समीक्षा ::
प्रभात प्रणीत

कहानी एक अदना व्यक्ति की, असंख्य आंखों के सामने जीवित हाड़ मांस के पूरे वजूद के ओझल हो कर जीने की। कहानी शहर की गलियों की, गलियों के बीच उलझी सहर की, दोपहर की, सांझ की। और इनमें घट रही संवेदनाओं की, तड़प और छटपटाहट की। हृषिकेश सुलभ का उपन्यास ‘दाता पीर‘ तथाकथित सभ्य समाज के लिए अदृश्य, अवांछित टुकड़ों को समेटने, सहेजने और स्वीकारने की सफल कोशिश है। उपन्यासों का पारंपरिक अध्ययन एक केंद्रीय पात्र की मांग करता है, लेकिन यह उपन्यास इस मांग को एक भिन्न दृष्टि देता है। कई पात्र, सजीव, निर्जीव तत्व कुछ हिस्सों में केंद्र में दिखते हैं, और जब तक आप उससे बंधते हैं, उससे पूर्व ही एक अन्य पात्र केंद्र में आ खड़ा होता है। लेखक ने यह इतनी खूबसूरती से किया है कि यह सबकुछ सहज होता है और आप इसके साथ बहते जाते हैं। कब्रिस्तान स्वयं या वहां रहने वाली रसीदन, अमीना या फिर वहां पनाह लेने वाला साबिर या फिर अपने निष्कर्ष को वहीं प्राप्त करने वाला समद, सब के सब उपन्यास के एक हिस्से में केंद्रीय पात्र घोषित हो सकते हैं या फिर इनका इकट्ठा अस्तित्व केंद्रीय पात्र शब्द के साथ पूरा न्याय कर सकता है।

सुलभ जी के कहन की एक बड़ी विशेषता होती है, इनके पात्रों की सजीवता। यह बात आप इनके उपन्यास ‘अग्निलीक’ के लीलाधर, नबीहा, रेशमा, मुन्ने जैसे पात्रों को पढ़ते हुए भी महसूस कर सकते हैं और यही बात ‘दाता पीर’ के उपरोक्त वर्णित पात्रों को पढ़ते हुए भी देख सकते हैं। अत्यंत साधारण सी पृष्ठभूमि से कहानी में प्रवेश किया पात्र एकबारगी एक विस्तृत स्वरूप के साथ आपके समक्ष खड़ा हो जाता है। और आप बड़ी आसानी से इनसे जुड़ जाते हैं। फिर वास्तविक जिंदगी में आपकी दृष्टि में आपसे अब तक ओझल ऐसे तमाम चेहरों में आपकी दिलचस्पी जाग जाती है और यही लेखक की बड़ी सफलता है। पटना के एक पुराने मोहल्ले पीरमुहानी के एक कब्रिस्तान में बसे मुजाविरों के एक परिवार की कहानी कहते-कहते लेखक जिस तरह न सिर्फ हाशिए पर खड़े मुस्लिम समाज के भीतर के तहों की परत खोलते हैं बल्कि एक विकसित शहर के कोलाहल के बीचोबीच पसरी तन्हाई, जद्दोजहद को भी शब्दों से उकेरते हैं वह इस उपन्यास को खास बनाता है। हिंदी साहित्य में इस तरह के प्रयास कम ही हुए हैं। पटना शहर की विभिन्न गलियों, मोहल्लों, घाटों के बीच गढ़ी गई यह कहानी जिंदगी के तमाम रंगों को एक साथ समेटती है। इन गलियों को देखने का लेखक का नजरिया बहुत ही सूक्ष्म और गहरा है। इसे आप यह उपन्यास पढ़ते वक्त “सब्जीबाग एक ऐसा रंगमंच था, जिस पर कॉमेडी और ट्रेजडी एक साथ मंचित होता” जैसी पंक्तियों को पढ़ते वक्त बार-बार महसूस करेंगे। इन गलियों के इतिहास, भूगोल और सबसे बढ़कर इनके चरित्र का वर्णन इस उपन्यास का मजबूत पक्ष है।

मानवीय संवेदनाओं, प्रेम, ईर्ष्या, त्याग, वितृष्णा को प्रभावी ढंग से कहता यह उपन्यास अमीना और साबिर की कहानी कहते-कहते बार-बार ठिठकने को विवश करता है। अपनी पहचान के लिए जूझता साबिर और अपने अस्तित्व को तलाशती अमीना के बीच का कश्मकश, सिर्फ इनकी कहानी न हो कर मानव सभ्यता की भयानक असफलता और अपभ्रंश को भी बयां करती है, जिसमें व्यक्ति और उसकी मौलिकता दिन ब दिन गौण कर दी गई है। साबिर और अमीना के प्रेम का त्रासद अंत दरअसल इस तथाकथित सभ्य समाज की वह कुरूपता है जिसे झुठलाने के लिए तमाम आभासी आडंबर और मापदंड गढ़े जाते हैं और जिसे प्राप्त करने की कोशिश में हाँफती नस्लें नष्ट हो जाती हैं। हृषिकेश सुलभ जिस तरह अपने पात्रों को गढ़ते हैं, और उनकी कहानी कहते-कहते उनके चारों तरफ के संसार को जीवंत कर देते हैं यह विशेषता उनके लेखन को समृद्ध बनाती है। ‘अग्निलीक’ और ‘दाता पीर’ दो बिल्कुल भिन्न परिवेशों पर लिखी गई कहानी है। पात्रों की पृष्ठभूमि और कथा-वस्तु भी भिन्न है लेकिन लेखक की भाषा, विवेचन और प्रस्तुति एकदम सटीक और प्रासंगिक है। देवली, मनरौली जैसे गांव और पीरमुहानी, लोहानीपुर जैसे मोहल्ले की दुनिया के बीच का फर्क उपन्यास की पठनीयता को जरा भी अवरोधित इसलिए नहीं कर पाती क्योंकि हृषिकेश सुलभ की दृष्टि सूक्ष्म है, उन्हें मानवीय संवेदनाओं की परख है और उनकी समझ समग्र है। ये उपन्यास स्वाभाविक रूप से पुनः पाठ के लिए प्रेरित करते हैं।

विशाल फलक पर बड़े संदेश की चाह में तमाम उपन्यास लिखे जा रहे हैं और इनमें कई बार भीड़ का व्यक्ति, या फिर भीड़ में भी अस्वीकार्य व्यक्ति, समुदाय और उसकी जिंदगी साहित्यक वर्णन से वंचित रह जाती है, और मेरी समझ से यह लेखकों की सामूहिक असफलता है। हृषिकेश सुलभ अपने उपन्यास के माध्यम से इसी कमी को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि किसी भी भाषा का साहित्य तब तक वास्तविक अर्थों में पूर्ण और प्रासंगिक नहीं हो सकता जब तक उसमें पीछे छूट गए, छोड़े जा रहे, नजरंदाज किए जा रहे, निरीह चेहरों को जगह न मिले। यह अपनी प्रकृति में ही गंभीर प्रयास है जिसमें लेखक सफल रहे हैं।

•••

प्रभात प्रणीत कवि-उपन्यासकार हैं और हाल ही में प्रकाशित उनका उपन्यास ‘वैशालीनामा’ बहुत चर्चित रहा है। उनसे prabhatpraneet@gmail.com पर बात हो सकती है। 

Categorized in: