कविताएँ ::
आदर्श भूषण
युद्ध से पहले
इबादतगाहों में―
सजीव प्रार्थनाएँ थीं
ईश्वर के पास नहीं थी करुणा
दफ़्तरों से―
जा चुके थे खटुआ कर्मचारी और
ग़ायब हो गया था एक रोज़नामचा
हाज़िरी की फ़ाइलों पर
पुस्तकालयों में―
दीमक चाट चुके थे
इतिहास और भूगोल की किताबें
घरों में―
भय घुस रहा था धीरे–धीरे
अलविदा की उलझी हुई बड़बड़ाहट के साथ
एक बच्ची ने अभी–अभी पूछा था सवाल
अपने फ़ौजी पिता से―
पिताजी! युद्ध में क्या होता है?
युद्ध के दौरान
चीख और शोर के बीच
फटा था कोई बम
वह विस्फोट या धमाके से बिल्कुल अलग
हत्या का कोई बेरहम गीत था
एक मुर्दा उठा और
अपनी क़ब्र के पास से गुज़रते
किसी विदेशी सैनिक से पूछा―
समय क्या हुआ है?
क्या युद्ध अभी भी चल रहा है?
युद्ध के बाद
इस्पात उग आया था
खेतों के पाट पर
मसान और क़ब्रें बढ़ गईं थीं
आबादियों के बीच
लोग भूल–भूल जाते थे
रास्ता―
इबादतगाहों का
दफ़्तरों का
पुस्तकालयों का
घरों का
जगहें बदल चुकी थीं
(मौतें उग आईं थीं
बदली हुई जगहों पर)
लौटने की दिशा के
सारे साइनबोर्ड
दिखाते थे—
एक मिटी हुई जगह का पता
युद्ध के बाद
शांति निर्वस्त्र खड़ी रहती थी
हिंसा के सामने।
अन्ततः क्या होगा धरती
कितने ही दावेदार थे
तुम्हारी उमड़ती काया के
लेकिन कोई भी सदियों की पीड़ा पालता मन न पढ़ पाया
एक से बढ़कर एक
युद्धों में ख़ुद के विजय पर बढ़ता ढाल लेकर
बने संततियों का अग्रदूत
लहराता ध्वज अपनी छिछली गरिमा का
लसड़ते हुए ख़ून पर से घुटने भर जूते पहनकर
गुज़रता हुआ हर अगली सभ्यता का आदमी
अन्ततः क्या होगा धरती?
क्या तुम्हें पता है प्रारब्ध अपना
क्या तुम जानती हो आख़िरी युद्ध के बारे में भी
क्या सारे युद्धों के बारे में
जो लड़े गए तुम्हारे स्तनों के बीच
जो तुम्हारे लिए लड़े गए
श्रेष्ठता का भौंडा राग अलापते हुए
क्या आख़िरी युद्ध में मरनेवाला आख़िरी आदमी भी
भूख के लिए ही लड़ेगा और
भूख से ही मर जाएगा?
अन्ततः क्या होगा धरती
यह जानते हुए भी जनती रही अपनी कोख से
आदमी की जात
रचती रही उसकी आदिम गरिमा को पोसने के तंत्र
अन्ततः होगा यही
युद्ध युद्ध को खाएँगे
पेट पेट को चबाएगा
कुर्सियाँ ख़ाली रह जाएँगी
एक विदूषक चढ़ाएगा अपने आगा पर चुटकुलों का रहस्य
नेपथ्य में बजेगा विस्मृति गान
शहर दर शहर बढ़ जाएँगी आबादियाँ
शहर दर शहर फैलता जाएगा क़ब्रिस्तानों, मसानों का रकबा
अन्ततः जो होना है वह नहीं होगा
अन्ततः जो नहीं होना, वह घटता जाएगा
अन्ततः के होने से पहले अन्ततः को बचाया जा सकता है
अन्ततः क्या होगा धरती—
यह कर्मरेख है या गणना
इसके होने में लिखा है भाग्य का अंत
या दुर्भाग्य कि अन्ततः घट रहा है
अभी जहां अन्ततः के अटने का कोई अवकाश नहीं है।
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आदर्श हिंदी की सबसे नयी पीढ़ी के कवि हैं और कथेतर गद्य लेखन में भी सक्रिय हैं। इनका लिखा सभी बहुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनसे adarsh.bhushan1411@gmail.com पर बात हो सकती है।
आदर्श की कविताएं हमेशा सही जगह चोट करती हैं, सहलाती हैं। कवि के द्रवित मन को शब्दों का शरणाश्रय दिलातीं हृदयस्पर्शी कविताएं।
शुभकामनाएँ। 💚
बहुत उच्च दर्जे की कविताएं।
बधाई भैया जी।