कविताओं की बात::

केदारनाथ सिंह को पढ़ते हुए : उत्कर्ष

बुनाई, नदी, भाषा, शहर, लोग, प्रकृत्ति और गर्म हाथों का महात्म्य.

” मैं पिछली बरसात से उसे देख रहा हूँ 
  वह वहाँ उसी तरह खड़ा है 
  टूटा हुआ और हैरान 
  और अब उससे अँखुए फूट रहे हैं…” 
                           (टूटा हुआ ट्रक, केदारनाथ सिंह)
मैं जब ये पंक्तियाँ पढ़ रहा हूँ  और मैं किसी शिल्पकार की कृति से रचना के सामीप्य को ख़ुद से जोड़ पा रहा हूँ. कवि अपनी रचनाओं की पूँजी हमें सौंप चिरनिद्रा को प्राप्त हो चुका है पर बस शरीर से, क्योंकि आत्मा तो उसकी कविताएँ हैं अजर और कालातीत. इन दो-चार सालों में कितने लोग जीवन की दीवारें लाँघ गए. स्तंभों का ऐसा अवसान कि मानो ऐसा लगता है कि दीवार से एक-एक कर कीलों का निकलना और गिरना , वे कीलें जिन्होंने रचना के फ्रेम में मनुष्यता को बेहद शाइस्तगी भरी मसरूफ़ियत और जतन से थामकर रखा था.
‘टूटा हुआ ट्रक’ पढ़ते हुए मैं ये महसूस कर पा रहा हूँ कि , ” मेरे लिए ये सोचना कितना सुखद है/ कि कल सुबह तक सब ठीक हो जाएगा.”  कि कवि किसी न किसी रचना में अनन्तकाल तक उम्मीद की गौरैया को आवाज़ दे उठेगा. इस कविता के मार्फ़त आप महसूस कर सकते हैं शिल्प के अगाध माहात्म्य को. अंत मे कवि ने एक ऐसी यथार्थवादी स्वीकारोक्ति की बात कही है कि आपको लगेगा, कि कैसे एक टूटे हुए ट्रक से पूरा शहर संबोधन की रेखा से छू जाता है. “शाम हो रही है / टूटा हुआ ट्रक उसी तरह खड़ा है/ और मुझे घूर रहा है/ मैं सोचता हूँ/ अगर इस समय वो यहाँ न होता/ तो मेरे लिए कितना मुश्किल था पहचानना/ कि यह मेरा शहर है /और ये मेरे लोग / और वो वो/मेरा घर.”
अभी कुछ महीने पहले मैंने कवि की चर्चित रचना ‘बनारस’ पढ़ी थी. जैसे-जैसे कविता का पाठ आगे बढ़ रहा था , कल्पना में कवि बनारस के घाटों पर घूमते चित्रित होते , लगता कि कैसे कोई शहर के चित्र को इस तरह मन के कैनवास पर रंग सकता है, कोई कैसे शहर की कल्पना इतने प्रगाढ़ मर्म और मन में बस जाने वाले चित्रण में रचा-बसा सकता है! शुरुआत से अंत तक आप बनारस को अपने मानस-पटल पर विविध रंग समेटते महसूस करते हैं.
“इस शहर में बसंत अचानक आता है…” कवि एक-एक कर दिनभर के कार्यकलाप को शब्दों के सूप में बीनता है… “इस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है/ धीरे-धीरे चलते हैं लोग / धीरे-धीरे बजते हैं घण्टे/ शाम धीरे-धीरे होती है…” आप इस कविता में सिमटकर कब अपने अनुभव भूल, एक नए चश्मे से शहर को देखने लगते हैं, आपको पता ही नहीं चलता! एक ऐसा चश्मा जो बनारस के अबतक के सभी जोड़-जमा-हासिल वाले समय का एक टुकड़ा आपके साथ छोड़ जाता है.
और कविता अपने विस्तार में तब होती है जब कवि स्वयं अपना ही नहीं , पूरी मानव-जाति का उद्घोषक हो जाता है, सभी प्रश्नों के दस्तावेज लिए खड़ा , असंख्य मुख से ये बोलता कि …” मेरे युग का मुहावरा है / फ़र्क़ नही पड़ता/ अक्सर महसूस होता है कि बगल में बैठे हुए दोस्तों के चेहरे / और अफ्रीका की धुँधली नदियों के छोर/ एक हो गए हैं /और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ /मेरी जिह्वा पर नहीं/ बल्कि दाँतों के बीच की जगहों में सटी हुई है/ मैं बहस शुरू तो करूँ /पर चीजें एक ऐसे दौर से गुजर रहीं हैं कि सामने की मेज़ को/ सीधे मेज़ कहना उसे वहाँ से उठाकर /अज्ञात अपराधियों के बीच रख देना है / और यह समय है/ जब रक्त की शिरा शरीर से कटकर / अलग हो जाती है /और यह वह समय है/ जब मेरे जूते के अंदर की एक नन्हीं-सी कील/ तारों को गड़ने लगती है.” (‘फ़र्क नहीं पड़ता’ कविता से)
‘सूर्य’ कविता में केदारनाथ सिंह अपने सुघड़ शब्दों को आबद्ध करते हुए जैसे रचना की संपदा को सींचते हैं, बटोरते हैं सूर्य को कुछ इस तरह जैसा पहले नहीं किया गया, कविता का स्वाद जैसे इस तरह कभी न चखा गया हो… ” वह रोटी में नमक की तरह प्रवेश करता है/ ताखे पर रखी हुई रात की रोटी /उसके आने की खुशी में ज़रा-सी उछलती है/ और एक भूखे आदमी की नींद में गिर पड़ती है”… सूर्य को ऐसे कब देखा गया कि… “वह आदमी के सर उठाने की यातना है/ आदमी का बुख़ार/ आदमी की कुल्हाड़ी / जिसे वह जिसे वह कंधे पर रखता है/ और जंगल की ओर चल देता है…” और फिर कवि यह भी कहता है सूर्य को समग्र के केंद्र में रखते हुए कि… ” मेरी बस्ती के लोगों की दुनिया में/ वह अकेली चीज़ है/ जिस पर भरोसा किया जा सकता है/ सिर्फ़ उस पर रोटी नहीं सेंकी जा सकती!”
कविता की आत्मा कवि की दृष्टि में समाई हुई रहती है जैसे. चाहे विषय वही हों और समय भी कमोबेश उतना ही सुखद या फिर यातनाओं और आपदाओं के कथा-समय से भरा, रचने की दृष्टि ही एक कहन को दूसरे से पृथक करती है और उसे उतना वास्तविक बनाती है. प्रेम पर कई रचनाकारों ने कुछ-न-कुछ रचा है, लेकिन कविता के मर्म की परत रचनाकार की उन्नत दृष्टि से ही विकसित होती है. अपनी कविता ‘पानी में घिरे हुए लोग’ में कवि ने मानव-मन की जिजिविषा और धैर्य का एक नक्शा उतारा है और किसी आपदा में कुछ खोने और टूटने को कुछ इस तरह व्यक्त किया है कि पानी की धार के प्रतिरोध के उपरांत अगर कुछ टूटता है तो… “सिर्फ़ उनके अंदर अरार की तरह/ हर बार पानी में कुछ गिरता है/ छपाक…छपाक.” कवि अपनी एक कविता में जीवन की परतों को उघाड़ते ये प्रश्न भी छोड़ते हैं कि … ” क्या जीवन इसी तरह बीतेगा/ शब्दों से शब्दों तक/ जीने / और जीने और जीने और जीने के/ लगातार द्वंद में?…”
‘बुनाई का गीत’ तो सहज आह्वान है वो सबकुछ सीने को फिर से जो विच्छेदित हो रहा है, समेटने को वो सब जो छूट रहा है, रोक लेने को सबकुछ जो नहीं टूटना चाहिए, कि मरम्मत करने की कितनी जरूरत होती है… ” दरिया में दबे हुए धागों उठो/ उठो कि कुछ गलत हो गया है/ उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा फिर से बुनना होगा/ उठो मेरे टूटे हुए धागों/ और मेरे उलझे हुए धागों उठो/ उठो कि बुनने का समय हो रहा है…/ … उठो कि ताना कहीं फँस रहा है/ उठो कि भरनी में पड़ गयी है गाँठ/ उठो कि नाव के पाल में/ कुछ सूत कम पड़ रहे हैं.”
पलायन को जो इतिहास और वर्तमान से भविष्य तक पसरा हुआ है, एक गाँव से दूसरे, किसी और शहर और महानगर… किसी एक जगह को छोड़ किसी दूसरे शहर जाना कुछ इस तरह टटोलता है कवि कि उसे ये सब बड़ा रहस्यमय लगता है, अनहोनी सा… सवाल कि… “कोई क्यों जाता है कहीं भी/ अपने शहर को छोड़कर/ यह एक ऐसा रहस्य है/ जिसके सामने एक शाम ठिठक गए थे ग़ालिब/ लखनऊ पहुँचकर…”  एक कवि हुए कवाफ़ी जो अपनी एक कविता में पलायन और किसी और बेहतर ठिकाने खोजने पर कहते हैं कि … “… तुम्हें नहीं मिलेगी कोई नई जमीन/कोई नया देश/ ये शहर तुम्हारा पीछा करेगा/ तुम भटकोगे इन्हीं गलियों में/ इन्हीं मुहल्लों में बूढ़े होंगे/ और इन्हीं घरों में जर्जर/ झुर्रीदार हमेशा/ आखिरकार तुम इसी शहर में पहुँचोगे/ किसी और शहर की उम्मीद मत करो/ कोई जहाज नहीं/ कोई रास्ता नहीं/ जैसे तुमने अपनी ज़िंदगी यहाँ खोई है/ यहाँ इस छोटे कोने में/ तुमने इसे खो दिया है पूरी दुनिया में…” ( कांस्टेनटाइन पी क़वाफ़ी, ‘द सिटी’ ).
केदारनाथ सिंह की एक कविता है ‘सन 47 को याद करते हुए’… छूटना एक वेदना है जिसकी टीस सहज ही इस कविता में अवतरित होती है.
कवि स्वयं से प्रश्न कर रहा है और संभवतः विश्व से और समय से, पढ़नेवाला भी कई ज़वाब खोजता दिखाई दे जाता है, विभाजन के बाद टूटते दीवार की लकीरें सामने आ खड़ी होती हैं जब कवि खुद से पूछते हुए ही यह कहते हैं… “…तुम्हें याद है मदरसा/ ईमली का पेड़/ इमामबाड़ा/ तुम्हें याद है शुरू से अख़ीर तक/ उन्नीस का पहाड़ा/ क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर/ जोड़-घटाकर/ यह निकाल सकते हो/ कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर/ क्यों चले गए थे नूर मियाँ…” विद्रोही भी अपनी एक कविता में विभाजन के समय को पेंट करते हैं और बहुत मार्मिक चित्र खींचते हैं, जैसे कोई एक पुरानी लंबी कहानी कविता में. ( नूर मियां/रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ )
केदारनाथ सिंह की कविताओं को पढ़ते हुए हम गाँव से शहर और शहर से गाँव सफर करते हैं, कवि जहाँ भी जाते हैं अपने साथ अपना पूरा समय लिए चलते हैं, अपनी भाषा और अपनी दृष्टि का सम्पूर्ण विस्तार भी. अपनी एक कविता में वह भाषा के बारे में कहते हैं कि…”हिंदी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर/ घर से निकलता हूँ/ तो चला जाता हूँ देश में /देश से छुट्टी मिलती है /तो लौट आता हूँ घर…” कवि को पढ़ते हुए भाषा को गढ़ने की कला का पता तो चलता ही है, यह भी कि अपने प्रान्त की बोली का इस्तेमाल रचनाशीलता को विस्तृत आकार भी देता है, कवि का कला के प्रति प्रेम उसके भाषा के प्रति प्रेम के समानांतर चलता है. कविता और कवि दोनों को पढ़ना उनके और समीप ले जाता है और कविताई की दृष्टि से भी भलीभाँति परिचय कराता है. यह भी कि कवि समय से और लोगों से जो वार्तालाप अपनी रचनाओं के माध्यम से कर रहा है, वह कितना प्रभावी है, अपनी सरलता में भी गूढ़ और अपने कलात्मक शिल्प में सबको छूते… अतीत, वर्तमान और संभावनाएँ. कविता के ऐसे कई खेत और कई सड़कों, पगडंडियों से गुजरता है मन, और ये भी समझते-जानते कि दुनिया को हमेशा से ही गर्म हाथों की तरह सुंदर होना चाहिए, प्रेम की इतनी सरस व्याख्या अपनी कविता ‘हाथ’ में करते हैं कवि.
बसंत का समय है तो कवि की बसंत पर ही एक कविता और कवि का संवाद…  “और बसन्त फिर आ रहा है/ शाकुन्तल का एक पन्ना/ मेरी अलमारी से निकलकर /हवा में फरफरा रहा है/ फरफरा रहा है कि मैं उठूँ/ और आस-पास फैली हुई चीज़ों के कानों में/कह दूँ ‘ना’/एक दृढ़/और छोटी-सी ‘ना’/जो सारी आवाज़ों के विरुद्ध/मेरी छाती में सुरक्षित है/ मैं उठता हूँ/दरवाज़े तक जाता हूँ/शहर को देखता हूँ/हिलाता हूँ हाथ/और ज़ोर से चिल्लाता हूँ –/ना…ना…ना मैं हैरान हूँ/ मैंने कितने बरस गँवा दिये/ पटरी से चलते हुए/ और दुनिया से कहते हुए/ हाँ हाँ हाँ…”
●●●
उत्कर्ष से yatharthutkarsh@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.

Categorized in:

Tagged in: