फ़िल्म-समीक्षा ::
सुधाकर रवि
एक दृश्य है जहाँ मुख्य पात्र क्लेओ समंदर में डूब रहे अपनी मालकिन के दो बच्चों को बचाने जाती है. क्लेओ को तैरना नहीं आता, और संभव है वह खुद भी डूब जाए, लेकिन बारी-बारी वह उन दोनों बच्चों को समंदर की धार से बाहर लाती है. इस घटना के बाद क्लेओ अपने मन की बात कहती है कि उसकी बेटी जो मरी हुई पैदा हुई थी, को वह जन्म नहीं देना चाहती थी, और उनका पिता उन दोनों का त्याग कर चुका था.
फ़िल्म ‘रोमा’ निर्देशक अल्फोंसो कुअरोन [Alfonso Cuarón] के अपने शहर, अपने बचपन के यादों के नाम लिखी गयी कविता का नाम है. ब्लैक एंड व्हाइट में बनी यह फिल्म, दृश्यों में रंग ना होने के बावजूद भी हर दृश्य की डिटेलिंग फिल्माए जाने का बाद फिल्म की खूबसूरती को नया रंग देती है. स्पैनिश भाषा में बनी यह फ़िल्म करीब दो घंटे पन्द्रह मिनट की है. फिल्म की कहानी बाकी फिल्मों की तरह अपने शुरुआत-अंत की परिपाटी से मुक्त है. ना इसका आरंभ दर्शकों को कहानी से जोड़ने की कोशिश करता है ,ना इसका अंत दर्शकों को चौंकाने का काम करता है. यह फिल्म तो कविता जैसी है, जिसे मध्य से भी देखा जा सकता है. निर्देशक अपनी यह फ़िल्म अपने नॉस्टेल्जिया को जीते हुए फिल्माते हैं. यह बात सब जगह स्वीकार्य है कि जहाँ दो वर्ग होते हैं, वहाँ मजबूत के द्वारा कमजोर का शोषण होता है. शोषण का स्तर और रूप अलग-अलग जगह पर अलग-अलग देखने को मिलता है. सार्वभौमिक धारणा न होते हुए भी यह बात स्वीकार्य हो सकती है कि शोषण करने की मशीनरी में पुरुष की जगह महिला हो तो शोषण का स्तर कम होता है. रोमा देखते हुए भी यह बात महसूस हुई. क्लेओ और सोफ़िया का संबंध नौकरानी और मालकिन का है. दोनों ही पुरुषों द्वारा त्याग दी गयी हैं. सोफ़िया का पति उसे और अपने चार बच्चों को छोड़कर अलग हो गया है. क्लेओ का बॉयफ्रेंड उसे प्रेग्नेंट कर भाग जाता है. वर्ग-विभाजन के नजरिये से देखे तो सोफ़िया और क्लेओ के बीच संघर्ष की एक सतत प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए. लेकिन फिल्म में दोनों का संबंध मधुर है.
क्लेओ महज बस नौकरानी नहीं है बल्कि सोफ़िया के परिवार की सदस्य की तरह है. उसके बच्चों की भी पसंदीदा. उनके सुबह जागने से लेकर सोने तक क्लेओ उनके साथ रहती है. क्लेओ जब प्रेग्नेंट हो जाती है तब सोफ़िया भी किसी मालिक की तरह तरस नहीं खाने या उसे उसके हालात पर छोड़ने की बजाय उसे एक परिवार के सदस्य की तरह उसकी पूरी जिम्मेवारी लेते हुए शहर के सबसे अच्छे हॉस्पिटल में ले जाती है. सोफ़िया की मां क्लेओ को साथ लेकर जन्म लेने वाले बच्चे के लिए पालना खरीदने जाती है. मालकिन और नौकरानी का ऐसा संबंध अनोखा है. एक दूसरे की जरूरत और जिम्मेवारी दोनों को पता है. मैक्सिको के सत्तर के दशक की रोमा की कहानी अमेरिकन सोसाएटी से अलग है. समाज के स्तर पर लोग संवेदनशील हैं. सोफ़िया अपने पति द्वारा छोड़े जाने के पहले जिस कार का उपयोग करती है, वह बड़ी होती है, वह घर के दरवाजे में मुश्किल से फिट हो पाती है, और उसे घर के अंदर लगाने में भी काफी संभाल कर लगाना पड़ता है. पति के छोड़े जाने के बाद सोफ़िया एक छोटी कार खरीद लेती है, जो आसानी से दरवाजे में फिट हो जाती है. पति के साथ रहते सोफ़िया पति के चले जाने के डर में रहती थी, वो डर पति के जाने के बाद ख़त्म हो गया और सोफ़िया अपने बच्चों के लिए और भी ज़्यादा हिम्मत और ताकत से भर गयी. कार का बदलाव पति के पहले और जाने के बाद की स्थिति को खूबसूरती से बयान करता है. फ़िल्म की मुख्य कहानी के साथ-साथ और भी कई दृश्य हमें मैक्सिको की राजनीति से अवगत कराते हैं. सड़कों पर मिलिट्री का मार्च, जमीन के बँटवारे का विरोध, यूनिवर्सिटी की पढ़ाई का खर्च बढ़ाए जाने पर विद्यार्थियों का व्यापक विरोध-प्रदर्शन और उस प्रदर्शन को कुचलने के लिए सरकार द्वारा लुटेरे-बदमाशों का उपयोग करना आदि ऐसे कई दृश्य हैं.
‘रोमा’ दो महिलाओं के अलग-अलग स्तर और परिस्थिति में किए गए संघर्ष की फिल्म है. मालिक और नौकर के वर्ग में विभाजन, व्हाइट और ब्लैक के अंतर के बावजूद दो महिलाओं के एक दूसरे के अकेलेपन में सहयोग की यादगार दस्तावेज़ है यह फ़िल्म. इसके साथ यह भी कि पुरुषों द्वारा त्याग दिए जाने के बाद भी महिलाएँ खुद अपनी पहचान बना सकती हैं, महिलाएँ एक दूसरे का संबल बन सकती हैं. इसकी गवाह है फ़िल्म ‘रोमा’.
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सुधाकर रवि कवि-कथाकार और हिन्दी साहित्य के छात्र हैं.
इनसे sudhakrravi@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.