पछिया हवा ::
आलेख : उपांशु
इमेजिनरी, सिम्बोलिक और रियल – मनोविश्लेषण में लकां का योगदान
यहूदी महिला संगठन की संस्थापक बर्था पापेनहाइम अपने समय (1859-1936) की सशक्त स्त्रीवादी कार्यकर्ता हुआ करती थी। सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ, साहित्य में भी उनका योगदान रहा है, जहाँ पॉल बर्थोल्ड के नाम से उनके छोटे उपन्यासों और नाटकों का प्रसार हुआ। एक महत्वपूर्ण नाटक 1904 में हुए रूसी साम्राज्य में रह रहे यहूदियों के कत्लेआम पर आधारित है, जो अंग्रेजी में शायद कहीं मिल जाए। बहुत ढूँढने पर बमुश्किल ऑनलाइन मिली उनकी एक कविता की चंद लाइनों का यहाँ पाठकों के लिए अनुवाद कर रहा हूँ—
प्रेम मेरे पास नहीं आया,
तो मैं खुद को कर्म में डुबो रही हूँ,
कर्तव्य के बोझ तले जी रही हूँ।
प्रेम मेरे पास नहीं आया—
तो मैं ख़ुशी–ख़ुशी, एक मित्र की तरह,
मौत को देख रही हूँ।
उन्होंने वोल्स्टोनक्राफ्ट द्वारा लिखित “A Vindication of the Rights of Woman” का जर्मन अनुवाद भी किया था। अब तक पाठक यह सोचने को मजबूर ज़रूर हो रहे होंगे कि इन सब का साइकोएनालिसिस अथवा मनोविश्लेषण से क्या लेना। और तो और इस सब से बीसवीं शताब्दी के फ्रेंच विचारक Jacques Lacan का क्या सम्बन्ध जिन्हें 1964 में इंटरनेशनल साइकोएनालिटिक एसोसिएशन से बहिष्कृत कर दिया गया था। दरअसल मनोविश्लेषण की कहानी 1880 में पापेनहाइम के पिता के साथ शुरू होती है। परिवार के साथ छुट्टियों के दौरान पापेनहाइम के पिता बहुत बीमार हो गए और वह दिन-रात उनकी सेवा में लगी रहती थी। ऐसे ही किसी रात बीमार पिता की शैया के पास शायद कई रातों की जागी बर्था को सहसा घबराहट होने लगी, हेलुसिनेशन भी परेशान करने लगा। वह रात किसी तरह टली, लेकिन अगले दिन परिवार को जब यह बात पता चली किसी ने कुछ न किया। यह लोक-लाज था या कुछ और, स्पष्ट नहीं है लेकिन फुकौ की मैडनेस एंड सिविलाइज़ेशन को जानने वाले जानते हैं बीसवीं शताब्दी में भी इस तरह के विकार पर से पागलपन का कलंक हटा नहीं था। खैर, परिवार के करीबी दोस्तों में एक सज्जन योसेफ ब्रोयर हुआ करते थे। पेशे से चिकित्सक योसेफ ब्रोयर ने उनका इलाज अपने जिम्मे ले लिया। शुरुआत में ब्रोयर हिप्नोसिस के जरिये उनसे बात करते रहे और इन सभी बातों का ब्यौरा तब अपने मित्र सिगमंड फ्रायड को देते रहे। उस वक़्त चिकित्सा के क्षेत्र में पेशेंट डॉक्टर के बीच की गोपनीयता शायद अस्तित्व में नहीं हुआ करती थी। हुआ भी करती थी यदि तो इस पर रिसर्च करना मैंने उचित नहीं समझा। फ्रायड की पहली कृतियों में से एक का नाम (शायद दूसरी ही) ‘स्टडीज ऑन हिस्टीरिया” है जिसे उन्होंने ब्रोयर के साथ छपवाया था। पापेनहाइम का केस वहीँ एना. ओ के नाम से दर्ज है। पापेनहाइम/ एना. ओ के साथ इसके बाद जो कुछ भी घटा इस पुस्तक में दर्ज है और इच्छुक लोग पढ़ भी सकते हैं। बहरहाल ब्रोयर ने अपने इस प्रयोग को “The Talking Cure” का नाम दिया, जिसे फ्रायड ने बाद में साइकोएनालिसिस की शक्ल दी। “The Interpretation of dreams” से “Civilization and its discontents” तक फ्रायड ने साइकोएनालिसिस पर, मनुष्य मन पर, और उसके ढाँचे पर बहुत कुछ लिखा है। लकां तक आते-आते मनोविश्लेषण की सूरत और इसकी काया भी पूरी तरह बदल चुकी थी। लेकिन जो एक चीज़ नहीं बदली थी वो है मरीज़ और मनोविश्लेषक के बीच का संबंध। आइये इस पर एक नज़र डालते हैं।
आज के समय में विश्लेषण की ओर रुख करने के लिए आपको किसी ख़ास कारण की ज़रूरत नहीं हैं, फ़र्ज़ कीजिये कई रातों से (और दिन में भी) आपको अजीब किस्म के ख्वाब परेशान कर रहे हैं, आपकी नज़र में कुछ विश्लेषक हैं, जिनसे आप सलाह लेना चाहते हैं, और जिस तरह बीमार होने पर आप किसी चिकित्सक के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं ठीक उसी तरह आप यहाँ भी अपना मर्ज़ पूछने जाते हैं। एक मनोचिकित्सक शायद आपको बता भी दे, कुछ दवाइयाँ लिख दे और चलता करे। एक मनोविश्लेषक, लेकिन, आपसे बात करेगा, अंत तक अपने विचारों को आपसे नहीं कहना चाहेगा। वो अलग बात है ऐसा होता नहीं है।
मैं जिन बच्चों को पढ़ाता हूँ वो Generation Z के बच्चे कहे जाते हैं। इस पीढ़ी के बच्चों के लिए तरह-तरह की धारणाएँ समाज में बनते-टूटते, देखने के बाद, अपने कई छात्र-छात्राओं को थेरेपी में जाते देखने के बाद, साइकोथेरेपी और क्लिनिकल साइकोलॉजी से मेरा भरोसा उठ चुका है। और तो और विश्वविद्यालय में दो साल शुरुआती मनोविज्ञान पढ़ाने के बाद, मनोविज्ञान के अध्यापकों से बात करने के बाद, मेरे भरोसे को और ठेस पहुँची है। ऐसे में लकां, देलेज़, और ग्वातरी को अपनी पीएचडी का मुख्य फोकस बनाना और भी निराशाजनक और कष्टकारक रहा। इस लेख में अपनी झुंझलाहट के कुछ कारणों से आपको रूबरू कराने की कोशिश रहेगी। मनोविश्लेषण पर बात करते हुए, इस लेख में मुख्यतः लकां के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर प्रकाश डालने की कोशिश करूँगा।
आपने निश्चित ही सुना होगा मानसिक रोग एक महामारी की तरह हमारे युग का काल बना हुआ है। आपने फेसबुक, इन्स्टाग्राम, और लिंक्डइन जैसे सोशल मीडिया पर पॉजिटिव थिंकिंग और माइंडफुलनेस जैसी चीज़ों पर कुछ न कुछ देखा भी होगा और शेयर भी किया होगा। यदि आप मेरी तरह शिक्षण के क्षेत्र में हैं, तो आपने बच्चों के बीच एंड्रू टेट जैसे ढोंगियों की विचारधारा का प्रचलन देखा होगा जैसे अल्फा, सिग्मा का बकवास या किसी एक इन्फ़्लुएंसर पर खुद को ढाल लेने का प्रयास। एक अशांति उनके चित्त में घर कर चुकी है और ये हर पीढ़ी के युवा में पायी जा सकती है। वो अलग बात है कि इस पीढ़ी की अशांति कुछ कारणों से थोड़ी अलग भी है और थोड़ी गंभीर भी। मैं यह नहीं कह रहा कि पिछली पीढ़ियों के दुख कम थे या उन्हें कम कठिनाइयाँ थीं। लेकिन यदि आप वैश्विक स्तर पर ही देख लें, तो पिछले पचास वर्षों में कितनी पीढ़ियों ने बाल अवस्था या युवावस्था में भी कोरोना जैसी महामारी और लॉकडाउन जैसे आइसोलेशन को झेला है, वो भी केवल एक मोबाइल फ़ोन और मस्तिष्क पर हावी होने वाले अल्गोरिथम के साथ।
हैं इस दुनिया में लोग जिन्हें लगता है इंसान अकेला काफी है। हैं इस दुनिया में देश जो इन्डीविजुअलिजम के नाम पर और व्यक्ति-विशेषवाद की आड़ में आइसोलेशन की विचारधारा का प्रसार करते हैं। लेकिन इसी दुनिया के जॉन डन भी थे जिन्होंने सही लिखा था “नो मैन इज़ एन आइलैंड”। इस लेख में इस पीढ़ी (जो अभी युवा हुए हैं और जो अभी स्कूल कॉलेज के बच्चे हैं) और आने वाली पीढ़ियों के समस्याओं का यदि नाम भर भी लूँ तो भी इस लेख का विषय बदलना होगा। वैश्विक युद्ध के खतरे या जलवायु परिवर्तन की तो बात भी शुरू करने से पहले कई बार सोचना पड़ता है, कक्षा में तो और भी। मैं उनकी आँखों में एक रेज़िगनेशन देखने से डरता हूँ कि चीज़ें अब तक नहीं बदलीं तो अब क्या ही होगा। यह रेज़िगनेशन किसी तरह का अवसाद अपने साथ नहीं लाता बल्कि एक उल्लास का माहौल बन, ऑनलाइन या पब्लिक स्थानों पर, इस पीढ़ी के साथ हमेशा एक आवरण की तरह अटका रहता है। ऐसे भी विश्वविद्यालय छात्रों में एक तरह की कन्फोर्मिटी का उत्पादन करने के लिए ही बनाया गया था। ऐसा आज से या लकां के समय से ही नहीं बल्कि उस काल से है जब विश्वविद्यालय धार्मिक संस्थानों से जुड़े होते थे। लकां ने यूनिवर्सिटी डिस्कोर्स में यही साबित करने की कोशिश की है कि विश्वविद्यालय सत्ताधारी वर्ग की विचारधारा को छात्रों के मन में, हावभाव में, और उनकी काया में इस तरह भरता है कि हर छात्र सत्ताधारी वर्ग का माउथपीस बन जाए और उसकी आलोचना भी एक दायरे में ही रहकर करे (और आगे की पीढ़ियों को सिखाये भी)। यूनिवर्सिटी डिस्कोर्स पर, ज्ञान और शिक्षा पर, सत्ताधारी वर्ग के कब्ज़े पर, बोर्द्यु, फ्रायरे, और इवान इलिच के विचारों पर किसी और लेख में विस्तार से लिखूंगा। फिलहाल इस लेख का मूल मकसद साइकोएनालिसिस में लकां की महत्त्वपूर्ण भूमिका को उजागर करना है।
कई लोग लकां को फ्रायड के उत्तराधिकारी के रूप में पढ़ाते हैं। मैं नहीं जानता इस तरह से कहाँ तक सोचा जा सकता है। McCormick के शब्दों में कहूँ तो फ्रायड का आविष्कार (यदि इसे खोज कहने से किसी को परहेज़ हैं तो) विश्लेषक अथवा एनालिस्ट का अनुभव या एक्सपीरियंस है और लकां की खोज एनालिस्ट का डिस्कोर्स है। बावन की उम्र में कई-कई सालों तक प्रैक्टिस कर लेने के बाद लकां को लगा की वह विश्लेषकों को ट्रेन कर सकते हैं। ऐसे तो उनकी शुरुआत पहले सेमिनार को कही जाती है, लेकिन 1954 के रोम एड्रेस को हम एक मैनिफेस्टो की तरह भी देख सकते हैं। लकां के विचार न सिर्फ साइकोएनालिसिस बल्कि सेल्फ, आंटलजी और एपिस्टमोलोजी के क्षेत्रों में भूचाल लाने वाले थे। लेकिन इन सबकी शुरुआत सिर्फ एक रिजेक्शन से होती है, यही उसकी नींव है; ईगो साइकोलॉजी का रिजेक्शन। एना फ्रायड के अनुसार ईगो एक डिफेन्स मैकेनिज्म की तरह है। ऐसा नहीं है कि लकां इसका पूरी तरह खंडन करते हैं, दरअसल उनका भी यही मानना है कि क्योंकि ईगो एक डिफेन्स मैकेनिज्म है, एक मनोविश्लेषक को उसे मज़बूत बनाने की कोशिश कतई नहीं करनी चाहिए। उसे सब्जेक्ट की तलाश करनी चाहिए और सब्जेक्ट ज़बान अर्थात स्पीच की मुरीद है। आप जो बोलते हैं, बोलते हुए जहाँ अटकते हैं, जहाँ फँसते हैं— दरअसल बोल-चाल में जहाँ भी अवरोध पाते हैं, सब्जेक्ट वहीं पाया जा सकता है। इस सोच के पीछे साइकोएनालिसिस का वो मूल अनुभव है जिसे हर कोई नज़रअंदाज़ करता है और जिसकी तरफ मैंने इस लेख के शुरुआत में ही इशारा कर दिया था। मनोविश्लेषण का मूल अनुभव बातचीत पर आधारित है, पेशेंट की एनालिस्ट से बातचीत। फिर लकां क्यों भाषा को, बातचीत के ढाँचे को अपने मेथड का हिस्सा न बनाते। यह ईगो साइकोलॉजी के खिलाफ लकां की चुनौती ही थी।
शुरूआती दिनों में Georges Bataille और Merleau-Ponty ने लकां का प्रोत्साहन भी किया था। Bataille (बताई) खुद एक प्रोग्राम की रूपरेखा पर काम कर रहे थे जिसका ध्येय रचनात्मकता को बढ़ावा देना और मनुष्यों में ग्लानि की भावना को खत्म करना था ताकि लोग वैसे युद्ध न लड़ें जिनसे उनका कोई लेना-देना नहीं है, ताकि वे ऐसे श्रम को मजबूर न हो जिनका फल उन्हें न मिले। ये बताई का “Acephale” प्रोग्राम था।“Cephale” का अर्थ होता है सिर। सिरविहीन – यह नाम शायद बताई ने इसलिए रखा था ताकि वह शक्ति के पीछे छिपी hierarchy की हिंसा को उजागर कर सकें। मौजूदा समाज के लिए बताई को समझना कठिन हो सकता है क्योंकि हमारी रचनाशीलता बगैर किसी hierarchy के नहीं सोच सकती, क्योंकि हम सब अपनी नज़रों में केवल स्वयंभू ही नहीं, दूसरों के नेता भी हैं और पैदाइशी लीडर भी। चाहे घर हो, ऑफिस हो या दोस्तों का समूह, हम मान बैठे हैं कि एक विशिष्टता हमारी रूह में, हमारे आत्म के नीव में बसी हुई है। एक नकली यथार्थ ही सही लेकिन यह एक ऐसा यथार्थ है, जिसे हम सच मान बैठे हैं। इस यथार्थ की सबसे बड़ी ताकत आज के समय में सोशल मीडिया है। निराला की पंक्ति “लोक नारियों के लिए रानियाँ आधार हुई”, आज के इन्स्टाग्राम यथार्थ पर भी लागू हो सकता है। एनिमल जैसी फिल्मों से, सिग्मा मेल और अल्फा मेल के रील से, अमेरिकन साइको से क्रिस्चियन बेल के किरदार का इस्तेमाल कर रहे मीम से (Meme) और और भी कई सारे तरीकों से हम एक आत्ममुग्धता की फंतासी को शक्ति देते हैं। लकां के शब्दों में यह इमेजिनरी ढाँचे का हिस्सा है। विश्लेषण के दौरान जब analysand और analyst सम्मुख होते हैं, कुछ अनोखी घटनाएँ होती हैं जिसे मनोविज्ञान भाषा और बातचीत के ढाँचे को समझे बिना आगे नहीं बढ़ सकता।
दरअसल भाषा के कारण एक कमरे में दो लोगों के अलावा एक तीसरे की उपस्थिति मुमकिन हो जाती है। लेकिन ऐसा न मानने से विश्लेषण के दौरान ईगो नामक रक्षात्मक प्रणाली को ताकत मिलती है। और अब तक यह साफ़ हो जाना चाहिए कि लकां की समझ से ईगो और पर्सनालिटी जैसे ढाँचे केवल मुखौटे हैं, जिन्हें आईने में देख कर आप कुछ देर प्रसन्न हो लेते हैं। इसे एक प्रदर्शन की तरह ही समझ लें। मनोविश्लेषक के लिए, लकां के अनुसार, ईगो एक अड़चन है। यदि विश्लेषण के दौरान authentic या प्रमाणिक आत्म की संरचना को ढूँढने की कवायद कोई करना चाहता है, तो वह ईगो को इस तलाश में पथभ्रम करने वाले शैतान की तरह समझे। लेकिन मनोविश्लेषण को ऐसे सवालों से लकां दूर रखना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि वे ऐसे सवाल पूछते नहीं, लेकिन उनके मन में साइकोएनालिसिस का मुख्य उद्देश्य सब्जेक्ट के इतिहास का पुनर्निर्माण है।
इस तरह के पुनर्निर्माण में ईगो एक बहरूपिया है, प्रलोभन है, मृगतृष्णा है, ट्रोजन हॉर्स है, लेकिन न चाहते हुए भी एनालिस्ट को इस ट्रोजन हॉर्स को ट्रॉय के दीवारों के अन्दर लाना पड़ता है क्योंकि analysand (अर्थात जिसका विश्लेषण किया जा रहा है वह) विश्लेषक में उस दूसरे की छवि स्थानांतरित कर देता है जो उसने कभी आईने में देखा था – इसे हम इमेजिनरी ट्रांस्फेरेंस कह सकते हैं। यही लकां का लिटिल अदर है। अब एनालिस्ट का काम बिग अदर को संबोधित करना है जिससे analysand अवगत नहीं होना चाहता है। इसीलिए वह ईगो को अपना रक्षक बनाता है।
कमरे में इन दोनों के अलावा यही वो तीसरा है जिसके ज़रिये सब्जेक्ट के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव है। बिग अदर मेरी भाषा है (अर्थात वो जो मैं बोलता हूँ)। इसका हिंदी, अंग्रेजी से नहीं, मेरे कथनों से संबंध है। मेरे झूठे कथनों में भी मेरे सब्जेक्ट का सत्य छिपा हो सकता है। दरअसल, मेरे सब्जेक्ट का सच, मेरी लड़खड़ाती ज़बान में, मेरे भद्दे मजाक में और उन सभी प्रस्फुटनों में है जो आम तौर पर हमारी लज्जा का कारण बनते हैं। इसके सामने ईगो की संरचना एक लक्षण की तरह है। फ्रायड ने कहीं लिखा था कि असरदार विश्लेषण का सही होना महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है कि इससे विश्लेषण के लिए और भी सामग्री निकले। यही सिंबॉलिक का ढाँचा है— भाषा का वो क्षेत्र जिसका इस्तेमाल करते वक़्त हम फिसलते हैं। याद रखिए इस फिसलने को हम Freudian slip कहते हैं, Lacanian नहीं। इसी वजह से यह कहने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं होती कि लकां फ्रायड के कार्य को आगे बढाते हैं, भले ही उसकी मौलिक पुनर्व्याख्या कर। यही slip है जहाँ मेरी भाषा टूटती है, ईगो का स्वांग टूटता है और अन्कोंशिय्स (Unconscious) का रास्ता खुलता है। एनालिस्ट को सब्जेक्ट का इतिहास गढ़ने के लिए इसी दरवाज़े की तलाश होती है।
लेकिन होता क्या है?
आपको यह समझना होगा कि आपके यथार्थ में तरह-तरह की रिक्तियाँ हैं। एक अधूरापन है जिससे आप जूझना नहीं चाहते और इसके लिए सबसे अच्छा तरीका रेप्रेशन ही तो है। Repression को यथार्थ की रिक्तियों को भरने का एक तरीका माना जा सकता है। ट्रॉमा को किसी चोट की तरह देखना भी एक तरह से अधूरा ही है। Repression तभी संभव है जब हर ट्रॉमा को एक संकेतक या एक सिग्निफायर निर्दिष्ट कर दिया गया हो। लेकिन सिग्निफायर मिल जाने का ये अर्थ नहीं है की हम ट्रॉमा को रोज़ की भाषा में ले आए हों। यही Real है (और इसका असलियत या सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं है ना ही यथार्थ से), जो symbolize नहीं हो सकता। हमारी बातचीत का हिस्सा नहीं बन पाता। या तो हम इसके बारे में कुछ कह नहीं पाते या साफ़ शब्दों में इसे गढ़ नहीं पाते और इसी कारण इस बारे में बात करना संभव नहीं हो पाता। ब्रूस फिंक मानते हैं कि सफल विश्लेषण की यही निशानी है कि वह इस Real तक पहुँच सकता है।
किसी पुरानी याद तक आप लड़खड़ाते पहुँच जाएँ या किसी पुरानी याद को आप शब्दों में पिरो पाएँ— इसीलिए फ्रायड सपनों से अपनी शुरुआत करते हैं कि सपनों में बहुत बार वैसी मौजूदा घटनाएँ जो हमारे हलक पर अटक कर रह जाती हैं, एक नए नैरेटिव का चोगा ओढ़ हमारी आँखों के सामने दिखती है। लकां कहीं लिखते हैं सपनों का असल विश्लेषण एनालिसिस में आने के कुछ दिनों बाद ही शुरू हो सकता है जब पशेंट एनालिस्ट से कोई संबंध बना रहे होते है, खुद को उसमें पहचानना चाह रहे होते हैं। analysand अपने ईगो को बार-बार repressed signifier की पहचान न होने के उद्देश्य से सामने रखता है। ईगो जो कि इमेजिनरी पहचान है, बार-बार सच को गलत पहचानता है और सच यहाँ सब्जेक्ट है, जो कि ईगो नहीं है, जो कि बातचीत में सामने आता है, एक घटना है। सब्जेक्ट, लकां की रूपरेखा में, भाषा के बाहर नहीं है, इसीलिए इसका सम्बन्ध सिग्निफायर से है। लकां के शब्दों में सिग्निफायर (S1) दूसरे सिग्निफायर (S2) के लिए सब्जेक्ट ($) को दर्शाता है।
इस सब में सब्जेक्ट Unconscious का सब्जेक्ट है जो केवल अवरोधों में, बातचीत के दौरान फिसलनों में अर्थात कृत्यों में सामने आता है, और इसी तरह एक एथिकल संरचना हो जाता है। देकार्त से लेकर अब तक दर्शनशास्त्र में सेल्फ आंटलजी की पृष्ठभूमि पर गढ़ा गया है, लकां इसी आधार से विदा लेते हैं। लेकिन याद रखना ज़रूरी है कि लकां फिलोसोफेर नहीं हैं। Badiou की मानें तो वह एंटीफिलोसोफेर हैं (लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह फिलोसोफी के खिलाफ हैं)।
बहरहाल लकां के विचारों को एक लेख में निचोड़ पाना संभव नहीं है। इस लेख में Real, Imaginary और Symbolic को थोड़ा बहुत जान लेने के बाद उनके कई और सिद्धांत हैं जिन पर अगले लेख में चर्चा होगी। उपसंहार के नाम पर कुछ सवाल छोड़े जा रहा हूँ— कविता पर आधारित। कविता हमारे यथार्थ के अधूरेपन को, उसकी रिक्तियों को उजागर करने का कार्य करती है। क्या हम नहीं कह सकते कि कविता, कला, या साहित्य का काम उस repression को उजागर करना है जो यथार्थ की रिक्तियों को भरता है? क्या ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि इस रिक्ति से अवगत कराते हुए कवियों का काम, अपने लिए नाम बनाना नहीं, बल्कि कविता और उसके विचार तक रास्ता बनना है? लेकिन एक अच्छा रास्ता कभी अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं होने देता, और एक अच्छा एनालिस्ट आपको आपकी बीमारी नहीं बताता। ठीक उसी तरह कवि क्यों पाठक को अपनी कविता समझाने की कोशिश करे? वह क्यों न कविता और पाठक के बीच से निकल जाना उचित समझे? शायद इसी बहाने बार्थ के “डेथ ऑफ़ द ऑथर” को मनोविश्लेषण की दृष्टि से देख सकते हैं। लेकिन मेरा ध्येय साइकोएनालिसिस के ज़रिये हिंदी साहित्य समाज में बने मठों की ओर इशारा करना है। उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करना है, जिसमें हम सभी नाम बनाने के नाम पर एक तरह के इमेजिनरी में फँसे हुए हैं जहाँ सबसे बड़ा मिथक है यथार्थ की सम्पूर्णता और उससे भी बड़ा, कवि के यथार्थ की सम्पूर्णता है। इसे कविता की अंतिम पंक्तियों में किसी शिक्षक की भाँति पथ प्रदर्शन के लिए छोड़ दिया जाएगा, समस्याओं को उजागर करने छोड़ दिया जाएगा ताकि कवि अपनी सदी का और इस युग का भी महाचिन्तक कहला सके। कहीं यही तो नहीं, आत्ममुग्धता का वो पिंजरा जहाँ ईगो आज भी अपनी छवि निहार रहा है। आपसे सवाल यही है आप कब तक अपनी छवि निहारते रहेंगे?
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उपांशु हिंदी के चर्चित कवि और अंग्रेज़ी के अध्येता हैं। ‘ठहरना-भटकना’ शीर्षक से उनका एक काव्य-संग्रह प्रकाशित है। गए दिनों उपांशु ने इंद्रधनुष पर ‘पछिया हवा’ नाम से पाश्चात्य दर्शन संबंधी एक कॉलम लिखना शुरू किया है, प्रस्तुत आलेख उसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। अन्य प्रस्तुतियों के लिए यहाँ देखें : पछिया हवा