कविताएँ ::
ज्योति शोभा
निर्गुण का राग
अत्यधिक दूरी है कलकत्ते से उसके शहर की
इसलिए वह भेजता है मेघ , काले और घने
जैसे उसके रोम है वक्षों पर. मैं यह बात साफ़ कहती हूँ
उसके दूत से , दुनिया को छलने में निपुण हुए हैं कवि
कैसे होगा वह , जो लिखना नहीं जानता एक शब्द भी.
निर्गुण का राग ऐसा होता है जिसे वही सुनता है
जो उबर आया हो प्रेम के जल से. मुझे भय करना चाहिए फिर
कुछ दिवस से रात्रि भर बोलते हैं स्वप्न के शुष्क फल और कबीर सुनती है देह.
बेर भेजता है जो उसे पता है कलकत्ते में कुचल जाते हैं
रस से भरे दोने , गीले हो जाते हैं उर जरा सी बृष्टि होते.
जैसे बेर में दांतों के पड़ते हैं वैसे ही चिन्ह पड़े हैं मणिबंध पर,
दिन बीतते गाढ़े होते हैं.
चाहे तो खींचता रहे छवि , चाहे तो मर जाए किसी पुरातन हवेली के गिरने से
मुझे क्या परवाह है ! इतनी दूरी से कहाँ खबर होती है उसे
जब सुई धंस जाती है पोरों में , एक बूटे पर उसका नाम टांकते हुए !
मेघ के दूत होने का चलन होगा किसी ज़माने में.
चूल्हे की आंच में गिरता है अदहन अगर उसकी सुनूँ
आखिर कल्पों बाद कौन सिखाता है चुम्बन की विधा
फाल्गुन की शीतल बिरखा के बहाने से !
ऐसा प्रेमी कवि नहीं हो सकता
मिथ्या रोग की लालिमा
और प्रेमिका की कामना को लिखे
ऐसा प्रेमी कवि नहीं हो सकता –
सवा रूपये का भोग पकड़ाती , धोती में गाँठ कसती
कहती है चारुलता ,
जो उजागर कर दे मेघ की पीड़ा
वह भी मल्लाह हो सकता है कवि नहीं.
ज्वार चढ़ता था जकड़ी पीड़ा पर
वापस करने उठी दर्शनशास्त्र की पोथी ,
इतने में काट दिया दृश्य निर्देशक ने.
सत्यजीत राय की फिल्म में उसकी जिह्वा के लिए
इतनी ही तुष्टि लिखी है
सन्दर्भ सहित अनुराग उजागर करने और कितने फिल्मकार आये
कितने ही लेखक जिनके दर्पण में सीपियों के परदे थे
सुबोध घोष ने इतनी छूट जरूर दी थी नायक को
शिराओं का वर्ण बता सके जब पाल की तरह फड़फड़ा रहे हों ओंठ
शाखा पोला , सिन्दूर के अलावा अनसुने संगीत जैसे
नायिका का ह्रदय भी खोल पाएं
कवि चाहे न हो सकें.
जात्रा
अभी बहुत दूर निकल आयी हूँ
बहुत करीब रेल की पटरियों पर देखती हूँ
जंगली फूलों की कंपन
देर तक नहीं गुज़रती है कोई रेल
पसर पसर कर उड़ती धूल लिपटती है मुख से
कौन नहीं जानता
ऐसे ही बिछोह लिखे हैं यूनानी कवियों ने
जैसे माछ की बहंगियों से ताम्बई धूप चिलकती है
किन्तु कहीं अस्पताल में है कोई खांसता कंठ
कवि होने के प्रमाण दे रहा है
देखा है जात्रा में
भिन्न चित्रों में भिन्न दिखने की विधा
यहाँ कलकत्ते में
दूरी पर हैं देवी के दो मंदिर
दूरी कहती हूँ तो कल्पना ज्यादा जगह लेती है
पहली खेप में
चार पीले फूलों की माला और एक कविता बेचने निकली
आवाज़ का आतुर आग्रह
तैरने की कोशिश में डूब रहा है
उमड़ने की सीमा है रंग में
दूर गिरते तिमिर में आकुल गंध है
सीमाहीन ..
मैं शायद दूसरी खेप का आमंत्रण हूँ
हो भी सकती हूँ
इस सिहरती ऋतू में जीवित
नहीं भी हो सकती हूँ .
***
ज्योति शोभा सुपरिचित कवि हैं और लगातार लिख रही हैं. उन्होंने अंग्रेजी में स्नातक किया है. इनके दो संग्रह “बिखरे किस्से” और “चांदनी में श्वेत पुष्प” प्रकाशित हैं.