कविताएँ ::
मनिषा झा
जिंदा हैं हम
कौन सोचता है, चाँद का घटना-बढना?
किसे इतनी फुरसत है
जो नापे चाँद की लंबाई?
क्यूँ नहीं सोचेंगें हम चायपत्ती कितनी बची है घर में,
फिर कब मंगानी है
क्यूँ नहीं यह सोच लें कि इस चार कमरे और एक छत की किश्त
अभी तक कितनी चुकाई और
कितनी चुकानी बाकी है।
कभी देखा करते हो
बगीचे में खिल रही गुलदाऊदी के फूलों का रंग
क्यूँ हल्का है आज?
कभी सोचा है गुलाब की कलियाँ जब खिलीं
उसने सबसे पहले क्या देखा?
क्यूँ देखेंगे हम?
कौन देखता है?
हम किसी ट्रैफिक सिग्नल पर खड़े
ये नहीं देखेंगे कि;
आज लाल बत्ती-हरी होने में दस सेकेंड ज्यादा वक्त ले रही है।
सड़को पर गड्ढे कौन देखता है?
कौन देखता है उनमें भरा स्थिर जल
और रंगे हाथों पकड़ता है,
सूरज को झाँक कर उसमें अपना चेहरा देखते हुए?
क्यूँ नहीं हम देखा करेंगें
उन दस मिनटों में अपने चेहरे पर उभरती उम्र की रेखाएँ।
कौन सोचे
चाँद कब कहाँ दिखा था अंतिम बार?
क्यूँ नहीं याद रखें, दरजी के पास दिये हुए हैं,
दो जोड़ी कपड़े पिछले हफ्ते
जिन्हें लाने जाना है आज शाम।
दुनिया बहुत खुबसूरत है; लेकिन
कौन सोचता है दुनिया क्या है?
कौन याद रखता है दुनिया का खुबसूरत होना?
हम याद रखते हैं त्रासदियाँ,
हमें याद है विश्व युद्ध का काला दिन और
हिरोशिमा और नागासाकी पर गिरे हुऐ बम।
हम याद रखते हैं,
छत पर सूख रहे अचार की बरनी से
धूप अभी खिसक गई होगी।
कौन ध्यान रखता है अपने आंगन बहार का यूँही चले आना,
हम देख रहे होते घड़ी की भागती सुईयाँ
बीतते हुऐ चौबीस घंटे,बदलते हुए सातों दिन
हम कब याद रखते हैं,
कि हमारी साँसें भी चल रही हैं
दिल धड़क रहा है बहत्तर बार,
कब याद रखते हैं कि हम भी जिंदा हैं।
ईश्वरों की किस्मत
मैं उन दोनों ईश्वरों की भेंट कराना चाहती हूँ,
एक जिसने बनाया है
गुब्बारे खरीदने वाला बचपन,
और दूसरा वो जिसने बनाया है
गुब्बारे बेचने वाला बचपन;
मैं देखना चाहती हूँ ये दोनों ईश्वर कैसे दिखते हैं?
एक ईश्वर होगा फटे दरारों वाले खुरदुरे हाथों वाला
दुसरे के हाथ होंगे सुंदर, कोमल, सफेद।
मैं चाहती हूँ दोनों ईश्वर मिलें
जैसे मिलते हैं ये बच्चे
और जताते हैं अफसोस अपनी अपनी किस्मत पर।
ईश्वर
एक दिन कई लोगों द्वारा सुना गया ईश्वर आयेंगे आज उनके घर।
बच्चे सोच रहे हैं
कोई गुब्बारे वाला आएगा
या सिर पर टोकरी में मिठाई लिऐ कोई बूढ़ा
नुक्कड़ वाले धोबी की नई नवेली दुल्हन सोचती है
ईश्वर कोई चुड़ियाँ बेचनेवाला वाला है
रंग बिरंगी चुड़ियाँ लाएगा
दो चोटी वाली लड़कियाँ सोचती हैं
ईश्वर उनका प्रेमी होगा जो रचेगा गीत उनके लिए
बुजुर्गों ने भी सुना
उन्होंने सोचा बद्री-कैलास से कोई आएगा
और आँखें मूँद सिर झुका लिया।
औरतों ने सुना तो हँस कर कहा “ईश्वर!
अभी तो खा के गए हैं आराम को
तभी तो हम जूठन खाने बैठी हैं।”
प्रेम
प्रेम किसी उपलब्धि की तरह कभी नहीं आया जीवन में
प्रेम आया एक घटना बन कर और हम ने देखा “अरे ये कैसे हो गया!”
यह आया किसी अजनबी की तरह, टकराया, हमने भी हँस कर कह दिया, “माफ कीजिएगा।”
प्रेम नहीं हुआ किसी आयोजन की तरह शुरू, रस्मों रिवाजों के साथ।
यह हुआ, जैसे मुँह अंधेरे कोहनी में लग गई हो कोई चोट; पूछने पर कहा हमने “अरे नहीं लगी” यह
कभी कोई अज्ञात रोग बन कर आया, लोगों ने हमें बताया “अरे तुम्हें नहीं पता, तुम प्रेम में हो”।
प्रेम नहीं हुई नौ से पाँच की ड्यूटी
यह था रात के ढाई बजे नींद खुलने पर लगी प्यास।
इस में नहीं लिखी जा सकी कोई कविता, इस में सुनाए गए थे चुटकुले।
प्रेम, प्रेम बन कर नहीं आया कभी, ठहाका बन कर फूट पड़ा।
इसने नहीं बनाया हमें जिम्मेदार, इसमें हम हुए थोड़े अधिक लापरवाह।
प्रेम नहीं उगा, खाद पानी से सिंचित हो सुंदर पौधा बन कर
यह तो खर पतवार की तरह उगा, और लतिकाओं की तरह फैल गया।
प्रेम नहीं होता किसी पुरातन संस्कृति की कोई विधा
यह होता है एक नया अनसुलझा रहस्य।
प्रेम का मौसम
हमारा प्रेम,
सूर्य की परिक्रमा करती हुई
पृथ्वी की उसी कक्षा सा निर्धारित है,
जिसमें चलते हुऐ कभी तुम मुझे बेहद पास मिलोगे
तपूँगी मैं तुम्हारे प्रेम में,
तो कभी तुम इतने दूर होगे
कि तुम्हारी मुठ्ठी भर उष्मा को तरस उठूंगी।
मैं रुकूँगी नहीं, प्रेम का मौसम बदलेगा।
मनुष्य
मुझे होना था ऐसा
कि मैं शीतनिष्क्रिय हो जाऊँ
उन्हीं अनियततापी जंतुओं की तरह
जो मौसम की मार नहीं झेल पाते
और अवसन्न हो जाते हैं,
निकलते हैं फिर ग्रीष्म ऋतु में नया चर्म धारण कर।
मगर मैं हुई एक मनुष्य।
मनिषा झा की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह मूलतः दरभंगा (बिहार) से हैं और उन्होंने जे.डी. विमेंस कॉलेज, पटना में अंग्रेज़ी (स्नातक) की पढ़ाई की है। उनसे 3.manishajha@gmail.com पर बात हो सकती है।