नए पत्ते :
कविताएँ ::
साई प्रतीक
१. हाफ-पैंट वाले राजकुमार
क्या आ चुकी है क़यामत की रात?
क्यों चाँद को डुबो देना चाह रहा है यह समुद्र?
दिन जो चिड़ियों की चह-चह से सराबोर होता था
वहाँ अब गीदड़ों के भौंकने का शोर है
भेड़चाल वाले सफलता का प्रतीक बनकर उभर रहे
और लीक पर न चलने वाले शेर भूखे बिलबिला रहे
कहीं पर गीदड़ बेहतर शिकारी बनने के गुर दे रहे हैं
तो गूंगे आवाम की आवाज़ बुलंद करवा रहे
और हमारे बच्चों के भविष्य तय कर रहे
सोफे पर बैठे हाफ-पैंट वाले राजकुमार
जिन्हें कफन की कीमत तक नहीं पता।
२. मत आना तुम
मत आना तुम,
अगर मेरा प्यार बाँट चुके,
तुम वह सूखी नदी हो
जो बिखर कर अपना अर्थ खो चुकी
यह जानते हुए भी कि
नदी पहाड़ से छूटने पर वापस नहीं आती,
सारे दरवाजे मैंने खुले छोड़ दिए
उससे आई एक मृगतृष्णा
और असीमित इंतज़ार
जो किसी आकाशगंगा से भी बड़ा है
तुम किसी उम्मीद के महल को खंडहर बना चुके,
अब मत आना।
३. मैं जानता हूँ
मैं जानता हूँ
ऐसा राजपथ जहाँ पैदल यात्री वाहन से पीछे रह जाते हैं
एक ऐसा सरकारी अस्पताल जिसके मुख्य द्वार पर कफन बिकता है
समाज, जो उर्वर धरती और स्त्री को बंजर कर देने पर गौरव करता है
ऐसा विश्वविद्यालय जहाँ शिक्षा छोड़ हर बात पर चर्चा होती है
एक ऐसी सत्ता जो पिछले एक दशक से नशे में नाच रही है पर गिरती नहीं
ऐसे विवाह जिसमें सात फेरे का अर्थ,
उनके गुप्तागों के व्यापार का कॉन्ट्रैक्ट है
जहाँ साँस ज्यादा ले लो तो शमशान दिखने लगता है
जानता हूँ ऐसे कई मंदिर जहाँ मानव क्या देवताओं को भी शांति नहीं,
एक ऐसा सितारा जो विस्फोट होने के कगार पर है
और यह भी जानता हूँ कि जानने के उपरांत मुझे मौन धारण करना होगा।
४. नहीं रूकती रेल
एक गाँव जहाँ पटरियाँ तो हैं,
मगर नहीं रूकती कोई रेल
रेल जो उम्मीदों से लदी
ख्वाबों से जुड़ी, बेहद तेजी से,
उस गाँव के सीने पर से रोज गुज़रती है
पर उस गाँव में दो पल रुकना मंजूर नहीं उसे
अब ग्रामीणों के लिए वो बस एक पहर की सूचक है
ग्रामीण, जिनका यह ख़्वाब है, उस रेल पर सवार होना,
उनकी नियति में आता है कुछ नहीं।
हर गुजरता दिन देता है मृत्यु का आभास,
एक डर और उससे उत्पन ठिठुरन।
५. मैं अर्थहीन हूँ
मैं अर्थहीन हूँ
और मेरी अर्थहीनता इस बात की सूचक है
कि मेरे शब्द महत्व नहीं रखते।
मेरी दृष्टि जो बिम्ब बनाती है उसमे मैं नहीं,
किसी उद्देश्य के होने में मेरा कोई योगदान नहीं।
मेरे विचार और कर्म खोखले हैं,
और सपने वे खंडहर हैं जहाँ
कोई व्यक्ति आश्रय नहीं ले सकता।
एक आत्मा जो विचरण करती है,
एक खोज उसकी, जो मैं हूँ।
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साईं प्रतीक की कविताओं के प्रकाशन का यह प्रथम अवसर है। वे पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पीएचडी कर रहे हैं और हाल ही में हुए हिंदवी कैंपस कविता के पटना संस्करण में अपनी कविताओं से श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट करने में सफल हुए थे। उनसे sai.prateek333@gmail.com पर बात हो सकती है।

 
                    
यह कविता आज के हिंदी काव्य-परिदृश्य में “समरसता” या “दिलासा” देने वाले लेखन से बाहर खड़ी होकर, बेझिझक एक असुविधाजनक सत्य बोलती है — और यही इसे उल्लेखनीय बनाता है।
Bahut khub , shabd ko gehrai tak utara gaya hai