कविताएँ ::
रवि यादव

1.मकबरे

घास पर उगी दुनिया
घास को ही नष्ट करके
अपनी अलग दुनिया बनाना जानती है।

मकबरों की दीवारों पर उगी घास पहचान है
हमारी जड़ों की।

उम्र की घास साबूदाने फूलने से भी कम समय में
बढ़ती रहती है।
और एक फूल के झरने से भी कम समय में
झर जाती है पृथ्वी पर।
जब एक गहरी नींद की तलाश में
भटकने लगती हैं कितनी दुनियाएँ
तब—

घास की दुनिया अपनी बाहें पसारे
इंतज़ार करती है हमारा
किसी माँ की तरह
जो छुपा लेना चाहती है हमको
अपने आँचल में।

2. पुनः उन्हीं जगहों पर

बार-बार पूरा लौटने के क्रम में
आधे से ज्यादा कुछ पीछे ही छूटा रह जाता है।
दूर रहता हूँ तो—
केवल आंखों से छू पाता हूँ दृश्य
पास होता हूँ तो नहीं दिखाई देता कुछ भी।

फ़िर वही जगह, वही ऋतु है।
फिर देख रहा हूँ,
नाव बनाने वाला कारीगर
ठोंक रहा कील
कुरेद रहा है लकड़ी के घावों को पुनः पुनः
उभर रहा पेड़ का वही पुराना दर्द।

देख रहा हूँ पुनः फूल बेचने वाली बच्ची को
जिसकी निरीह आँखें उसके पेट से झाँक रहीं
कह रहीं कितनी कहानियाँ।

वहीं बैठा हूँ पुनः जहाँ सरसराती हवाएँ
घूंघुरू की तरह बजाती थीं
पीपल की पत्तियों को!
अब वे भी ताली पीट-पीट कर हँस रहीं।

गंगा अब भी कोई चार इंच घटी है
पर हममें कितनी दूरी हो गई है!

सब देख रहा हूँ सिवाय—
तुम्हारे।

3. खटिया-खटोला

तनी हुई रस्सी की बाधी पर
नींद बिछा कर सो जाते थे।

तारों की टिमटिम रातों में
चाँद देखकर खो जाते थे।

चरमर चरमर की आवाजें नहीं जगाती थी रातों में
मच्छरदानी के बाहर मच्छर संगीत सुनाते थे।

लैंप जलाकर पढ़ते-पढ़ते जानबूझकर थक जाते थे
रोटी चीनी मोड़ मोड़ कर बैठ खाट पर खाते थे।

गर्मी की रातों में अम्मा राजा की कहानी सुनाती थीं
सुनते सुनते हम सोते थे, वो खुद भी सो जाती थीं।

बचपन से जवानी की सीख खाट दिखलाती है
खटोला से शुरू होकर खटिया तक की कहानी सुनाती है।

4. नवम्बर

महीने ख़त्म नहीं होते
और न ही ख़त्म होते हैं दिन।
एक एक दिन, उदासीनता की पीठ पर आता रहता है—
और हम ढोते रहते हैं इन्हें।

ख़त्म होती हुई लगती चीजें; शुरुआत होती हैं।

कोई व्यक्ति मर जाने के बाद
महीनों और तारीखों में जीता है।
जैसे भूल जाते हैं हम तारीख़ और महीनों को।
भूल जाते हैं दिन
भुला दिए जाते हैं लोग।

5. फूलों की जगह

मुझे लगा पेड़ से बिछड़ कर पुष्प मुक्त हो जाते हैं।
पर वे छोड़ जाते हैं विभिन्न स्मृतियाँ
धरती पर गिरे और उनसे लगे दागों पर।
और एक बड़ा दायित्व जीवन का
वृक्षों पर।

मैंने हमेशा फूलों को वृक्षों से अलग तीन ही जगह ख़ूबसूरत पाया…
एक धरती पर गिरकर बिखरे पड़े।
एक प्रेमिका के बालों में।
और एक इस युद्ध स्थिति समाज में जहाँ सारे फूल
बेधड़क काटे जा रहें और कुचल दिए जा रहे पूंजीवाद के लंबे और भारी पाँव से;
ऐसी स्थिति में किसी पुष्प को बचाकर एक हाथ से,
दूसरे के हाथ में देना।

कितना प्रेमिल स्पर्श होगा उन दो हाथों का
जहाँ वो मिटा रहे होंगे दिलों की दूरियाँ और मिटा रहे होंगे कितने ही
बँटवारों की दीवारों को।
मैं बचा लेना चाहता हूँ धरती के सभी पुष्पों को।
सबके हाथों में देकर या प्रेमिका के जूड़े में लगाकर।

मैं धरती पर गिरे महुए को नहीं
बल्कि रीढ़ पर तने हुए महुए को देखता हूँ,
जो फूंक देंगे विद्रोह का बिगुल
इस रीढ़ झुकाती सत्ता के खिलाफ।

महुआ हृदय के सर पर रखा प्रेम का बोझा है,
जो गिर जाता है हमेशा
तुम्हारे हर प्रेमिल स्पर्श पर।

मैं नहीं कहूँगा बोगनवेलिया को कि वो क्यूं एक खुशबूदार
फूल नहीं।
न ही सदाबहार को कि वो क्यूं खिला रहता हैं प्रत्येक परिस्थिति में
आसान नहीं होता बिना खुशबू के अपनी खूबसूरती से सब खूबसूरत कर देना
और न ही आसान है जीवन की सभी स्थितियों में सदाबहार की तरह सदा खिले रहना।

6. इन दिनों में उन दिनों की याद

बेशक इन दिनों में वो दिन बीत चुके होंगे
पर उन दिनों की यादें अब भी बनी हुई हैं।
छोड़ दी गई किसी चिड़िया के घोंसले के समान
किसी पेड़ पर अटके हुए।

यादें हमारे वर्तमान को
पोंछ देती हैं किसी कपड़े से
जैसे धूल से भठे किसी पुरानी तस्वीर को साफ करते हैं हम
और वो चमक उठती है।

स्मृतियों में भींची मुट्ठी
भींग जाती है पसीने से
अगर हम इस हाथ से उसे पकड़ना भी चाहें
तब भी फिसल के गिर जाती है वो
धड़ाम!

इन दिनों में उन दिनों की याद
ऐसे ही बनी रहती है
किसी फूल के रंग;
किसी फूल के सुगंध की तरह।

7. बोगनवेलिया

ज़िंदगी कुछ उदास रंगों से बनी होती है
जिसकी शाखाओं पर खिलती हैं,खुशियाँ
बोगनवेलिया सी।

उम्र चढ़ती है जीवन पर बोगनवेलिया
के लता जैसी,
जिसकी छोटी शाखाएँ भी
चुभती हैं काँटे सी।

ज़िंदगी निखरती है जैसे घोर दु:खों में।
वैसे ही बोगनवेलिया खिलता है
चिलचिलाहट में।
चैत के धूप की गर्मी में भींगते।

ज़िंदगी बीतते नहीं बचती
ज़िंदगी की महक
बोगनवेलिया की पंखुड़ियों सी हो जाती है
गंधहीन।

8. शहर को छोड़ते हुए

तुम्हें आख़िरी बार विदा कहते
हमने कोई संभावनाएँ नहीं छोड़ी
पुनः मिलने की।

शहर से जाते वक्त
हमेशा संभावनाएँ रहीं
कभी लौट आने की

उन संभावनाओं में एक याद सी हमेशा उपस्थित रही तुम।

शहर दर शहर
स्टेशन की दूरियाँ नापते
हम कभी नहीं नाप पाएँ
एक दूसरे के दिलों और यादों की दूरियाँ।

शहर छोड़ने के बाद पुनः
जब कभी मैं लौटा
तो वो शहर फिर वैसे कभी नहीं मिला।

9. सड़कें

एक ही शहर में रहते
कितने दूर रहें हम
दूर चाँद को देख तुम्हें याद करता हूँ
जबकि हम
एक ही पृथ्वी के लोग हैं।

सोचता हूँ
रास्ते रुके हुए भी कैसे चलते हैं
चलना तो ठीक दौड़ते रहते हैं।
मैं भी कितना भुलक्कड़ हूँ।
भला जब नहीं चाहता हूँ कुछ याद करना
तो वो भी तो आते रहते है याद बेतहाशा।
भूलने की क्रिया में चिपकी रह जाती हैं
याद करने की क्रियाएँ
किसी ससंजक बल की भांति।

सड़कें इतनी लंबी हैं
पहुंचती हैं कोने कोने
चलती, दौड़ती, भागती रहती हैं दिनों रात
फिर भला ये सड़कें मुझे
क्यों नहीं पहुंचा पाती तुम्हारे पास

10. यादों के दाग

मुझे मालूम था जीवन दुखों के सिवा कुछ भी नहीं
पर फिर भी मैंने तुमसे प्यार किया।
तुम्हारे प्यार के इस दुःख में भी
कितना सुख था।
जो अब चिपक गया है
मेरे जीवन की सफ़ेद कमीज़ के
आस्तीन पर तुम्हारी याद बनकर
जिसपर लगे तुम्हारी यादों के
सुंदर दाग कभी नहीं छूटते।


रवि यादव ( 21 जून 2000) सुपरिचित युवा कवि हैं। वे महराजगंज, उत्तरप्रदेश के रहनेवाले हैं और काशी वि. वि. से हिन्दी में परास्नातक किया है। उनकी कविताएँ प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित है।  उनसे raviyadav7524@gmail.com पर बात हो सकती है। 

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