गद्यांश ::
प्रेमचंद

प्रेमचंद के बेटे अमृतराय द्वारा लिखी गई अपने पिता की जीवनी बहुत सुंदर और सुपाठ्य है, जिसको पढ़कर हमें मुंशीजी के बचपन और फिर समूचे जीवन में झाँकने का सुअवसर मिलता है। प्रेमचंद का जीवन उनकी लिखी दास्तानों की ही तरह मर्मस्पर्शी वृतांतों और मनुष्यता की गहराइयों से भरा हुआ है। प्रेमचंद के जीवन में झाँकना, आदमी के आईने में ताकने जैसा है, जिससे इस आधुनिक समय में बिखरते हुए नैतिक-मूल्यों का सँवरना और सहेजना संभव हो सके।

प्रस्तुत गद्यांश हमें उस हर-दिल अज़ीज लेखक के जीवन, उनकी आत्मकथा और उनके व्यापक रचना-संसार की ओर ले जाने में अगर थोड़ी भी भूमिका निभा पाए तो हमें खुशी होगी।

प्रस्तुत पंक्तियाँ अमृतराय द्वारा लिखी हुई किताब ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ से साभार प्रस्तुत की जा रही हैं।

—सं.

१.

“उर्दू के एक नौजवान कवि, नाशाद, पहली बार प्रेमचंद से मिलने के लिए लखनऊ पहुँचे। उन्हें जगह का तो पता था पर मकान का ठीक-ठाक पता न था। अतः उन्होंने सड़क पर चलते एक आदमी से, जो बस एक मटमैली-सी धोती और बनियान पहिने था, पूछा, “आप बतला सकते हैं, मुंशी प्रेमचंद कहाँ रहते हैं?”।
उस आदमी ने कहा, “जरूर, बहुत ख़ुशी से।” फिर वह आगे-आगे चला और नाशाद उसके पीछे-पीछे चले। ज़रा देर में घर आ गया। दोनों सीढ़ी चढ़कर ऊपर पहुँचे, पहली मंजिल पर, एक बहुत ही खाली-खाली कमरे में। वहाँ उस आदमी ने नाशाद को थोड़ी देर बैठने के लिए कहा और अंदर चला गया। फिर तुरत-फुरत कुर्ता पहनकर बाहर आया और हँसकर बोला, “लीजिए, अब आप प्रेमचंद से बात कर रहे हैं।”

२.

प्रेमचंद ने अपने बारे में यह कहा है:

“मेरा जीवन एक सपाट, समतल मैदान है जिसमें कहीं-कहीं गढ्ढे तो हैं पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी।”

३.

“पाँव पर जूते न थे, देह पर साबित कपड़े न थे। महंगाई अलग- दस सेर के जौ थे। स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी। काशी के क्वीन्स कॉलेज में पढ़ता था। हेडमास्टर ने फीस माफ कर दी थी। इम्तिहान सर पर था, और मैं बाँस के फाटक एक लड़के को पढ़ाने जाता था। जाड़ों के दिन थे। चार बजे पहुँचता था। पढ़ा कर छः बजे छुट्टी पाता। वहाँ से मेरा घर देहात में पाँच मील पर था। तेज़ चलने पर भी आठ बजे से पहले घर न पहुँच सकता। और प्रातः काल आठ ही बजे फिर से चलना पड़ता था, न ही वक्त पर स्कूल पहुँचता। रात को भोजन करके कुप्पी के सामने पढ़ने बैठता और न जाने कब सो जाता। फिर भी हिम्मत बाँधे हुए था।”

४.

…बनारसीदास चतुर्वेदी के नाम एक और ख़त में, जापानी कवि योने नागूची से मिलने के लिए कलकत्ते जाने का निमंत्रण अस्वीकार करते हुए, प्रेमचंद ने अपने भीतर की दुनिया पर कुछ और रौशनी फेंकी:

“बड़े-बड़े दिमागों की दुनिया में कमी नहीं है, ढेरों पड़े हैं। सच्ची महानता और नक़ली महानता में फर्क़ कर सकने के लिए बड़ी न्यायबुद्धि चाहिए। मैं ऐसे महान आदमी की कल्पना ही नहीं कर सकता जो धन-संपत्ति में डूबा हुआ हो। जैसे ही मैं किसी आदमी को धनी देखता हूँ, उसकी कला और ज्ञान की सब बातें मेरे लिए बेकार हो जाती हैं। मुझको ऐसा लगने लगता है कि इस आदमी ने वर्तमान समाज-व्यवस्था को, जो अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण पर आधारित है, स्वीकार कर लिया है।…यह बहुत संभव है कि मेरे मन के ढाँचे के पीछे जीवन में मेरी अपनी असफलता हो। हो सकता है कि बैंक में मोटी रक़म रखकर मैं भी औरों जैसा ही हो जाता- उस लोभ का संवरण न कर पाता। लेकिन मैं ख़ुश हूँ कि प्रकृति और भाग्य ने मेरी मदद की है और मुझे गरीबों के साथ डाल दिया है। इससे मुझे मानसिक शांति मिलती है।”

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यहाँ प्रस्तुत तस्वीरें मुंशी प्रेमचंद के पैतृक गाँव लमही की हैं। क्लिक : बालमुकुन्द।

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