लेख ::
संजय कुंदन

नामवर सिंह ( 28 जुलाई, 1926- 19 फ़रवरी 2019 ) हिंदी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ हस्ताक्षर थें, जिन्होंने आलोचना को रूढ़िवादिता के आवरण से निकालते हुए उसे आधुनिकता की समानांतर रेखा में लाकर खड़ा किया. उनका जीवन हिंदी की विस्तृत सेवा में लगा रहा, जिसमें देश के सम्मानित विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य तो शामिल रहा ही, साथ ही आलोचना पर लिखी उनकी पुस्तकें और उनके व्याख्यान भाषा की पौध को आजीवन सींचते रहे. उनकी कुछ मूर्धन्य कृतियाँ हैं- आधुनिक साहित्य की प्रवृतियाँ (1954), इतिहास और आलोचना (1957), कविता के नए प्रतिमान (1968), दूसरी परम्परा की खोज (1982), कहना न होगा (1994), आलोचना और संवाद (2018) आदि.

२००२ में नामवर : आलोचना की दूसरी परम्परा नाम की किताब में यह लेख आया था. कमला प्रसाद इसके सम्पादक हैं. प्रस्तुत लेख में वरिष्ठ साहित्यकार संजय कुंदन ने नामवर सिंह पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उनकी दृष्टि और व्यक्तित्व पर बात की है.

मेरे विचार में नामवर जी की सबसे बड़ी खासियत है नयी रचनाशीलता के प्रति उनकी उत्सुकता. शायद यही उन्हें औरों से अलग करती है. बल्कि मेरा तो मानना है कि अपनी इस प्रवृत्ति के कारण ही वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ आलोचक हैं. आज शिखर पर पहुँचकर भी वे एकदम नए से नए रचनाकार को पढ़ते हैं और उनका मानस टटोलते हैं. डॉ. रामविलास शर्मा ने तो एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि वे नए रचनाकारों को नहीं पढ़ पाते. आज ऐसे कई वरिष्ठ रचनाकार या आलोचक हैं जो नए रचनाकार को पढ़ने की जरूरत नहीं महसूस करते. और यदि पढ़ते भी हैं तो उनपर लिखने और बोलने की उनकी मुद्रा ‘आशीर्वचन’ या ‘कृपा’ की रहती है. पर नामवर जी के साथ ऐसा नहीं है, वे नए रचनाकारों को कोई छूट नहीं देते. वे पूरी गंभीरता के साथ निष्पक्ष भाव से उनका मूल्यांकन करते हैं. वे एक नए रचनाकार को उसकी भावभूमि के करीब जाकर परखते हैं, तभी उसपर टिप्पणी करते हैं .उनका मानना है कि अबतक चले आ रहे सौंदर्यशास्त्र से नए रचनाकार का मूल्यांकन नहीं हो सकता. इसके लिए अलग दृष्टि जरूरी है.

अबतक जो मैंने उन्हें समझा है उससे यही लगता है कि साहित्य की जनपक्षधरता ही उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है. यही उनकी प्रतिबद्धता है और इस स्तर पर उन्होंने कोई समझौता नहीं किया. साहित्य को व्यापक मानवीय सरोकारों से काटने के कलावादी प्रयत्न का वे लगातार विरोध करते रहे हैं. उन्होंने भाषा और साहित्य के स्तर पर कलावादियों के छद्म को बेनकाब किया है. वे साहित्य की कथित ‘स्वायत्तता’ की अवधारणा का विरोध करते हैं. इसलिए वे राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थव्यवस्था, इतिहास – इन सभी क्षेत्रों का गहन विवेचन करते हैं. पिछले दिनों उन्होंने देशभर में जो व्याख्यान दिए हैं, उनसे उनकी बेचैनी का पता चलता है. उदारीकरण द्वारा भारत को आर्थिक रूप से ग़ुलाम बनाये जाने की साजिश पर भी लगातार बोलते रहे हैं. साम्प्रदायिकता और फासीवादी शक्तियों के उभार को लेकर वे अपनी चिंता व्यक्त करते हैं. साम्प्रदायिकता के विरोध में बुद्धिजीवियों- संस्कृतिकर्मियों द्वारा जो भी पहल की जा रही है, उनमें वे अनिवार्य रूप से शामिल हैं. साम्राज्यवादी और फासीवादी शक्तियों के खिलाफ आम जनता की एकजुटता के पक्षधर हैं. वे इस तरह के मुद्दों पर लेखकों को भी गोलबंद करना चाहते हैं.
इसलिए मैं उन्हें महज आलोचक के रूप में नहीं देखता, मैं उन्हें एक ‘सांस्कृतिक नेता’ के रूप में देखता हूँ.

ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ कविता को या प्रकारांतर से सम्पूर्ण हिंदी साहित्य को जानने-समझने की एक कुंजी थमा देते हैं बल्कि वे हिंदी भाषी क्षेत्र की जातीय परंपरा को समझने की दृष्टि देते हैं. इसलिए उनका लेखन साहित्यप्रेमियों के लिए ही नहीं इतिहास के छात्रों और समाजशास्त्र के अध्येताओं के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है.

उनका विरोध करनेवालों की संख्या बहुत है. पर उनके विरोधी भी उनको लिखकर चुनौती नहीं दे पाते. आजतक किसी ने उनके कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया. यह थोड़ी अतिशयोक्ति लग सकती है पर सच है कि पिछले कुछ वर्षों में जो आलोचनात्मक लेखन हुआ है उनमें नामवर जी के ‘कार्यों’ का ही दोहराव है. फिर मैं कहूँगा इसकी एक बड़ी वजह है- आलोचकों में नयी रचनाशीलता के प्रति उत्सुकता और ललक का अभाव. लेकिन इसके लिए यह भी जरूरी है कि आलोचक अपने अहं का त्याग कर नए रचनाकारों की रचनाओं तक पहुँचे. नामवर जी की एक विशेषता यह भी है कि वे अहं से मुक्त हैं. निस्संदेह उनकी उपस्थिति हम युवा रचनाकारों के लिए गर्व का विषय है.

संजय कुन्दन  प्रतिष्ठित कवि-कथाकार हैं.
इनसे sanjaykundan2@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
नामवर सिंह  की प्रयुक्त तस्वीरें गूगल से साभार प्रस्तुत.]

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