पाठ ::
प्रभात प्रणीत
हमारे दर्शन, यथार्थ और स्वप्न स्वाभाविक तौर पर हमें, हमारी मनःस्थिति को अपने बस में रखते हैं, हम इनसे उलझते हैं, प्रेरित होते हैं, संघर्ष करते हैं. एक हद तक हमारा संपूर्ण अस्तित्व इस प्रक्रिया की ही परिणति है. दुर्भाग्य यह है कि हम इसके प्रति ईमानदार नहीं रह पाते और खुद को खुद से ही छुपाते रहते हैं, बचने और बचाने की कोशिश करते रहते हैं. लेकिन कवि इस किताब में अपनी चेतना और संभावनाओं के मकड़ जाल के उलझनों के प्रति पूरी ईमानदारी बरतते हुए स्व, आबोहवा और संपूर्ण वर्तमान को सामने लाते हैं. वे न सिर्फ इनको ढकने वाले खूबसूरत आवरणों को हटाते हैं बल्कि उस सत्य को निःसंकोच उजागर करते हैं जिसकी प्रकृति चाहे जितनी भी कड़वी, असहनीय क्यों न हो. और तभी साफ शब्दों में कह पाते हैं—
भाषा में क्रांतिकारी बने
भाषा में देशभक्त
हुए भाषा में सभ्य
जो पीछे छूट गये थे उनसे किया भाषा में न्याय
किया भाषा में अन्याय का प्रतिकार
यहाँ तक कि, प्रेम भी किया तो भाषा में ही
रोज मर रही दुनिया और हमारे मुँह चुराते, भ्रमित, खोखले व्यक्तित्व के संबंध में कवि का यह अवलोकन इस हद तक स्पष्ट हैं कि यह हमें झकझोर देता है. स्वाभाविक है इस प्रक्रिया में उनकी दृष्टि से कुछ भी छूटता नहीं, बचता नहीं. वे अंतिम उपेक्षित अक्स तक को टटोलते हैं जिसकी पीड़ा की जिम्मेवारी कमोबेश इस पूरी आधुनिक सभ्यता पर है. इसी क्रम में वे कहते हैं—
माताएं रोएंगी पुत्र के लिए
पुत्र, पिता के लिए
प्रेमिकाएं, प्रेमियों के लिए
और पत्नियाँ, पतियों के लिए
पर कोई नहीं रोएगा
भगदड़ में छूटी हुई उन चप्पलों के लिए.
कभी किसी समय, काल में हुए किसी एक व्यक्ति का पतन धीरे-धीरे कैसे पूरे समाज और वर्तमान का पतन बन गया इस पर शायद ही हमें विमर्श का मौका मिला हो, या फिर हम सबने अपनी-अपनी सुविधाओं के अनुसार जानबूझकर इसे अनदेखा किया है. कवि साफ शब्दों में इसे स्पष्ट करते हैं—
वैसे लोगों को जब पता चला
देश में तेजी से फिसलती जा रही हर चीज
तमाम नियम-कायदे, मूल्य, परंपराएं,
सच-झूठ, शब्द-वाक्य
यहाँ तक कि समाजवादी सपने से फिसलते
हम डूब रहे पूंजीवाद के महासमुद्र में
यानी कुल मिलाकर फिसलना हमारे समय का
महत्तम समापवर्तक है
अचानक वे सम्मिलित हो जाते हैं वैसे लोगों की भीड़ में
जो सुबह-सुबह पढ़ता अख़बार
रात में टेलीविजन पर सुनता है पंडित-मुल्लाओं की बहस
अपने देश से करता है प्यार
और ठगा हुआ जीता है पूरे का पूरा जीवन.
आज व्यक्ति की निरीहता, निरर्थकता और वर्तमान के विरोधाभास इस हद तक दृष्टिगोचर हैं कि इसे अब नजरअंदाज कर देना ही यथार्थवादी मुहिम का सबसे बड़ा संबल बन चुका है लेकिन ऐसा करना पूरी मानव जाति के साथ धोखा है क्योंकि यह कतई प्राकृतिक नहीं है, और न ही यह मनुष्य के स्वभाव का मूल तत्व है. इस पर बार-बार प्रश्नचिन्ह खड़ा करते रहने की आवश्यकता है, आलोचना के रूप में नहीं बल्कि चिंतन के रूप में और तब ही किसी बदलाव की अपेक्षा की जा सकती है. कवि व्यक्ति की इस निरीहता और वर्तमान के विरोधाभासों को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहते हैं—
रामबदन लौटा है धाम में जल-भुन
पसीने से थक-बक अगिया बेताल बन
चार कट्ठा खेत, जोत-जात कर
जैसे कि किला पर झण्डा गाड़ कर
और यह भी कहते हैं—
‘दो कौड़ी का आदमी’
यह एक मुहावरा भर नहीं है मेरे दोस्त
एक घाव है आदमी के देह पर आदमी का दिया
जो रिस रहा सदियों से.
व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर मनुष्य के पतन, विरोधाभास के इसी विश्लेषण के क्रम में अपनी एक कविता में कवि कहते हैं—
इससे ज्यादा क्या हो सकती शत्रुता
कि एक-दूसरे से मिलते रहे
ताकि देख लें कभी न कभी
एक-दूसरे का पतन
आधुनिक युग की तमाम विसंगति, परिणाम, वेदना और अवमूल्यन का एक कठोर स्वरूप एक समय विश्व की पौराणिक हिंदुस्तानी सभ्यता का सबसे बड़ा स्तंभ रहा गाँवों का नष्ट होना भी है. इस आर्थिक युग ने सबसे ज्यादा क्षति यदि किसी एक आधार को पहुँचाई है तो वह यही है. गाँवो का इस तरह चुपचाप नष्ट होना सिर्फ इन गाँवो की हार नहीं है बल्कि पूरी सभ्यता, मनुष्यता की हार है, मूल स्वभाव, सुकून, सहजता, निश्चिंतता की हार है. इस किताब में कवि ने अपनी कई कविताओं में हमारा ध्यान इस तरफ़ ले जाने की कोशिश की है. बिहार के एक गाँव में जन्में और प्रारंभिक जीवन वहीं व्यतीत करने वाले कवि के लिये इस पीड़ा का वैयक्तिक हो जाना स्वाभाविक ही है, और यह उनके शब्दों में दिखाई देता है—
आँचल से आँख-मुँह पोंछते
निकलती है एक बूढ़ी औरत अनमने
जैसे कोई निकलता है कारागार से सजा पूरी होने के बाद
कि अब बाहर क्या धरा है
और बताती है, कोई नहीं है घर में
धनेसर रहते गुजरात
चनेसर पंजाब
और रहे-सहे बड़कू रमेसर भी रहने लगे बाल-बच्चा संग दिल्ली
एक कविता में कवि कहते हैं—
गाँव का दक्खिन अभी भी अदेख
रोपनी-सोहनी जैसे काम छोड़
शेष दिन उसे कहाँ माना जाता गाँव !
कवि की नजर गाँव के हर उस पतन और विकृति पर है जिनका होना ही सारी कहानी खुद कह देता है, पीड़ा की बानगी बन जाती है—
बूढ़े रहे नहीं, बच्चे हुए जवान,
बदल गया बहुत कुछ
और उसी बहुत कुछ के साथ
मिट्टी में मिल गया पोखर भी
कहते हैं रामबली काका
ठोकवा लिए रामचंदर बाबू उसी पर मकान
झिरकुटिया माई कहती है
बबुआ, आदमी का वश चले तो
सुरूज भगवान पर बनवा ले दालान.
यह पूरी किताब एक व्यापक संदर्भ में लिखी गई है जिसके एक छोर पर पूरी सभ्यता है, इसकी विभिन्न घोषित-अघोषित, प्राकृतिक-कृत्रिम इकाइयां हैं तो दूसरे छोर पर व्यक्ति है जिसने यह सारा विध्वंस रच डाला है, एवं जिससे पीड़ित भी वह स्वयं ही है. और इसके केंद्र में है वह पृथ्वी जो मूक है लेकिन जिसका ही सबकुछ है. कवि कई बार इसी मूक पृथ्वी की भाषा बनते दिखते हैं तो कई बार कवि की वेदना पृथ्वी की पीड़ा बनती दिखती है. इस किताब को यह संबंध और संवाद ख़ास बनाते हैं. विभिन्न कविताएं इनके इर्दगिर्द हमें रोकती हैं, महसूस कराती हैं, प्रश्न करती हैं और विवश करती हैं कि हम इसके उत्तर ढूँढें, इसका विश्लेषण करें, और यही इनकी सबसे बड़ी विशेषता एवं इस किताब की सार्थकता है.
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प्रभात प्रणीत कवि-कथाकार हैं. उनसे prabhatpraneet@gmail.com पर बात हो सकती है.
सुंदर आकलन।
मनोयोगपूर्वक लिखी समीक्षा।