कविताएँ ::
रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’
तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो.
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुंह में लाठी ढकेल दूं,
या चींटी के मुंह में आटा गेर दूं.
और आप- आपका मुंह,
क्या चाहता है आली जनाब!
जाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो.
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं.
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी.
छोटों के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी.
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी.
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी.
कविता और लाठी में यही अंतर है.
दुनिया मेरी भैंस
मैं अहीर हूँ
और ये दुनिया मेरी भैंस है
मैं उसे दुह रहा हूँ
और कुछ लोग कुदा रहे हैं
ये कउन लोग हैं जो कुदा रहे हैं ?
आपको पता है.
क्यों कुदा रहे हैं?
ये भी पता है.
लेकिन एक बात का पता
न हमको है न आपको न उनको
कि इस कुदाने का क्या परिणाम होगा
हाँ … इतना तो मालूम है
कि नुकसान तो हर हाल में खैर
हमारा ही होगा
क्योंकि भैंस हमारी है
दुनिया हमारी है!
***
रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ हिन्दी के प्रसिद्ध कवि हैं . ‘नई खेती’ उनका एकमात्र काव्य संग्रह है. उन पर बनी फिल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूँ’ यहाँ देखी जा सकती है. हिन्दी कविता की दुनिया में विद्रोही की अराजक उठक-पठक अनूठी और अनुकरणीय है. उनका जीवन और उनकी कविताएँ उन नए कवियों के लिए एक टचस्टोन की तरह हैं जिनके लिखे का निर्धारण लाइकों, पोस्टरों और बाजार से होता है. पूंजीवाद और उससे उपजे विकार, सामंतवाद और उससे उपजे विकार विद्रोही की लाठी से टकराते हैं और चकनाचूर हो जाते हैं. उनकी कविताएँ एक विरले नायक-चरित्र का निर्माण करती हैं – जैसा लिखा, वैसा जिया.