कविताएँ ::
आसित आदित्य
1. अपनी तुच्छता का बोध (?)
बहुत सारे लोग थें
जीवन में
बहुत सारे वनस्पति
विविध प्रकार के
जंगल में
जंगल में लगभग
हैं सब बचे हुए
जीवन में
बहुत–बहुत कम
मैं
जंगल
नहीं
था।
2. तमाशाबीनों को देखता तमाशाई
वो
मरा
अकेले
महज़
डोलते पँखे की
खटर–पटर थी
सड़ी लाश से जब
दुर्गंध उठी
दरवाजे पर भीड़ जुटी
भीड़ को
था विश्वास
वे
अकेले
नहीं
मरेंगे
और यदि मर भी गए अकेले
तो नहीं सड़ेंगे।
3. तुम्हारी असफलता या मेरी?
मैं
नदी के पास
गया
वो वैसी ही थी
हू–ब–हू
जैसा मैंने उसे
जाना था
पेड़ उतने ही हरे थे
जितने की
की थी कल्पना
सुबह–सवेरे
ओस की बूँदें
उतनी ही
चमकदार
जितनी देखी थी
तस्वीरों में
मैं
लोगों के पास गया
और जाना
लोग
नहीं थे
नदी, पेड़ या ओस।
4. राजनीति
धरती पर
नदियाँ कम थीं
नदियों में
पानी कम था
पानी में
मछलियाँ कम थीं
कहाँ गईं
अधिक मछलियाँ?
कौन
दोषी उनका?
धरती?
नदी?
या पानी?
5. शाम साढ़े पाँच— घर लौटती लड़की
(१)
तुम्हें है दुःख
कि बिछड़ जाएंगे हम
कि छूट जाएगी
ये कच्ची सड़क
किनारे
धान के खेत
और खेतों के बीच
उकड़ूँ बैठा ये माटी का टीला
(जहाँ हमारे चीन्हें
चार तलुओं के निशान हैं।)
परन्तु
यूँ भी तो सोचो,
मिस राजदान!
कि हम जाएंगे जहाँ
वहाँ भी तो होंगे हम
मिलेंगे!
हम
गुप्त डाकिए होंगे
हम
गुप्त पहरुए होंगे
हम
गुप्त सलाहकार होंगे
और किसी रात
चाँद की ढिबरी के उजियारे—
छत के किसी ओट में
हम देखेंगे
हमारे चेहरे पर
हमारी साँसों को टूटते–उधियाते
हमसे दूर
बहुत दूर
खेतों के बीच
सिवान में
माटी के टीले पर
गाँव से छुप–छुपाकर
लजाकर
मेरे सीने में
धँसाओगी तुम
जंगली किसी फूल–सा
खिला
चेहरा अपना
(२)
विदा की साँझ—
गाँव के मंदिर के पीछे कहीं
हमारे होने से बहुत दूर
धान के खेतों की अंतड़ियों में
बूझ रहा था सूरज
कच्ची सड़क—
गुलाबी साइकिल तुम्हारी
स्याह मन से तुम
दोनों थीं संग–साथ
किसका राह तकती थी,
मिस राजदान?
जग जानता है
और जग ये भी जानता है
कि वो नहीं आया
नहीं ही आया
तुम्हारी कलेवा बँधी दाहिनी कलाई नहीं पकड़ी
तुम्हें आख़िरी दफ़ा नहीं भींचा
तुन्हें आख़िरी दफ़ा स्वयं से चिपका नहीं लिया
लेकिन केवल वो जानता है
और इसलिए है कहता :
वो नहीं आया
इसलिए नहीं कि उसे तुमसे प्यार नहीं था
बल्कि इसलिए कि
बहुत था।
(३)
ओस से भींगी एक सुबह
ओस से भीगे तिराहे पर
ओस से भीगी एक बस
मुझे कहाँ
किन–किन से दूर ले जा सकती है,
मिस राजदान?
दुआरे खड़े बर से
धान के खेतों से
छोटे–छोटे गड़हो से
पियराए पानी से
छोटी मछलियों से
बिन बिजली वाली रातों से
टिमटिमाते तारों से
दोस्त से, दुश्मन से
घर से, परिवार से
मेरी गंवरई से
चबाए पान बाहर से
तुमसे?
जाते–जाते मैंने जाना है
कि बाजार के तिराहे पर खड़ी
ओस नहाई एक चौकोर बस
जिसके छिनार कंडक्टर का बायाँ हाथ
है लकवाग्रस्त
मुझे मुझसे दूर ले जा रही है,
मिस राजदान।
(४)
सुबह के तीन :
यहाँ पपीहा नहीं गाता
सुबह–सवेरे
मंदिर पर नहीं बजता
हनुमान चालीसा
आसपास कोई मस्ज़िद नहीं
कि तंग गलियारेनुमा जीवन में
आशा की तरह गूँजे आयतें
यहाँ सितारे
एक घिनौनी साज़िश के तहत
भेज दिए गए हैं छुट्टी पर
सूरज खेतों में नहीं उतरता
बल्कि सहमा–सा
ले लेता है पानी की काली टंकियों का ओट
इसी नगर के
पेलम–पेल में
है एक कमरा मेरा
मेरे कमरे में
किताबें हैं
सरकारी रजिस्टर है
क्लासिक एडवांस का धुआँ है
खैनी की लाल डिबिया है
तुम हो!
कहो,
मुझ बिन
कैसा लगता है,
मिस राजदान?
(५)
जिस तालाब में मछलियाँ
थीं छोटी
उसमें चाहे थे भिगोने हमने
दो जोड़ी पाँव अपने
ईंट के भट्ठे पर
जब सो जाती है
दुधमुँहे बच्चे को
दूध पिलाते साँवली मजूरन
तब हम हल्की तपती राबिश पर
तपते हुए
गिनना चाहते थे तारे
सरसों के खेत प्रिय थे हमारे
सो हमने
सिवान की भूतही झोपड़ी में
चाहा था
संग–साथ मर जाना
दर्शन की किताबें मौन हैं मेरी
कविताएँ बना रही हैं फंदा
ज्ञान का आज मैं हत्यारा हूँ
तुम बताओ
खुली आँखों के ख़्वाब
मूँदी आँखों की दुश्मन
शीतल बूँदें
जलते शोले
और कामनाएँ
क्यों बन जाती हैं पाप,
मिस राजदान?
***
आसित आदित्य कवि हैं, वे गाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश) के रहनेवाले हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, पोर्टलों में उनकी कविताएँ एवं अनुवाद प्रकाशित हैं। उनसे aasitaditya@outlook.com पर बात हो सकती है।
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