कविताएँ ::
नीरज
१. रंगपीठ : चार लोग और पाँचवाँ जवाब
पहला आदमी
होहऽ! यह कैसी आवाज़?
यह कौन सी लौ?
कैसी है यह?
भयानक पक्ष लिए
किसी अंत से छुटाकर आयी है
या कहीं अंततः जा रही है,
छुप जाओ!!!
दूसरा आदमी
इन टूटे हुए विन्यासों को देखो,
देखो…. ग़ौर से
जीवन की हल्की ख़रोंच से
ऐसा कुछ
कभी संभव हो पाया है
दुखती है देह तो
इसकी ऑंखें देखो
ये सामाजिक पीड़ाएँ साधो!
दूर हटो
इससे ही पूछो!!
तीसरा आदमी
अंत चाहिए इसे
यह कहाँ दे पाएगी ज़वाब
खोजी की
बस चमकती हैं ऑंखें
चरम सीमा पर
चौथा आदमी
मुझे तो लगता है
यह एक अभ्यस्त ढोंग है
या फिर
इसके किरदार की जगह
नेपथ्य रही हो,
यह बाग़ी हो
या फिर अव्वल नकारा!!
पाँचवाँ : ज़वाब
केवल अपने ही शिल्प पर
ढर्रे पर ढर्रे बनते हो
दूसरे की आंशिक भी
आदत में नहीं
मेरे अपने..
केवल अपने हो तो कहूँ ना
यह तो तुम्हारे ही हैं
लेकिन इस चौथे शख्स ने
एक बात तो सही कही—
मेरा किरदार तय नहीं है
लेकिन मैंने अपने ढोंग तय किये हुए हैं
बिल्कुल तुम्हारी तरह…तुम सबकी तरह
यह मेरा वैविध्य विलाप
मेरे नहीं
तुम्हारे जीवन की प्रस्तुति है
और ये सामाजिक पीड़ाएँ
इनसे निकलने वाले
हरेक स्वर में
तुम्हारी ही छाप है
मुझे लगा पहला सवाल ही
समस्त बातों का हो जाएगा
जब तक इसने यह नहीं कहा— छुप जाओ!
छुप जाओ लेकिन किससे?
और अगर तुम्हें ख़ुद से
छिपने का तरीका आता है
तो छिपे रहो।
छिपने वालों के लिए
सारा दिन कच्चा
सारी रात काट खाने वाली होती है
मैं शुरुआत हूँ
चाहे नेपथ्य में रहूं
या चरम सीमा पर
मैं कोई खोजी नहीं
मैं तो हरदम तैरता ज़वाब हूँ।
२. और उनकी प्यास का क्या हुआ होगा
इन दिनों सनकमिज़ाजी बढ़ी है
बिल्कुल पेशेवर तौर पर
एक किताब हफ़्तों से दबाए रक्खा है
मुस्तक़िल कोई इरादा नहीं है
मैं बस उसके यथार्थ से ख़ूब दूर-दूर भाग रहा हूँ
उस किताब में ज़्यादा कुछ नहीं
बस पानी और कुछ प्यासों की मरने तक की दास्तानें हैं
संभवतः आख़िरी पृष्ठों पर
पपड़ीदार ओंठ लिए मरे भी मिलें
सोच रहा हूँ
जिन्होंने इस तरह
अतृप्तियों भरा कोलाज जिया होगा
वे आख़िर किन शब्दों पर हार माने होंगे
या वे किन-किन शब्दों पर जीते रहने का साहस जुटाते रहे
बहुत से वाक़ियात हम जीने के मामले में दर्ज नहीं कर पाते
अगर करते तो
दंग करने के लिए कोई
भीषण मय्यत हमारा इन पृष्ठों में इंतजार नहीं करती
वे हम जैसे ही एक नाम थे
उनके कलामों में हमारी ही भाषा थी
वे हमारी ही मिट्टी से ताल्लुक रखते थे
तो क्या हुआ होगा?
कैसे वे एक जीते-जागते किरदारों से
प्यासों में बदल गये
और उनकी प्यास का क्या हुआ होगा?
३. किसे पुकारा जाय
(एक)
यह भयभीत रोना रोने के बाद
बँधा आदमी ऑंखें मलने में समय जाया कर रहा था
अपने भोगे हुए यथार्थ की प्रमाणिकता लिए
अपनी देह घूम-घूमकर सबको दिखा रहा है
आदमी रुककर तमाशे देख रहा है…और थक चुका है
ज़ाहिर है जो इतनी हत्याएँ हो रही हैं
उनमें रोना कितना औपचारिक हो गया है
हरेक घर, गली, मोहल्ले, शहर में रोने वालों के भीषण स्वर
बिंब-प्रतीक, अभिधा-लक्षणा सब कुछ टाप चुके हैं
चिंतन के चित्र अभाव में अपनी सारी प्रस्तुति खो चुके हैं
निदान के सारे यत्न अनिष्टता में बदल चुके हैं
अनुभूति के सारे ज़रिए
केंद्र से भटक किनारे से गिर कर मारे जा चुके हैं….
सिर्फ़ आदमी को इस ख़तरे की आदत है… सिर्फ़ आम आदमी को।
(दो)
इसके बाद एक लंबा प्रश्नकाल लगता है
जिसके वाहक करोड़ों हैं
वे समग्र उठाए
सभी विशिष्ट जगहों पर
अतिसामान्य दृश्यों में पहुँचते हैं
अंधे-गुथे
वे नहीं जानते बोझ?
नहीं जानते कैसे आना है इससे बाहर?
(तीन)
एक अप्रिय उपस्थिति और उसका शोक
अब सिर्फ़ दिलो-दिमाग़ में कायम नहीं हैं
कोई भ्रम तब्दील नहीं हुआ है सच में
पहले से पटी पड़ी हैं लाशें
हम आत्मदम्भी हैं
सच नहीं स्वीकारते
जिस ओर न चल पाए, वहीं दिशाशूल
इस बेइंतहा सर्द में जब रक्त जमते जा रहे हैं
बग़ैर कोई नाम लिए सबको दोषी कहते हैं…और अपनी तरह का बचाव कर जाते हैं
यह कोई ठीक सवाल नहीं है कि किसे पुकारा जाय
यह कोई युग नहीं जहाँ चमत्कार होते हैं
विरोध की कौन-सी भाषा?
मेरे पास जो भाषा बची है इस समयानुसार केवल अपमानजनक है
किसी के आने की आशा करना, ख़राब नहीं!
बस इसकी लत ख़राब है…चट कर जाती है सारी हिम्मत
सारे डर भी डरावने नहीं होते
कुछेक अपने साथ एक गहरी साँस और दीर्घकालिक संतोष ले आते हैं..
मेरे पास स्वीकारने के लिए ढेर सारी पराजय है
एकानेक बार घुटने के बल पर बैठ समर्पण करता हूँ
इतनी संख्याओं में अस्वीकृत छूट गयी मृत्यु
मैं वो सारी मृत्यु अपने सिर लेता हूँ जो मेरे समय हुई
फूट-फूटकर रोने के साथ
उस आम आदमी की तरह जो चाहता था बचा नहीं पाया
जो तमाम प्रश्नों के बोझ अब सह नहीं सकता
यह भी नहीं कि मैं सही, मेरे रास्ते सही
लेकिन मैं किसी और को पुकारूंगा नहीं
मेरे लोग शोक में ही सही—मेरे पीछे आएंगे
मुझे बस इससे निकलकर बाहर जाना है…
४. आवाज़ें
(एक)
दो बेतहाशा और बदहवास दृश्य , जिनके आसपास एक नवीन खंडहर। जिनमें रह रहकर कंपकपी उठती रहती है।
उनमें इन दिनों इतना स्खलन लौट आया है कि और भी जीवन दब गया है,
जिस तरफ मोड़ो पैर—धँसा जा रहा है
कोई किले तो नहीं पर अवशेषों की जगह पूरी भरी हुयी
सूरज में गुब्बारे-सा किसी ने सुई कोंच दी, वो धीरे-धीरे एक ढलती दिशा में गड़ता और छोटा होता जा रहा।
एक भीगी ऑंख उसके साथ घूमते-घूमते अचेत हो गयी।
एक ज़ोर का रूआसा स्वर आया और झिंझोड़ता हुआ खिड़की से नीचे गिर गया। हाँफती हुई आवाज़ चुप होने के लिए एक ज़रिया अब भी तलाश रही…
(दो)
पर्दे से भी आधी पीठ खुली रह गयी। अकेलापन बग़ैर किसी लैम्पपोस्ट के मुझे बार-बार ढूँढ लेता..
चिपटा जाता है और उतने ही ज़ोर से, जितना ज़ोर पिछली बार लगाया था इसे हटाने के लिए
अब इसके बीच क्यूँ और क्यूँ खोजूँ  रास्ते?
थक गया हूँ ये कहते-कहते कि इस कु-यात्रा की कामना में मेरी डायरियों की साँस नहीं भरतीं।
रोज़ खटके सुनाई देते, रोज गूंगी संग साफ़ बोल लेने वाली आवाज़ों का अभिनय—सीधे-सीधे ज़वाब माँगती हैं..
मेरे तो सवाल भी इससे पूरी तरह अलग थे। मैंने मुकम्मल सवाल के मुकम्मल ज़वाब चाहे। अब इन सवालों के अच्छे भार हैं मुझ पर।
ये नींद की बुदबुदाहट में लौट आने वाले सच का क्या करूँ? इसके सुबूत कैसे जमा करूँ?
किसके सामने यह टेपरिकॉर्डर चलाऊँ? किसे मालूम है वो बीच का रास्ता?
सबके नुकीले दाँत मेरी तरफ हैं—इस दिवार पर अपनी आवाज़ संग चिपका रहूँ—अगले कई गाढ़े वसंत तक
ऋतुएँ  जब अपनी सरहद से आएंगी। मुझे देखेंगी या सुनेंगी—गल जाऊँगी
(तीन)
वह एकाएक गिरकर मर गया और उसकी पीड़ा, वहीं उसी समय में हवा के साथ झूल रही थी।
उसके ऑंखों पर फेरकर हाथ उसके पते की तलाश शुरू की है
मेरी ऑंखों ने जितना ॲंधेरा देखा , मेरे हाथों ने जितने रास्ते टोहे
सब का सब उसकी दो ऑंखों में मौजूद था
मैं अकेले कैसे सूना रहूँ, जबकि एक देह जो सुन्न पड़ी है
उसकी ज़वाबदेही कहीं ज़्यादा थी।
काम—शर्म और तानों से ज़्यादा बनते थे कभी, तो इसकी ऑंख आज़ खुलनी ही चाहिए
आख़िर कब तक मैं मूक दर्शक होने की पीड़ा झेल पाऊंगा। कब तक ये हवा उसकि आख़िरी कराहती आवाज़ को लीलती रहेगी।
अपनी हत्या और आख़िरी संबोधन के लिए इसे उठना पड़ेगा। और मुझे इसका पता भी तो पूछना है।
(चार)
चीखें तो लूप में उठ रहीं, जो कुछ भी फ़िलहाल चुप हैं, मुर्दा हैं
मुर्दा अपनी भाषा क्यों छिपाए या बोले या सुने
पेड़ भी कहे, आदमी भी कहे—दुःख ही दुःख…
एक रात तो त्रासदी होना तय ही था। उनका दुख इसीलिए भी वृहत्तर है क्योंकि उन्होंने इसके डर में झांकते रहने का काम किया
करना चाहिए था इसका बंदोबस्त, करते रहे इंतजार
ख़ाली हाथ बेग़ैरत बनाता रहा डर, कोई संकेत भी नदारद
क्योंकर बाज़ीगरी हाथ हो..
कान झनझना रहे हैं अब, सुन्न तो इस रात से पहले ही हो चुके थे
मुझे अब चीख़ों की आदत है…मेरी कोई भाषा नहीं।
(पाँच)
जब अंधेरा हो आता है, ऑंखें कुछ देख नहीं सकतीं। कई ऑंखें फूट पड़तीं….इस शर्त पर कि चलते जाना है
पैर के अंगूठे! तुम्हें ज़मीन की टटोल मुबारक!
कान तुम्हें हवा में तैरती-मरती-कराहती हुई आवाज़ें मुबारक!
मुझे मुबारक ये निषेध, जिसमें बहुत से रास्ते हैं
मैं और मेरे गली-मुहल्ले, आस-पड़ोस, देश-विदेश के निराश हताश आदमियों तुम्हें दुख मुबारक
इसमें जीवन के कलरव रंग हैं.. इसमें सुनने-जानने के लिए कई आवाज़ें हैं
इसमें चलते रहने के बुनियादी शर्तों का तोड़ मौजूद है।
५. विकसित पीड़ाएं
छूता हुआ स्पर्श ख़त्म होते हुए
जिस रोज़ आख़िर छूटा
मेरी आत्मा अपने तय किए हुए असहयोगों से भर गयी
ऑंसू फेनिल—एक हटाओ तो वेग में बढ़ते आते हैं
केवल अनुरक्ति से यह क्या-क्या पैदा होता जा रहा है मेरे अंदर
घाव महसूस नहीं होते।
जो स्वीकार किया उसे प्रेम भी किया
वृक्ष भी, नुकीले कॉंटे भी मैं।
केवल अपना देवत्व स्वीकारने की भूल
और उसके परिणाम दोनों देख चुका
अपने चहकते हृदय को निष्ठुर-बॉंधकर भी रख पाया
इसने मुझे समृद्ध बनाया
मैं प्रेम के साथ परिपक्व पीड़ाएं भी बचाकर रख ले गया
यह कड़ियां छूटती तो संभवतः सब भरभराकर टूट पड़ता
अब यह सयानी हो गयी हैं
इस तरह कि प्रेम भेद पाना मुमकिन है
पर यह पीड़ाएं दुर्भेद्य हैं
यह अकेली मेरी हैं केवल मेरी…
यह मुझे मुझसे ज़्यादा समझती हैं
यह मुझे अकेले भी अकेला नहीं छोड़तीं
क्रमशः उस समय पर लौटती हैं प्रबल
जब मैं फिर कोई गलती करने वाला हूँ
लगता था कि ये मुझे जीने नहीं देंगी
लेकिन अब यह स्वीकारता हूँ कि इन्होंने मुझे केवल दिया ही है
मेरे मामूली से प्रेम को अमर बना दिया है
मुझे दिनों-दिन इन पीड़ाओं से प्रेम होता जा रहा है.
६. विमुक्ति
कठिन सवालों पर
ढीले-ढाले ज़वाबों से काम चल रहा
कौन सोचे मरने की
क्यों लगे
यह बात बेतुकी और बेबुनियादी
जीवन में अनिवार्यता
जीने के लिए ही
पूरी तरह से नहीं मिलती
खुल्ली छूट के कुछ गंभीर रहे परिणाम।
मरना चाहे
तो आदमी इस चिंता में भी मर सकता है
कि उसकी नयी शर्ट पर
इस्त्री नहीं हो पायी
और अब उसकी सिलवटें
कलेजे में कभी भी चुभ सकती हैं
इतने अनिवार्य हैं दुःख
कि हर दूसरे रोने में
हम किसी को सरापते हैं
नींद से अनमने
बार-बार छूटने की कोशिश चलती रही
कैसे छूट पाएंगे
उस श्राप से
जिसे देने वालों की संख्याऍं
गणना में
दिए जाने वालों से
कई-कई गुना रहीं
पछतावे का विकल्प
अब केवल सुंदर परिकथाओं में बचा
इस काल में
मॉंगने से जो मिलता है
उसका वजन सीधा उस जगह चढ़ता
जहाँ मनाही है..
और..और
छीन लेना भी आधुनिक है।
ख़ैर, चंदन की महक चुकती
ईंधन से
देह से
वायु-सा छुटकारा मिलता
फैले दुर्दिनों से मुक्ति का योग
दुनिया ख़ुश हुई ही कब?
उनकी नाक में
चिपकते हुए
सबसे मूल्यवान इत्र
ठहरे ही कब?
उड़ती राख की दिशाऍं
सही पते तक ले जातीं
मैं कहूँ या तुम कहो
मैं कौन?
तुम कौन?
…अनवरत रहे
इस विराट कमरे के दो छोरों पर
क्यों ‘इन्हें-उन्हें’ छूने को गल रहे
दरवाज़े
क्यों नहीं आने देते नये-नये लोग
अकेले क्यों हैं उत्तरदायी?
ऋतुऍं क्यों हैं शुष्क?
क्यों हैं बंजर?
क्यों नहीं उखड़ पा रहे इस जड़ लगे ज़मीन से?
इस बीच टकराती है एक सुंदर रात
स्वप्नसहित।
मैं इससे निकल कर बढ़ रहा
अकेला-अकेला
हर्ष-मुद्रा, गर्वीला
जितने प्रतिउत्तर हैं—मेरे हैं
जितना भार था—हवा है
जिनकी मनाही थी—चुन रहा हूँ एक-एक निडर
मृगतृष्णा—मृगतृष्णा
अचानक सारी इच्छाएँ
फिसलती काई से सवाल में
उम्मीद परिवर्तित शंकाओं में
कौन सोचता!
किसी के साथ चलने से पहले
रुकना पड़ेगा
तो किसी एक को रुकना होगा—अकेले!!
मैं ठहरा कु-फैसले वाला।
हाँ! कई-कई बार आते रहे दिवा स्वप्न भी
जिनमें मैं खेलता नहीं
उस दृश्य में
मैं वो वस्तु हूँ
जिससे खेला जा रहा
फिर अकेलापन,
मैं चाह के भी
उस स्वप्न में
किसी प्रिय-उपस्थिति की
कल्पना नहीं कर सकता
इनके साथ
मरघटों के आसपास
दस-बारह सीढियों पर
चढ़ सकने की कामना लिए जा रहे मरूँ…
सोचता हूँ…
कहाँ-कहाँ नहीं मरा मैं
जबकि
मैं मरने से डरता
लेकिन
इस डर को
मारने के लिए
मरना भी चाहता
जीते-जी
इस तरह रहूँ
कि कोई भी
मेरा हाथ पकड़े
तो तैयार दिखे!
निराश अकेलेपन में रीता हृदय
गीत का गाते रहने का साथ
मरूस्थल की कामनाऍं
जीवन धधक सीमाओं के परे
फिर जीने को कहता;
मैं दोहराता
दादी की सुनायी हुई परियों की कहानी
जिसमें सब अन्त में
खुशहाल ही लौटते
रात्रि-स्वप्न के खुले आज़ाद सितारे
किसी श्राप में भी
रोज उगते-डूबते
फिर उग सकते हैं
हर बार
छूकर गलते ही नहीं रहेंगे
किसी रोज़ ज़ख्म भरने को अमादा हो आएंगे
ऋतुएँ साथ देंगी
हम बंजर उन्हें भी अच्छे नहीं लगेंगे
हम साथ चलेंगे
हर अनिवार्य दुःख में
हमारे पास संयुक्त उत्तर होंगे।
७. तय हत्याऍं
कितने पोस्टर बनाए कोई
कितने नाम याद रखे
कौन गिने इन्हें
किसे इतना समय कि इन विडियोज को पूरा देखे
निश्चित है मृत्यु
लेकिन उनकी कामनाएँ कौन ऐसी रखता है
किस श्रेणी के वे आदमी हैं
हैं या?
रात का घुप्प ॲंधेरा हो
या हो दिनदहाड़े
उगती सुबह हो या ढलती शाम
मृत्यु की भलमनसाहत देखिए
कि ढूंढ ही लेती है हमें
इस देश में
मरने की फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं
आप दक्खिन टोले से निकल कर
पूर्व-पश्चिम या उत्तर
किसी भी दिशा में मिलेंगे
और लापता हो जाएंगे
हमारी पीढ़ियों ने
श्रद्धांजलियों के सारे शब्द रट लिये हैं
लेकिन उसके कारण के
कोई शब्द ख़ोज नहीं पाए
मैं हर सुबह की तरह इस सुबह भी
अपने गाँव के मुहाने पर खड़ा
हर दिशा में देख कर सोच रहा हूँ
कि मेरे गाँव के
सारे स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े
सब काम पर गये हैं
कब कौन किस दिशा से प्यासा और मरा लौटे
किसे पता?
•••
नीरज हिंदी के सुपरिचित युवा कवि हैं।
इन कविताओं में उनके भीतर की प्रयोगात्मकता खुल कर नुमायाँ हुई है। मूर्त और अमूर्त के बीच चहलकदमी करती कविताओं का अपना एक द्वंद है जो समय से कवि के साक्षात्कार से पैदा हुआ है।
नीरज की इंद्रधनुष पर पूर्व-प्रकाशित कविताओं के लिए यहाँ देखें : 
एक विभाजन निरंतर होता जाता है | समय कविताओं को जीवित रखता है

