लेख ::
अंत का दृश्य और अदृश्य : अंचित
सब जानते हैं पासों का पलटना तय है
सब जानते हैं और फिर भाग्य पर दांव लगाते हैं
सब जानते हैं युद्ध ख़त्म हो गया
सब जानते हैं अच्छे लोग हार गए हैं
सब जानते हैं पहले से तय थी जीत और हार
गरीब गरीब रहेंगे, अमीर और अमीर
ऐसे ही चलती है दुनिया
सब जानते हैं.
— लेनर्ड कोहेन
थोड़ा ज़हर कभी-कभी : इससे सपने हसीन हो जाते हैं. अंत में खूब सारा ज़हर. एक ख़ुशनुमा मौत
— ज़िज़ेक
कि यह पहला उदाहरण नहीं है जब अंत का दृश्य इस तरह नुमायाँ हो रहा है. कि यह पहला वाक़या नहीं है कि इस तरह से लोग मारे जा रहे हैं, कि स्त्रियों और बच्चों को लेकर मानवता हमेशा क्रूर रही है, इसका यह पहला प्रदर्शन नहीं है. इतिहास के अंत की घोषणा के बाद समय जो तहों में सिमटा जा रहा है, हर तह पर खून के गहरे दाग हैं- हवाई जहाज़ों से गिरते हुए लोग, चीथड़ों में तलाशे जाते लोग, पेट में मार दिए जाते बच्चे और इन सब के छींटे हर जीवित व्यक्ति की देह पर. सिर्फ़ भर्त्सना से क्या होगा- इस प्रश्न की जटिलता स्वीकार करते हुए सीधे सीधे भर्त्सना करता हूँ.
समग्र चिंतन और गम्भीर विमर्श के साथ साथ व्यवहारिक ऐक्शन की बात भी जायज़ है और लोग इस बारे में लिख रहे हैं. जो दृश्य में है, जो दर्द, जो क्रूरता, हिंसा का चरम – वह कहाँ पैदा हुआ है, उसकी जड़ में खाद किसकी है और उसको नष्ट करने के लिए जो हथियार चाहिए, वे कहाँ हैं और अगर नहीं हैं तो क्यों नहीं हैं, ये सारे ज़रूरी सवाल है. जो हो रहा है, बस वहीं हो रहा है? उसको रोकने के क्या उपाय हैं? क्या यह दोहराया नहीं जाएगा? इस स्थिति में कवि क्या करे?एक सुर में हिंसा की आलोचना अब बीते वक्त की बात हो गयी है. हिंसा का संगठन, उसके प्रतिकार के संगठन से कहीं ज़्यादा मज़बूत है. ईगलटन ने एक जगह कहा था कि पूँजीवाद भविष्य की चिंता करता है, क्या जो हो रहा है उसको भविष्य की चिंता माना जा सकता है? और इन प्रश्नों के बीच दबा हुआ सबसे पुराना प्रश्न- बरसों पुराना – इन दोहरावों से निजात मिलेगी या नहीं. अगर आपको साफ़ उत्तरों की तलाश है तो यह लेख इसके आगे ना पढ़ें. स्पिनोज़ा कहते हैं कि सही प्रश्न, समाधान का ही हिस्सा होते हैं. और यही सीमा है मेरी, कि मेरे पास आपके लिए सिर्फ़ प्रश्न हैं.
मुझे एक फ़िल्म याद आती है- 2012. दुनिया ख़त्म हो रही है. अमेरिकियों ने एक जहाज़ बनाया है और उसके टिकट अमीर लोगों को बेच दिए हैं. नोआ के आर्क की तरह – जो उस जहाज़ में सवार होगा बच जाएगा. बाक़ी सब कुछ मिट जाएगा. फ़िल्म का नायक, अमेरिकी मध्यवर्ग का प्रतिनिधि उस पूरे तंत्र से लड़ेगा और सैकड़ों करोड़ों मरते हुए लोगों के बीच ख़ुद को और अपने करीबी दोस्तों को बचा लेगा. कुछ कुरबानियाँ देकर. एक क़ीमत होती है, जो देनी होती है, कि यह लगभग तय है कि भारत में रह रहा उसका वैज्ञानिक दोस्त भी उसके लिए लड़ेगा, जान देगा. बहरहाल…
हिंसा का संगठन मज़बूत क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर मुझे सिर्फ़ जेमिसन के एक पाराग्राफ़ में मिलता है जिसका अनुवाद कर मैं उसे अस्पष्ट नहीं करना चाहता —“Insofar as the theorist wins, therefore, by constructing an increasingly closed and terrifying machine, to that very degree he loses, since the critical capacity of his work is thereby paralysed, and the impulses of negation and revolt, not to speak of those of social transformation, are increasingly perceived as vain and trivial in the face of the model itself.” ये लम्बा वाक्य उस पैंडॉरा के बक्से को खोलता है, जिससे निकली बीमारियों को हमने ख़ुद से चिपकाया हुआ है. जो होगा/ हो रहा है, वह बार बार दोहराया जाएगा / गया है. कब तक? कविता क्या करेगी? साहित्य क्या करेगा?
फिर मैं बार बार यह सोचता हूँ कि आस्था का बोझ भी क्या हमने उस तरह ढोया है जिस तरह हिंसा का बोझ? मेरे कमरे में फ़िदेल कास्त्रो का एक रंगीन पोस्टर लगा है और मैं बार बार सोचता हूँ इसका मतलब क्या है? जेमिसन इस स्थिति से डरते हैं शायद इसीलिए प्रश्न करते रहते हैं या जेमिसन उस पीढ़ी से आते हैं जहाँ आस्था सूरज की तरह है? क्या हमारी पीढ़ी के आसमान पर कोई सूरज चमकता है? और यही संदेह प्रश्नों को प्रश्नों तक सीमित करता है. स्पिनोज़ा की बात का ऐंटिथेसिस बन जाता है. शायद पिछले पारा का भी. और सुविधा का मार्ग भी खोलता है.
क्या अंत का जो दृश्य नुमायाँ है, उसका अदृश्य यही है, अनंत है और समय का भक्षण कर चुका है?
क्रमशः…
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अंचित कवि-गद्यकार-अनुवादक हैं. उनसे anchitthepoet@gmail.com पर बात हो सकती है.