर्ज़ी है। निजी तौर पर मैं आस्तिक नहीं हूँ। ईश्वर की ‘संस्था’ और उसकी किसी ‘किताब’ में विश्वास नहीं करता। न उससे डरता हूँ। लेकिन अपने ईमान से डरता हूँ। अपनी उस इनोसेंस और पवित्रता से डरता हूँ, जिसे मैंने खुद अपने भीतर परिकल्पित किया, अपने ही प्रतिरूप की तरह… बेहद प्रेमपूर्वक उसे पाला, पोसा। उस अर्थ में फिर नास्तिक भी नहीं हूँ। ईश्वर है या नहीं है, यह सवाल मेरे भीतर खड़ा नहीं होता। न ही कविता में इसे सायास खड़ा करना चाहता हूँ।
आपके आखिरी प्रश्न का उत्तर भी इसी तर्ज़ पर सब्जेक्टिव है। यकीनन, मैं मानता हूँ कि जिसे आप आध्यात्मिकता कहते हो, वह किसी मनुष्य के भीतर उम्मीद की रोशनी को जगाए रह सकता है। लेकिन मेरे नज़दीक यह चेतना का इश्यू है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो ठेठ भौतिक गणनाओं और निष्कर्षों को नेगोशिएट नहीं कर पाते। उनके लिए आस्था बड़े महत्व की चीज़ है। क्योंकि उम्मीद अंततः सांत्वना का मनोविज्ञान है। मन यदि मान जाए तो उम्मीद की किरण फूट ही आती है। लेकिन ऐसा सब के साथ हो ज़रूरी नहीं। जो रेशनलिस्ट है, आस्थावान नहीं है, वह विशुद्ध भौतिक वजुहात पर निर्भर करना पसंद करता है। उसे यह आस्थाजनित आध्यात्मिकता कभी भी सांत्वना नहीं दे पाएगी। तो दोनों तरह के मनुष्यों के पास आध्यात्मिकता के बारे में अपना-अपना सच है, अपना-अपना अनुभव है।
14.‘ब्यूस की टहनियों’ का क्या कोई सांस्कृतिक अभिप्राय है? जैसे ‘जैतून की टहनियाँ’ शांति का प्रतीक समझी जाती हैं, वैसे क्या ‘ब्यूस की टहनियाँ’ भी कोई प्रतीक है या सामुदायिक चेतना का कोई हिस्सा है?
नहीं, यह रूपक मैंने स्वयं गढ़ा है। यह कविता मेरे बीस वर्षों के लम्बे सृजन संघर्ष की उपलब्धि थी। यह कोई पारम्परिक प्रतीक नहीं। इवॉल्व्ड है। ‘ब्यूँस’ कुलुई भाषा में ‘विलो’ के पेड़ को कहते हैं। विलो, जिससे अभिजात्य दुनिया क्रिकेट के बल्ले बनाती है। मेरी भाषा में इसे ‘षेन बुट’ कहते हैं। यह वनस्पति बाहर से लाकर यहाँ आरोपित की गई थी। हम बाकायदा इसे हार्वेस्ट करते हैं। हर तीन साल बाद इसकी टहनियों को काटकर मवेशियों के लिए इनकी छाल का हरा चारा बनाते हैं। बची हुई लकड़ी धूप में सुखाकर बाँध ली जाती है ईंधन के लिए। सर्दियों में छह महीने के लिए जब लाहुल ध्रुवीय जलवायु को अपना लेता है, समूची धरती और उसकी वनस्पति बरफ के नीचे दब जाती है, तब यह एकमात्र उपलब्ध हरा चारा है। दिन में एक बार यह बतौर प्रोटीन सप्लिमेंट मवेशियों को खिलाया जाता है। हमारे बुज़ुर्गों को ठीक से याद नहीं, जनश्रुतियों में इसकी कलमें काश्मीर से या फिर कुल्लू से लाई गईं बताई जाती हैं। इस वनस्पति का पूरा जीवन-चक्र मुझे लाहुल की स्त्री के जीवन से मिलता- जुलता नज़र आया। मैं इस मेटाफर को पाकर बहुत ख़ुश हुआ था। क्योंकि यह लाहुल की विशिष्ट भू-संस्कृति में से इवॉल्व हुआ रूपक है। इसमें देह, वस्त्र और चेहरे से इतर लाहुल की स्त्री का प्राण है। उसका वजूद है। इस रूपक के भीतर आधुनिक स्त्रैण चेतना और इतर वैचारिक अभिप्रायों के अथाह संस्तर सम्भावित हैं, विशेषकर इकोफेमिनिज़्म के दृष्टिगत। दुखद यह है कि पिछले दो दशकों में ये पेड़ अचानक सूखने लग गए हैं। पशुपालन खत्म हो गया, ईंधन के नए विकल्प आ गए हैं। तो इस वनस्पति की क़द्र नहीं रह गई है। न तो पुराने को बचाने की कोशिश हो रही है, न ही नए पौधारोपण की ओर किसी का ध्यान है। ब्यूँस की टहनियाँ सामुदायिक चेतना का हिस्सा बनने से पहले ही लुप्त होने लगीं हैं। और शायद लाहुल की स्त्री का भी यही सच है।
15.पहाड़ी जीवन में महिलाओं की क्या भूमिका है? पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी से संबंधित उनका परस्पर संबंध एवं उससे जुड़ी उनकी क्या भूमिकाएं हैं?
पिछले कुछ प्रश्नों के उत्तर में ये भूमिकाएँ आपको दिख गई होंगीं। बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। आप स्त्री को पहाड़ी समाज की रीढ़ कह सकतीं हैं। लाहुल की स्त्री न केवल घर बल्कि पूरे समाज और पर्यावरण की सार-सम्भाल का ज़िम्मा उठाती है। चूल्हे से लेकर पशुशाला तक, खेत-खलिहान से लेकर जंगल तक सबकी ज़िम्मेदारी वही उठाती है। पुरातन ‘बहुपति प्रथा’ ने सदियों तक यहाँ की आर्थिकी व पारिस्थिकी को सस्टेनेबल बनाए रखा है। सीमित संसाधनो के विधिवत दोहन की ज़रूरत से ये प्रथाएं पहाड़ में इवॉल्व हुई हैं। सदियों तक प्रचलन में रही हैं। उस प्रथा को यहाँ की स्त्री ने अकेले ही झेला है। जबकि आसपास के सभ्य संसार में स्त्री ने सामाजिक वैयक्तिकता का चुनाव बहुत पहले ही कर दिया था। यहाँ के जनजातीय विधान में स्त्री को पुरखों की भू-सम्पत्ति पर अधिकार नहीं है। सतही अवलोकन में यह बेहद क्रूर और अमानवीय प्रचलन प्रतीत होता है। और स्त्री ही आजतक इस पितृसत्ता की सबसे सशक्त पैरोकार बनी रही। ये बड़ी क़ुरबानियाँ हैं यहाँ के स्त्री की, जोकि उथली निगाह से पकड़ी नहीं जा सकती। मैं समझता हूँ कि यह बड़ा महत्वपूर्ण सामाजिक योगदान है उस जेंडर का, कि खुद को इस अधिकार से वंचित रखा। मैं इन प्रथाओं का महिमा मण्डन नहीं करना चाहता, पर यह एक बड़ा तथ्य है। बावजूद इस वंचना के, कुछ अपवादों को छोड़कर स्त्री को यहाँ के समाज में काफी सम्मान तथा शक्तियाँ प्राप्त हैं। और यह सम्मान और शक्तियाँ उस ने केवल और केवल अपनी मेहनत से अर्जित की हैं। मेहनतकश स्त्री को सहज नैसर्गिक रूप में तमाम सामाजिक ताक़तें मिल जाती हैं, और सही मौक़े पर वह इनका प्रयोग भी बहुत विवेक से करने लगती है। यह अलग बात है कि सामाजिक वर्जनाओं के चलते यहाँ की स्त्री बहुत मुखर तथा आऊटस्पोकन नहीं है। हमारी याद में सभा-पंचायतों में स्त्री का सामने आना असभ्य माना जाता रहा। लेकिन इधर ये तमाम वर्जनाएं टूटी हैं और स्त्री अपने आप को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने में सक्षम हो रही है। आज मेरे समाज में स्त्री-लेखक, कवि, कलाकार हैं। अधिकारों के लिए भी स्त्री सचेत हो रही है। यहाँ के ‘महिला मण्डल’ इधर बहुत सशक्त हो गए हैं। गाँव-बिरादरी में कोई भी सामाजिक, प्रशासनिक या राजनीतिक गतिरोध पैदा होता है, ये महिला-मण्डल बड़ी तत्परता से बहुत वाजिब व न्यायपूर्ण समाधान निकालते हैं। और यह आकस्मिक नहीं है कि उन के फैसलों पर शत-प्रतिशत अमल होता है क्योंकि इन फैसलों के पीछे सदियों से अर्जित स्त्री–श्रम और अनुभव की ऊर्जा होती है! आठवें दशक तक मेरे गाँव की ऊपरी ढलानें निपट नंगी हो गईं थीं। स्थानीय ईन्धन और इमारती लकड़ी की आपूर्ति के अलावाछिटपुट सरकारी निर्माण कार्य मे लगे लोक-निर्माण विभाग और बॉर्डर रोड्स के लेबर इस वन-कटाई के मुख्य कारण रहे होंगे। वहन क्षमता से अधिक पशुपालन और अतिचारण ने रही-सही कसर पूरी कर दी थी। ऐसे अवसर पर मेरी पंचायत में महिला-मण्डलों द्वारा लगाया वन कटान पर प्रतिबंध एक बड़ा उदाहरण है। आज पचास साल बाद मेरे गाँव के नज़दीक तक नायाब ‘जुनिपर’ का एक शानदार जंगल फिर से उग गया है। इसमें बहुत समय लग गया, लेकिन उस पीढ़ी की स्त्री ने आने वाली एक पूरी सदी के लिए पर्याप्त एक जंगल बचा लिया। मुझे ख़ूब विशेषणों का प्रयोग करते हुए प्रशस्तियाँ गढ़नी नहीं आतीं। मेरी कविताओं में कुछ-कुछ प्रसंग आपको मिल जाएंगे। मुझे पूरी उम्मीद है कि बदली हुई समाजार्थिक परिस्थितियों में भी स्त्रियाँ अपनी उस सदियों पुरानी भूमिका को एकदम नए तेवर के साथ, लेकिन उसी पुरातन संलग्नता से निभाएंगी और यहाँ की पारिस्थितिकी और समाज को तबाह होने से बचाएंगीं।
16. आग की जरूरत आपको अपनी कविताओं में क्यों महसूस होती है? क्या ‘आग के इलाके’ में आग का तात्पर्य बर्फ़ीले जगह पर जीवित रहने के लिए एक प्राणतत्व के रूप में है या इसे जीवन के बुनियादी तत्व के रूप में स्वीकारा जा सकता है? या फिर आप उस आग को एक वैचारिक क्रांति के रूप में देखते है?
बिल्कुल सही। तीनों अर्थस्तरों को बिल्कुल ठीक-सटीक पकड़ा है आपने। धन्यवाद! ये तीनों ही आशय हैं वहाँ। मेरे लिए आग आदिम प्रतीक है सृष्टि की अदम्य जिजीविषा, उत्तरजीविता और जिज्ञासा का बेशक़ीमती प्रतिफल। आग का पालतूकरण मानव सभ्यता की विशिष्ठ उपलब्धि है। और खास इस कविता-सीरीज़ के बारे में कहना चाहूँगा कि ये सभी आशय सचेतन और सायास वहाँ हैं। यह लम्बी सीरीज़ है, जिसमें से शायद केवल चार कविताएँ हैं जो प्रकाशित करवा सका था। क्रांति शब्द से अलबत्ता बहुत ‘रिलेट’ नहीं कर पाता मैं।मेरी यह विनम्र स्वीकारोक्ति है कि निजी तौर पर समग्र क्रांति का कोई खाका या विजन मेरे मन में नहीं है। मुझे ‘उत्क्राँति’ अधिक समीचीन जान पड़ता है। माने, छोटी-छोटी अनेक क्राँतियों की शृंखला। अपनी समग्रता में वह ‘इवॉल्युशन’ कही जाएगी, न कि ‘रिवॉल्युशन’! लेकिन आप क्राँति के प्रतीक की तरह से भी इसे ले सकते हैं। यह आपका अपना पाठकीय विवेक व विशेषाधिकार है। मैं आपको पूरी पाठकीय छूट दूँगा इन कविताओं के सभी अंतर्पाठों के लिए।
17. हिमालय को लेकर जिन्होनें भी, चाहे किसी भी विधा में, साहित्य लिखा है, उनके विषय में आपकी क्या राय है? क्या वे हिमालय के साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन के साथ न्याय कर पाते हैं? या फिर वे प्रकृति और पर्यटन के भाव से ही चीजों को व्यक्त करते है?
आरम्भ में साहित्य ने हिमालय को प्रकृति और पर्यटन भाव से ही देखा क्योंकि तब भारत में लेखक मुख्यतः मैदान का ही था। हालाँकि दरद, भोट और नेपाली (खस कुरा आदि) भाषाओं में अच्छा साहित्य रहा है लेकिन सभ्य समाज उन्हें विदेशी और निकृष्ट मानता रहा होगा। क्योंकि भारतीय मुख्यधारा के लेखन में इस सबका ज़िक्र ही नहीं आता। भारतीय मैदान के मन में हिमालय के प्रति शुरू से ही रूमानी, रूहानी और रोमाँचकारी भाव ही रहा और बहुत बार तो हेय भाव भी। पहाड़ और पहाड़ी मानस को मुख्यधारा के लोकाचार में बहुत निकृष्ट स्थान मिला है। संस्कृत और प्राकृत साहित्य को क्षमा भी कर दें, मध्ययुगीन लोकभाषाओं के साहित्य को उनकी सीमाओं के दृष्टिगत छूट भी दे दें, तो आधुनिक हिन्दी के छायावाद और राष्ट्रीय साँस्कृतिक धारा के लेखक में भी हिमालय के प्रति प्रायः अतिरंजित अहोभाव ही रहा। यह क्षम्य नहीं है। उसमें भी चलिए बाकियों को छोड़ देते हैं, सुमित्रानन्दन पंत तो स्वयं कथित रूप से हिमालय के मूल निवासी थे। बावजूद इसके अपने लेखन में हिमालय के प्रति एक हिमालयी दृष्टि विकसित नहीं कर पाए। करना ही नहीं चाहते थे। वे उस मैदानी सोच और नज़रिए से इस क़दर ओतप्रोत और अभिभूत थे कि ऐसा कोई विचार ही संभवतयः उनके मन में नहीं उपजा। पुराने कहानीकार गुलेरी जी और नए कहानीकार निर्मल वर्मा हमारे हिमाचल के ही थे। उनके लेखन में हिमालय के प्रति उदासीनता तो नहीं कहूँगा पर हिमालय केंद्रीय विषय नहीं ही रहा। उनके साहित्य की आँचलिक भावभूमियाँ भी नितांत गैर-हिमालयी रहीं हैं। अलबत्ता केदारनाथ सिंह, अज्ञेय और कुमार विकल जैसे गैर-हिमालयी कवियों में हिमालय के प्रति फुटकर नूतन भाव ज़रूर दिखते हैं, जो ध्यातव्य हैं और महत्वपूर्ण हैं। लेकिन नेटिव लेखक को उनकी दृष्टि नहीं अपनानी चाहिए। वो फिर बड़ी भदेस नकल हो जाएगी।
आपने साहित्य की बात की। साहित्य के दो मतलब होते हैं। एक तो वृहत्तर अर्थ में जिसे हम वाङमय के अंतर्गत साधारणीकृत करते हैं। आजकल अंग्रेज़ी में ‘नॉन फिक्शन’ टर्म भी चल पड़ा है। दूसरा रचनात्मक साहित्य– मसलन कविता और कथा साहित्य। अब हिमालय की बात करें तो हिन्दी में राहुल साँकृत्यायन ने दोनों तरह का लेखन किया है। कथेतर में तो अद्भुत लेखन है। यद्यपि उनकी भाषा को लेकर बहुत संतुष्ट नहीं रहा मैं। मेरी अपनी पसंद का ही मामला रहा होगा यह तो। रचनात्मक लेखन में कथा साहित्य मिलता है उनका। कविता नहीं है। वे फिक्शन में भी मुख्यतः इतिहास और संस्कृति को ही डील करते हैं। बहुत ही वैज्ञानिक दृष्टि से। आध्यात्म और दार्शनिक चिंतन को भी डील करते हैं। लोक-वार्ता को भी बराबर सम्मान और पूरी तरजीह देते हुए, अद्वितीय आत्मीयता के साथ। राहुल के लेखन में हिमालय को लेकर गहरी अंतर्दृष्टि है। एजेंडा बहुत कम और सहज जिज्ञासा अधिक है। इस जिज्ञासा में हिमालय के प्रति समानुभूति और आत्मीयता के साथ-साथ एक अलग स्तर की दुर्लभ संलग्नता है। हिमालय और परा-हिमालय की विचित्रता को जिस खूबसूरती से राहुल इंटरप्रेट कर सकते थे, आजतक कोई लेखक न कर पाया। राहुल को पढ़ने से लगता है कि मैदानी मानस होते हुए भी वह लिटरली हिमालय में घुल मिल गए थे। उन्हें हिमालय के प्राण-तत्व की पहचान हो गई थी। इसीसे पिछली पीढ़ी के हिंदी लेखकों में राहुल एकमात्र लेखक दिखते हैं, जो हिमालय के मूल स्वभाव के साथ ठीक-ठीक न्याय कर पाते हैं।
विभिन्न दौर के चीनी, कोरियाई, रूसी और जापानी यात्रियों के लेखन से भी हिमालयी देश को लेकर एक विशेष सूझ विकसित होती है। योरुपीय लेखकों की बात ज़रूर करूँगा। डच, जर्मन, ब्रिटिश, फ्रेंच, इटेलियन यात्रियों और विद्वानों का लेखन हिमालय को क्रिटिकली देखता है। वहाँ के जन को भी, वहाँ के भूगोल को भी।एक समुचित दूरी से, नई सभ्यता के आलोक में। अतः हिमालय पर पाश्चात्य लेखन में अहोभाव बहुत कम है। अतिरंजना भी नहीं। लेकिन साम्राज्यवादी सोच, संसाधनो का दोहन और वाणिज्यिक उपयोगिता की उपनिवेशवादी दृष्टि ज़रूर उनमें थी। उनकी सारी सोच अंततः योरप स्थित अपने उन सरकारों और कंपनियों के हित तक सीमित थी, जिन सरकारो व एजेंसियों ने उन हिमालयी और परा-हिमालयी अभियानों को प्रायोजित किया था। अतः उनके लेखन को भी एकदम न्यायसंगत तो नहीं कह सकता। हालाँकि इनके उपलब्ध हिंदी-अंग्रेज़ी अनुवादों के आधार पर यह कह रहा हूँ। इनके सम्पूर्ण लेखन को समग्रता से नहीं पढ़ पाया मैं। बाहर के लेखक की हिमालय को लेकर एक अलग ही दृष्टि है। जो उसकी सीमा तो है ही, लेकिन यदि सरोकार ईमानदार हैं तो वही उसकी शक्ति भी बन सकती है। रही अंग्रेज़ी भाषा के भारतीय लेखक की बात, तो उसमें हिमालयी हिंटरलैंड के प्रति एक रूमानी सहानुभूति होते हुए भी बहुत न्यायसंगत नहीं मानता। अपनी उथली व सतही समझ, बुनियादी हिमालयी सरोकारों की गैरमौजूदगी, इनवॉल्वमेंट की कमी की वजह से वह ख़राब लेखन कहा जाएगा। मैंने हिमाचल के विभिन्न पुस्तकालयों में ऐसे बहुत से लेखकों को पढ़ रखा है। आज भी ऐसा बहुत कचरा बाज़ार में नित नए पैकेज में आ रहा है। मेरे नज़दीक यह लेखन पल्प-साहित्य से भी निकृष्ट है।हिमालय इस तरीक़े से भी ख़ूब बिक रहा है और यह तरीक़ा आगे की बिकवाली में भी मदद कर रहा है। इनमें से अधिकतर लेखक तो नामोल्लेख के लायक भी नहीं। माने, प्रकृति और पर्यटन कोई वर्जित विषय नहीं है, आप ज़रूर लिखिए पर्यटन पर। पर क्रिटिकली लिखिए। पर्यटन और नैसर्गिक सौंदर्य को पर्यावरण और यहाँ के नैटिव मानस की उत्तरजीविता के बरक्स प्लेस करते हुए लिखिए।
समकालीन हिमालयी साहित्यकारों में यह चेतना बहुत शिद्दत से उभरी है — गिरदा, विद्या सागर नौटियाल, शेखर जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, विजय गौड़, महेश पुनेठा। गैर साहित्यिक लेखन में भी बहुत बड़ा उभार दिखता है। शेखर पाठक की वृहत पत्रिका ‘पहाड़’ अपने आपमें एक बड़ा आन्दोलन है। मैं इस परिघटना को एक आन्दोलन की तरह ही देखता हूँ। ये उत्तराखंड का हिन्दी लेखन है। इसका फैलाव मैं नेपाल, हिमाचल और काश्मीर से होते हुए सुदूर हिंदुकुश और पामीर के पहाड़ों तक देख सकता हूँ, जहाँ पंजाबी, उर्दू , पहाड़ी, दरद और तिब्बती की सहभाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है। आप लद्दाख के लेखन को पढ़िए, अपनी साँस्कृतिक अस्मिता और अतिजीवन को वे लोग पॉलिटिकल चेतना के आलोक में दर्ज कर रहे हैं। हिमालय के पूर्वी हिस्से में यह चेतना बहुत पहले उभरी है और अधिक शिद्दत से उभरी है, अपनी भाषाई सीमाओं के चलते मुझे उधर के लिखत की अधिक जानकारी नहीं है। हिमाचल में मुझसे एक पीढ़ी पहले यह जागरूकता आई। मेरी पूरी पीढ़ी इसमें शामिल है। हरनोट, अनूप सेठी, निशांत, मोहन साहिल, आत्मारंजन… सब के नाम लेना सम्भव नहीं। यहाँ उन लेखकों के नाम लेना तो असंगत ही होगा जोकि सामान्य मध्यवर्गीय कंटेंट और मानवीय सरोकारों को डील करते हैं, जबकि हिमाचल में ऐसे लेखक ही अधिक हैं, जो साहित्य-लेखन को एक सामान्यीकृत नज़रिए से देखना अधिक सही मानते हैं। लेकिन भविष्य में बेहतरीन ‘हिमालयी’ ( Mountain-centric) लेखन की उम्मीद है।
18. आपके हिसाब से लाहौल को समस्या सिर्फ बाहरी लोगों से है या अपने ही सजातीय लोगों के कदम, विचार और सोच से भी है? अपने हक और अधिकार का बोध उनमें किस रूप में पनपता है? बाहरी-मैदानी लोगों से किस प्रकार के योगदान की अपेक्षा की जा सकती है?
पहली बात तो यह कि यह समस्या न केवल लाहुल अपितु समूचे हिमालय की है। क्योंकि यह नाज़ुक देस है और चूँकि इसकी वहन-क्षमता सीमित है, निश्चित रूप से खतरा न केवल बाहरी बल्कि भीतरी जनसंख्या से भी है। कहना चाहिए कि खतरा व्यक्ति से नहीं उसकी विध्वंसकारी सोच से है। हिमालय को अत्यधिक मानवीय गतिविधियों से बचाए रखना इसलिए ज़रूरी है कि इसमें अतिदुर्लभ खनिज, वनस्पतियों के अलावा जीवनदायी हिमनदीय जलस्रोत हैं। ये जलस्रोत उत्तरी भारत, पाकिस्तान, तिब्बत, चीन, नेपाल, बांग्लादेश की ज़रूरत पूरी करते हैं जोकि विश्व में सबसे अधिक घनी आबादी वाले देश हैं। यदि इन जलस्रोतों की नैसर्गिक गति में हस्तक्षेप किया गया तो इतनी बड़ी आबादी प्रभावित होगी। दूसरी बात हम लाहुल के बारे में करें– लाहुल पश्चिमी हिमालय का सबसे सीमित संसाधन वाला भूखण्ड है। तुलना करें तो इसकी वहन क्षमता शेष हिमालय से भी बेहद कम है। यह इलाका इतना नाज़ुक है कि यहाँ पशुपालन और खेती जैसी मूलभूत ग्राम्य गतिविधियों को भी नियंत्रित करने की ज़रूरत है। पर्यटन, उद्योग, खनन, ऊर्जा उत्पादन और सड़क-निर्माण आदि की तो बात ही छोड़ दीजिए। इन दिनों ‘लिंडुग्’ गाँव का स्खलन सुर्खियों में है। दर्जन भर घरों का यह छोटा सा गाँव जो एक नाज़ुक हिमनदीय मोरेन पर बसा हुआ है, अपने पारम्परिक और देशज गतिविधियों की वजह से ही बड़ी तेज़ी से धँस रहा है। ग्लोबल वार्मिंग का परोक्ष असर ज़रूर होगा, लेकिन ऐसा नहीं है कि आसपास कोई बड़ा प्रोजेक्ट लगा हो। सोचिए कोई बड़ी गतिविधि शुरू हो जाए तो क्या स्थिति होगी! लाहुल का समुचित भूगर्भीय सर्वेक्षण हो जाए तो पता लगेगा कि लाहुल की बहुत सी ज़मीन ऐसे ग्लेशियल डिपोज़िट्स पर टिकी है जिसके नीचे अति-सम्वेदनशील पर्माफ्रोस्ट है, जो तेज़ी से पिघल रहा है।
यहाँ के नेटिव लोगों की समझ, विचार और कार्यकलाप से ही लाहुल को असल खतरा है। उन्हें अपनी जागरूकता का स्तर बढ़ाना होगा। हिमालय क्षेत्र में संसाधनों पर स्थानीय हक़ूक के बारे में अज्ञान और इनके प्रबंधन के मामले में अधिकार-बोध की कमी एक बड़ी चुनौती है। ‘सरकार कुछ भी कर सकती है’ केकलोनियल और सामंती नेरेटिव से छुटकारा पाना ज़रूरी है। हमारे अपने ही सजातीय ताक़तवर लोग इस नेरेटिव को जनता में फैलाते हैं। उनका निजी निहित स्वार्थ उनसे यह काम करवाता है। यह गद्दारी है। यह जघन्य पापकर्म है। “लोहे में लकड़ी का दस्ता न होता, लकड़ी के कटने का रस्ता न होता! हमीं में से कुछ लोग दिकू बन गए हैं…”कुछ ऐसी ही अनुज लुगून की पंक्तियाँ हैं। तुम्हें याद होंगीं। तो सबसे पहले देशज दिकुओं से निपटना है हमें। जबतक स्थानीय सूझ में विकास की सस्टेनेबल परिभाषा का समावेश न हो जाए यह खतरा टलने वाला नहीं है। माने यह सूझ पहले से मौजूद है लोक में, महज़ आधुनिकता की चौंध में हम बिसर गए हैं। संसाधनो को बेच खाने, तुरत-फुरत दोहन कर पैसे कमाने और लाहुल को अपनी नियति के हवाले छोड़ भागने की प्रवृत्ति से बचना होगा। ईज़ी मनी का लोभ, जोकि आवारा पूँजी का सब से बड़ा दोष है, इस लोभ को अपनी प्राथमिकता से हटाना पड़ेगा। जैसाकि सोनम वाङ्चुक कहता है कि बजाय जगमगाता शहर, ऊँची इमारतें और लम्बी गाड़ियों की माँग रखने के, हमारे देश के लोग यदि स्वच्छ हवा और ताज़ा पानी की माँग करें, तो सरकार को सुनना ही पड़ेगा। बाहरी मैदानी जनता भी इस सूझ पर अमल करे, यही उसका मौलिक योगदान होगा हिमालय को बचाने में। उससे इसी वैचारिक समर्थन की अपेक्षा है।
19.लाहौल के प्राकृतिक पर्यावरण को लेकर आपकी चिंताएँ क्या हैं? सोनम वांगचुक ने भी इस ओर पहल की है, उस बारे में आपकी क्या राय है? क्या वहाँ के स्थानीय लोगों की स्वायत्तता खत्म हो जाएगी बाहरी लोगों के दखल से? क्या इस मामले में स्थानीय लोग कुछ सोच रहे है या सरकार कुछ सोच रही है? दोनों के बीच टकराव की मूल वजह क्या है?
लाहुल की चिंताएँ मैंने बता दी हैं। हमें यहाँ ‘बड़े प्रोजेक्ट’ नहीं चाहिए। चाहे वे जल विद्युत परियोजना हों, चाहे उद्योग व खनन के प्रोजेक्ट, या फिर पर्यटन के ही। यहाँ की वहन क्षमता सीमित है। हमारे प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। जल, जंगल और ज़मीन भी। सोनम वाङ्चुक के बारे में पहली बार 1995 के आसपास सुना था। लाहुल में मेरा इलाक़ा सूखा पीड़ित है। हमारे कुछ लोग लद्दाख गए थे यह सुनकर कि कुछ लद्दाखी इंजीनियर कृत्रिम ग्लेशियर बनाकर अपने खेत सींच रहे हैं और यह कि लद्दाख और बल्तिस्तान में ऐसी कुछ पारम्परिक लोक- प्रविधियाँ हैं। लाहुल की टीम उन सभी एक्सेसिबल जगहों तक रेकी कर आई। लेकिन कोई संतोषजनक फाइंडिंग्स नहीं थीं। और मौक़े पर कोई ऐसा कामयाब प्रोजेक्ट उन्हें दिखा नहीं, सिवाय छोटे-मोटे प्रयोगों के। जिससे कि प्रेरणा ली जा सके। वह टीम बहुत निराश थी कि वे कथित इंजीनियर्स से मिल भी नहीं पाए।
उसके बाद मैंने खोजबीन की तो पता लगा कि लद्दाख में ऐसे अनेक सेल्फ-मेड साईंटिस्ट हैं, जो सीरियसली इस नवाचार के काम में लगे हैं। सोनम वाङचुक सब से युवा और टेक्निकली अपडेटेड है। उसे सोशल मीडिया पर काफी अर्से से फ़ॉलो करता हूँ। उसके सोलर पैसिव हाऊसिंग और ‘आईस स्तूप’ का कॉनसेप्ट बेहद आकर्षक है। इंडिजिनस समझ पर उसकी अगाध आस्था बहुत ही प्रेरक है। वह एक कुशल वक्ता है। हिमालय को लेकर उसके पास बड़ा विजन है। लेकिन उसने सरकारी नीतियों के पक्ष में जो लोकप्रिय विडिओज़ बनाए थे, मुझे ख़ास पसंद नहीं आए थे। मुझे उनमें विज्ञापनों की सी ध्वनि आई थी। और काफी हद तक प्रशस्ति भी लगी। लद्दाख की राजनीतिक ऑटोनमी के लिए उसके क्लाईमेट फास्ट के समर्थन में हम तकरीबन दस लोगों ने 21 मार्च 2024 को ढालपुर मैदान कुल्लू में एक दिन का अनशन किया। दिनभर खाली पेट रहकर पर्यावरण चर्चा की। इसमें कुल्लू और लाहुल के कुछ लेखकों, मीडिया-कर्मियों, एक्टिविस्टों और कलाकारों ने हमें सहयोग दिया।बाद में उसकी क्लाईमेट यात्रा में मैं तीन दिन शामिल रहा।जिस्पा से कुल्लू तक। मेरे लिए सोनम वाङ्चुक उस अर्थ में एक चमत्कार पुरुष नहीं, जैसी कि उसकी पब्लिक इमेज बनी हुई है। हीरो वर्शिप में मेरा यूँ भी यक़ीन नहीं है।लेकिन एक बड़े स्वप्नदर्शी व्यक्तित्व के रूप में मैं उसकी इज़्ज़त करता हूँ। आखिर हर किसी को बड़े सपने नहीं आते। यात्रा के दौरान मैंने महसूस किया कि अपनी तमाम राजनीतिक खूबियों के बावजूद वह सक्रिय राजनीति में नहीं आने वाला। उसे सामान्य अर्थ में एक्टिविस्ट भी नहीं कहा जा सकता। पर्यावरण उसके लिए एक सोच है, न कि मुद्दा! स्थानीय स्वशासन और लोक संसाधनों के प्रबन्धन की स्वायत्तता के मामले में मेरी उस से सहमति है। उसका तर्क बहुत दमदार है कि बाहर से आने वाले प्रशासकों और प्रबंधको को लद्दाख की विशिष्ट भौगोलिक सम्पदा और संस्कृति को मैनेज करने का अनुभव नहीं है। इसलिए नीति निर्धारण और कार्यान्वयन दोनो स्तरों पर स्थानीय हस्तक्षेप अनिवार्य है। सेना की ओवर डिप्लॉयमेंट के चलते लद्दाख की नेटिव जनसंख्या पहले ही आऊटनम्बर होने के कगार पर है। बड़े उद्योग लगने पर स्थिति और भी चिंताजनक हो जाने वाली है। आप इसे केवल बाहरी लोगों के दखल की तरह न देखें। यह मल्टिनेशनल कम्पनियों के दखल का मसला है। हम ने हिमालय में अनगिनत सुरंगें और चौड़े हाईवे और रेलवे बना कर कार्पोरेट निवेश और अन्धाधुंध दोहन को खुला निमंत्रण दे दिया है। लेकिन अपने वजूद की रक्षा के बारे में बहुत गहराई से सोचने की तकलीफ नहीं की है। ऐसे में संविधान के पाँचवे और छठे शेड्यूल के अंतर्गत स्थानीय निकायों को शक्तियाँ प्रदान करने का प्रावधान है। लद्दाख की अन्दरूनी राजनीति को इस मसले से अलग रखते हुए उसकी माँग को मैं जायज़ कहूँगा।
जहाँ तक लाहुल की बात है, बिल्कुल यही स्थितियाँ यहाँ भी बनती हुई नज़र आ रहीं हैं। यहाँ की स्थानीय जनता में राजनीतिक चेतना लद्दाखियों जैसी प्रखर और दूरगामी नहीं है। लेकिन मुट्ठी भर लोग तो हैं ही जो इस खतरे को भाँप रहे हैं और जनता को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं। सरकार के बारे में मुझे यक़ीन है कि इस विषय पर कुछ भी कदम नहीं उठाने वाली। सरकार के लिए बेच खाने की नीति सुविधाजनक है। जनता को सड़कों पर उतरना पड़ेगा। लद्दाख में वह उतर चुकी है। मेरी समझ में जनता और सरकार के बीच टकराव का मूल कारण है आवारा और अनियंत्रित पूँजीवाद को गैरवाजिब संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का सवाल।
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अजेय (जन्म : 18 मार्च 1965) सुपरिचित कवि हैं। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं : ‘इन सपनों को कौन गाएगा’ (दखल प्रकाशन, नई दिल्ली 2012), ‘इस आदमी को बचाओ’ (आधार प्रकाशन, पंचकुला 2023), ‘अजेय : चयनित कविताएँ’ ( न्यू वर्ल्ड प्रकाशन, कानपुर 2022) और एक गद्य पुस्तक ‘रोहतांग : आर पार’ (आधार प्रकाशन, पंचकुला 2023)। उनसे ajeyklg@gmail.com पर बात की जा सकती है।
स्मृति दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में “समकालीन हिंदी कविता में पारिस्थितिक नारीवाद” विषय पर शोधरत हैं। उनसे smritijha1608@gmail.com पर बात की जा सकती है।