समीक्षा::
प्रभात मिलिंद
‘आँखें सूजी/चेहरा पानी था/वज़ूद था कि एक ज़र्बज़दा बूँद/मैंने रोने की तमाम वज़हें दी /तमाम वज़हें दी थीं बिखर जाने की/पर वह थी कि अब भी/जब्तशुदा/बहुत लाचार/ बहुत नाकाम/बदन काँपता ही रहा/सदियों से बेहिस आँधियों के थपेड़ों में/माथे पर फेरा दो चार बेबस हाथ/होंठ खोले और बंद किए/और मैं बस इतना ही कह पाया/”इससे अच्छा तो रो लो एक बार.”
(संग्रह की कविता ‘बेहतर है रो लो अब’)
अनुराधा सिंह मेरी प्रिय समकालीन कवियों में एक हैं. एक पाठक के तौर पर मैं विगत कई वर्षों से उनकी कविताएँ पढ़ता रहा हूँ. अपनी प्रखर काव्य-दृष्टि और सजग अभिव्यक्ति की पैनी क्षमता के कारण वह वर्तमान कविता-परिदृश्य में एक ताज़ा, ज़िद्दी, जुझारू और अविजित स्वर के तौर पर एक नई तीव्रता के साथ उभरी हैं. मेरी दृष्टि में अपने एकदम भिन्न और साफ़गो तेवर की वज़ह से वह अपने समय और समाज की प्रमुख प्रतिनिधि स्त्री कवि हैं, और अनेक अर्थों में निर्विकल्प भी हैं. भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सद्य प्रकाशित उनका पहला कविता-संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ मेरी इस पाठकीय अवधारणा की पुष्टि करता है. इस संग्रह की कविताएँ अपनी भाषिक स्थापनाओं, अंतर्वस्तु की धारदार नव्यता और तरल आनुभूतिक प्रस्तुतियों के कारण अरसे तक हमारी संवेदनाओं को अपनी ज़द में लिए रखती हैं. निश्चित रूप से अपनी पोएटिक इंटेंसिटी की वज़ह से ये विरल कविताएँ हैं.
विगत वर्षों में स्त्री-विमर्श के नाम पर हिंदी गद्य और पद्य दोनों में जो कुछ भी लिखा-रचा गया, वह कालांतर में विविध कारणों से किसी न किसी रूप में वैचारिक विचलन का शिकार हो गया. बहुत कम शेष रह पाया जो हमारी स्मृति का एक स्थायी हिस्सा बन पाने में सफल हो सका. अनुराधा सिंह उन गिने-चुने नामों में हैं जिन्होंने इस प्रतिगामी जड़ता को तोड़ने की दिशा में सार्थक और साहसिक पहल की है. ‘जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा/ दरअसल उन्होंने ही नहीं किया किसी स्त्री से प्रेम’ (पृष्ठ – 12 ; कविता – लिखने से क्या होता है) ये पंक्तियाँ कवि के वैचारिक चयन को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं.
अनुराधा सिंह की कविताओं का अपना एक अलग और विशिष्ट पाठक-समुच्चय है. हिंदी कविता के लिए यह एक महत्वपूर्ण बात है क्योंकि यहाँ एक स्त्री कवि की कविताओं को विमर्श-विशेष के तयशुदा जॉनर में धकेल देने की एक समृध्द कुंठित परंपरा रही है. अनुराधा सिंह का कवि अपने भीतर के मनुष्य और स्त्री के साथ-साथ गलबहियाँ डाले चलता है. यह श्रमसाध्य संतुलन उनकी कविताओं में स्पष्ट अनुभूत किया जा सकता है. कहीं किसी तरह की कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं, और न एक-दूसरे को अतिक्रमित करने की कोई आतुर-दुराग्रही प्रबलता ही. कविता-संग्रह का शीर्षक ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ प्रतीक रूप में कवि की पक्षधरता को भी रेखांकित करती है. जो लोग उनको निरन्तर पढ़ते रहे हैं वे इस बात को शिद्दत से महसूस कर सकते हैं कि उनकी काव्य-उपादेयता में कोई अंतर्विरोध और रचनात्मक वैचारिकी में कोई आंतरिक टकराव नहीं है. इन कविताओं की कोई वैचारिक आबद्धता प्रत्यक्षतः है भी नहीं लेकिन आप चाह कर भी इन्हें विचारों से असंपृक्त कर के नहीं देख सकते. इस नजरिए से ये केवल मनुष्य और उसके सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध कविताएँ हैं. स्त्री इस कविता में सायास शरीक़ नहीं हैं लिहाज़ा इन कविताओं को केवल स्त्री-विमर्श तक महदूद कर देना मुनासिब नहीं होगा. ज़ाहिर सी बात है कि औरत के हक़ की बात जहाँ-जहाँ और जब-जब उठेगी, वहाँ-वहाँ और तब-तब कटघरे में खड़ा शख़्स सँभवतः एक पुरुष होगा या फ़िर एक प्रेरक-तत्व के रूप में नेपथ्य में उसकी उपस्थिति अनिवार्य होगी. इस दृष्टि से ये कविताएँ विमर्श-बिंदु पर एकरेखीय नहीं मानी जा सकती हैं. बेशक़ इन कविताओं में प्रश्नों की आवृत्तियाँ हैं लेकिन अपने शिल्प, मुहावरों और विन्यास के कारण ये आवृत्तियाँ पुनरावृत्तियों में बदलने से बची रह गई हैं. मैं इसे कवि का भाषिक सामर्थ्य और उसके रचाव की परिपक्वता मानता हूँ.
कुछ लोगों के लिए मुखर हो पाना तभी संभव हो पाता है जब वे अपने भीतर के द्वंद्वों और तर्को से बेतरह और लगातार जूझते-टकराते रहते हैं. ख़लील ज़िब्रान भी ऐसा ही कुछ मानते हैं. संग्रह की सभी तेहत्तर कविताएँ अंततः अनुराधा सिंह के मनुष्य और तत्पश्चात स्त्री होने की उनकी पहचान से ताल्लुक़ रखती हैं और अंततः इन्हीं अंतरद्वंद्वों का हासिल भी हैं. अपनी रचनात्मक चिंताओं की व्याप्ति में ये कविताएँ इसलिए भी वैश्विक हैं कि इस पृथ्वी पर आज जो कुछ भी सहज, सुंदर और सकारात्मक है, उनके निर्माण में स्त्रियों ने पुरुषों से अधिक नहीं भी तो कम से कम उनकी बराबरी में स्वेद-रक्त ज़रूर बहाए हैं, और जोखिम तो बिला शक़ उनसे ज़्यादा उठाए हैं. लेकिन जब हक़ और बराबरी की बात आती है तो वही स्त्रियाँ आज भी क़तार के आख़िर में एक याचक-भाव लिए खड़ी मिलती हैं. धूप से लेकर हवा तक और रोटी से लेकर प्रेम तक ज़िन्दगी के तमाम ज़रूरी सामान उनको टुकड़ों में या फिर किश्तों में हासिल हुए हैं या दिए गए हैं. और, वह भी एक बोले-अबोले अहसान के प्राइस टैग के साथ.
ज़रूरत और हक़ दोनों पैमानों पर जब चीज़ें आख़िर में और बची-खुची मिलें तो ज़बान में तल्ख़ी आना न सिर्फ लाज़िम है बल्कि ज़रूरी भी है. कमतरी का यह अहसास इन पंक्तियों में अपनी पूरी त्वरा में प्रकट होता है – ‘दुनिया में हवा पानी कम/ बालकनी में धूप कम/ गमलों में मिट्टी गुज़ारे लायक/मुझे कम के पक्ष में खड़े रहना पड़ा है अब तक’ (पृष्ठ – 110 ; कविता – विरासत).
निःसन्देह इन कविताओं के रंग बहुत चटक और सुर्ख़ नहीं हैं, पोएटिक पिक्सेल से देखें तो इनके देखने-पढ़ने का सुख-बोध भी रेशम-रेशम सा नहीं है. मेरी पाठकीय दृष्टि में ये दुर्दम्य जिजीविषा, वांछित प्रतिकार और आदिम स्त्री-संघर्ष से संपन्न वे अनुभव हैं जिसे कवि ने हताशा और अवसाद की बजाए अपनी कविताई में चैनलाइज करने की अपेक्षित ज़िम्मेदारी के तौर पर स्वीकार किया है.
हिंदी कविता के परिदृश्य पर स्त्री-स्वर की भाषा में पर्याप्त स्पष्टता और उद्देश्यपरक विश्वसनीयता की अनिपस्थित में संघर्षशील आबादी के पक्ष में मुखर विरोध की ध्वनि दिन-बदिन कुंद होती जा रही है जबकि हमारे भविष्य की सभ्यता का वास्तविक आलम्बन यही है. ऐसे घटाटोप में अनुराधा सिंह के इस संग्रह से होकर गुज़रना इसलिए भी एक पाठकीय ज़रूरत है ताकि अपने इर्दगिर्द के समस्त अनावश्यक वैचारिक मकड़जालों और संभ्रमों को बेध कर हम कविता की दुनिया को देखने-समझने के लिए और उसके प्रति आश्वस्त और आशावान बने रहने के लिए एक पुख़्ता ज़मीन तक पहुँच सकें. एक सभ्य समाज का सत्ताविहीन होना एक संभ्रम है, और सत्ता शोषण की शर्तों और मानसिकता से मुक्त कदापि नहीं हो सकती. लेकिन समाज, सभ्यता और सत्ता के आख़िरी निशाने पर अनिवार्यतः एक स्त्री ही होती है. तभी तो अनुराधा सिंह का सतर्क कवि लिखता है – ‘आदमी बस उतना ही/ज़िंदा रहना चाहिए जितना हमारे भीतर है/उसके पहले और बाद के आदमी के/बारे में जानना ख़तरनाक है/जानते तो हो ख़तरनाक होते हैं मंच से किए गए वायदे/मान लो कि उससे भी अधिक ख़तरनाक है/भीड़ में खड़े आदमी के शब्दों पर विश्वास करना/हर अपराध संविधान में सूचीबद्ध नहीं हो सकता.’ (पृष्ठ – 32 ; कविता – ख़तरनाक है लौटना).
हम सबकी तरह उनका कवि भी इस सांघातिक और फ़रेबी समय का एक सशंकित निवासी है जो समस्त पारम्परिक, भावनात्मक और सांस्थानिक अश्वस्तियों में अपनी आस्थाएं खो चुका है, जिसके अनुभवों ने उसके अंतर की निर्द्वंद्वता और निर्भरता की निष्कलुषता को उसकी नाक के ऐन नीचे से अगवा कर लिया है और, जो प्रेम की निःस्वार्थ पवित्रता से लेकर संविधान में उल्लिखित अधिकारों और सुरक्षाओं को एक संदिग्ध लफ़्फ़ाज़ी भर मानता है. उनकी कविताओं के हर्फ़ दर हर्फ़ में यह चौकन्नापन नज़र आता है. इसकी बानगी इन पंक्तियों में देखी जा सकती है – ‘एक प्रेम का भी निर्माण किया था हमने/वह कहाँ गया भला/क्या तुम्हें भी बुरा लगता है/हमारी साथ-साथ बनाई सृष्टि में/यूँ अकेले-अकेले रहना.’ (पृष्ठ – 30 ; कविता – सृष्टि जो हमने रची). एक अन्य कविता में वह कहती हैं – ‘मैं कहती हूँ/बचा लो यह प्रेम जो दुर्लभ है/इस्पात और कंक्रीट की बनी इस दुनिया में/तुम बचा लेते हो अहम का फौलाद/दो काँच आँखों में एक पत्थर सीने में.’ (पृष्ठ – 38 ; कविता – बचा लो). आडंबर, निषेधों और शोषण की इस आदिम-संश्लिष्ट-सायास संलिप्तता की समग्र पड़ताल करने के लिए एक पुरुष पाठक को अपने अंतर्मन में शेष बची स्त्री की आँखों से देखना और उसी के मस्तिष्क से सोचना-समझना होगा.
इन कविताओं के मूल अन्तरस्वर और तेवर को सही-सही पकड़ पाना तभी संभव हो सकेगा. अनुराधा सिंह विद्रोह की कवि हैं लेकिन अपनी जैविक अस्मिता को लेकर कदाचित वह अतिरिक्त सजग नहीं हैं. उनकी कविताओं में स्त्री होने की शिक़ायत और अफ़सोस का प्रकटन शायद इसलिए भी अनुपस्थित है. इन कविताओं में न तो रुदन का स्वर है और न ही दृश्य होने वाले अश्रुकण. लेकिन हो सके तो इनको एक दफ़ा ज़रा छू कर देखिए, ये नम कविताएँ हैं. ‘हालांकि सीना-पिरोना साफ-सफाई और पकाने से/ज़्यादा/अनिवार्य विषय था/अप्रेम में रहना सीखना और सिखाना’ (पृष्ठ -97 ; कविता – अप्रेम). प्रकारांतर में यह ‘संस्कारित’ प्रेम के बहाने दासी बना कर ठगी जाने की शंका से आक्रांत और सचेत कविताएँ हैं. ‘निबाहना चाहते थे प्रेम, लड़कियाँ उनसे पूछना ही भूल गईं/लड़कियाँ उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं/जो उन्हें प्रेम करके छोड़ देना चाहते थे.’(पृष्ठ – 59 ; कविता – प्रेम का समाजवाद) या फिर, ‘इन सबसे बड़ा मसला/मेरा उसके प्रेम को हल्के में लेना था/और वह सिरे से ‘न’ कहना सीख रही थी.’ (पृष्ठ – 104 ; कविता – देगची में प्रेम) जैसे कवितांश इन्हीं आशंकाओं की अभिव्यक्ति हैं.
अनुराधा सिंह की काव्य-चिंता में में केवल स्त्री-जीवन का वर्गविहीन पीड़ा-प्रदेश ही नहीं अपितु एक प्रजाति के रूप में मनुष्य-जीवन के समस्त अगम्य दुर्गम अन्तरप्रान्तर हैं. वह मितभाषी कवि हैं और उनकी कविताएं उनकी रचनात्मक उर्ध्वयात्रा या अंतर्यात्रा का वृतांत हैं. इन कविताओं के बीजतत्व समाज और संबन्ध से सहेजे हुए हैं और अंतस की मिट्टी में रोपे गए हैं. इसलिए ये स्त्री-पुरुष, मनुष्य-समष्टि और समष्टि-सृष्टि के परस्पर संबन्ध-बोधों से निसृत-आर्द्र कविताएँ हैं. ‘यह पंद्रहवां माला मेरा नहीं उनका था/फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे’(पृष्ठ – 12 ; कविता – क्या सोचती होगी धरती) या फिर, ‘नदियाँ पहाड़ों से उतरी थीं/यह बात सरल नहीं थी/पहाड़ों ने उनके दुःख देख रखे थे/नदियाँ इसी लोकापवाद भय से घुल-घुल कर/क्षीण हो गईं/क्षीण होते होते लुप्त हो गईं/लेकिन पहाड़ के कपोल पर रह गए/वे शोकचिन्ह’ (पृष्ठ – 41 ; कविता – तफ़्तीश) में इन विवश ग्लानियों के अन्तरशब्द साफ-साफ पढ़े जा सकते हैं. संग्रह की ये कथ्य-विविधताएँ किंचित नए डायलेक्टिक्स के माध्यम से विमर्श की मौज़ूदा रवायतों की मुख़ालफ़त करती हैं. और साथ ही सर्जना के समक्ष उपस्थित प्रश्न, उनके अंतर्विरोधों और औचित्य से टकराने की कोशिशें भी करती हैं.
इस संग्रह की शीर्षक कविता ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ (पृष्ठ – 53) की चर्चा के बिना इस आलेख मैं अधूरा समझता हूँ. इस कविता में ‘नींद’ एक विलक्षण रूपक की निर्मिति करती है. इस सियार जैसे लोलुप और घात लगाए समय में ‘नींद’ स्त्री-जीवन में शांति और चैन की मनःस्थिति बन सकने के बजाए एक आसन्न आखेटक समय के प्रति उसे आगाह करती है. मनुष्य-जीवन में नींद एक निजी स्पेस है जहाँ वह ख़ुद का शारीरिक-मानसिक विरेचन करता है. अपनी नींद पर इख़्तियार खोने का सीधा मतलब है अपनी ही खुदी और ग़ैरत से बेदख़ल किया जाना. स्त्री-जीवन में नींद एक छलावा है. एक भ्रामक सुख, जो उसे उसकी अस्मिता से अटैच नहीं होने देता. कर्तव्यों की अपेक्षाएँ और देह का डर उसकी नींद में सबसे बड़े घुसपैठिए हैं. अपने समस्त संबंधों में स्त्री एक तुष्ट करने वाला उपकरण मात्र है — देह, ज़रूरत और भावना तीनों ही धरातलों पर. एक अपेक्षाहीन और सुरक्षित नींद स्त्री-जीवन का संभवतः सबसे बड़ा यूटोपिया है. कवि नींद से मिलने वाली ताज़गी और ऊर्जा की खुराक़ को ईश्वर में तलाशने की अर्थहीन मशक्क़त के ख़िलाफ़ है. ऐसी स्थिति में जब कवि ‘सद्दाम हुसैन हमारी आख़िरी उम्मीद था’ (पृष्ठ – 49) नाम की कोई कविता लिखती है तो वस्तुतः वह अपनी पूरी पीढ़ी की स्त्रियों के विकल आक्रोश की भोथरी आवाज़ को एक पैनापन दे रही होती है.
स्त्री के संदर्भ में मनुष्य की सभ्यता में अंधकार-समय हमेशा से उपस्थित रहा है. इतिहास की क्रूरतम हिंसाएँ स्त्रियों के विरुद्ध हुई हैं. बस इन हिंसाओं में रक्त के सूख चुके धब्बे हमें कहीं नहीं नज़र आते. ये धब्बे अपनी क्लीषे के बाहर ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ की कविताओं और ऐसी लिखी दूसरी कविताओं में ज़रूर देखे जा सकते हैं अनुराधा सिंह अपनी बेहद बारीक़ काव्य-वक्रोक्तियों और आमफ़हम मुहावरों से प्रिमिटिव सामाजिक-वैचारिक स्थापनाओं से मुठभेड़ करती हैं, लेकिन इस प्रयास में कविता के आर्किटेचरल इथोज से समझौते नहीं करतीं. यह संग्रह अपने अलहदा काव्य-बोध, शिल्प और भाषिक प्रयोग में ये कविताएँ एकदम सधी-कसी हुई हैं. कई कविताएँ अपने अन्तरस्वर मे एक जैसी हैं लेकिन अपने अंकन में वे प्रकार-बहुल हैं. इनकी समसामयिकता में क्षय नहीं दिखता. भाषा की सांद्रता और दृष्टि की स्पष्टता इनको एक कोलाहल बनने से रोकती हैं. ये एक बेचैन मौन की तरह पढ़ने वालों के मन मे अपना स्पेस बनाती हुई उतरती हैं और एक -भंगिमा और भाषिक अनुशासन की दृष्टि से हालिया दिनों में लिखी किताबों में एक सशक्त और आवश्यक हस्तक्षेप के तौर पर एक इस्तेकबाल के काबिल किताब है. इसे पढ़ा जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि इनमें दर्ज़ कविताएँ एक करुण पीड़ा से निसृत हुई हैं लेकिन आख़िरकार उसी पीड़ा के पक्ष में खड़ी भी हैं.
[ अनुराधा सिंह कवि हैं. उनका कविता संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ पिछले साल बहुत चर्चा में रहा.
प्रभात मिलिंद कवि, कहानीकार और समीक्षक हैं. उनसे prabhatmilind777@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.]