आलेख ::
बड़े प्रश्न १ : अंचित
जंब्रा की एक मज़ेदार किताब दोबारा पढ़ रहा इन दिनों। और बेकन को याद करते हुए यह कह दूँ कि धीमे-धीमे चुभलाते हुए। कभी-कभी दो दिनों तक भी उस किताब तक नहीं लौट पाता। ऐसे में किसी ने कहा कि मुझे ‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ देख लेनी चाहिए और इस ताकीद के साथ कि पाँच एपिसोड हैं और यह कि पसंद आएगी। निर्मल का नाम निर्मल इसीलिए है कि उसके पिता जी को निर्मल वर्मा की किताबें पसंद हैं और निर्मल पाठक और निर्मल वर्मा के बीच की समानता यहीं ख़त्म हो जाती है(?) निर्मल जी की भारत-व्याकुलता, मार्क्सवाद की समझ, भाजपा से नज़दीकियाँ आदि तो अब किंवदंतियाँ बन चुकीं हैं जिन पर अलग से बात करने की ज़रूरत नहीं लगती, न उनसे किए जाने वाले प्रश्न अब बड़े प्रश्नों की श्रेणी में आते हैं।
सीरीज़ देखते हुए बार-बार मुझे ‘स्वदेश’ फ़िल्म की भी याद आती रही और दोनों के बीच में एक तुलना करने की इच्छा से जूझता रहा। स्वदेश का बाहरी आडम्बर और कथा ऐसी है कि लगता है कि दूर देश से ‘the prodigal son’ लौटा है और अपने लोगों से जुड़ते हुए वह अपने गाँव की प्रगति का कारक बनता है। ऐसा लगता है कि यहाँ कावेरी अम्मा का किरदार बहुत महत्वपूर्ण है जो देश छोड़ चुके ‘मोहन भार्गव’ में इस बदलाव का कारण बनती हैं और मोहन गाँव रुक जाता है। अपने कारवाँ वैन में रहने से और मिनरल वाटर पीने से लेकर घर के आँगन में सोने और ट्रेन में ख़रीद कर पानी पीने तक का सफ़र मोहन करता है। ध्यान देने वाली बात है कि मोहन ‘बाहरी’ है, कावेरी अम्मा उसकी दाई माँ है, वह नासा में काम करता है और पहले सिर्फ़ कुछ समय के लिए गाँव आया है। गाँव के प्रति उसके दिमाग़ में एक रोमांटिक छवि तो है पर एक दूरी का/ अन्य का भाव भी है। यहाँ से वह गाँव में बिजली लाने की यात्रा शुरू करता है, कुरीतियाँ उसका रास्ता रोकतीं हैं तो लड़ता है आदि। लेकिन मोहन भार्गव कौन है? यही प्रश्न फ़िल्म का भेद खोलता है। मोहन वह संत-नायक है जिसने ईसा की तरह पूरे गाँव का बोझ अपने सिर पर लिया है लेकिन पूँजीवादी युग का यह नायक होमेरीयन ओडिसस की तरह है जो सूली पर नहीं चढ़ता, और तंत्र सुधारता है। ज़ाहिर है यह एक अति प्राचीन निष्कर्ष है और इसीलिए ‘स्वदेश’ एक अति-साधारण सूडो-सुधारवादी पूँजीपक्षी फ़िल्म भर ही रहती है और नवउदारवादी बुर्जुआ संस्कृति का एक उत्पाद बन कर रह जाती है जिसके लिबरल तमाशे समस्या की तह तक न जाकर मध्यवर्गीय तुष्टिकरण का काम करते हैं। (अगर कोई कठोर होना चाहता तो यह कहता कि Freud को याद करना चाहिए जो हर बात को, हर तरह की फ़ेटिश को यौनिकता से जोड़ कर देखते हैं।)
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फिल्म ‘स्वदेश’ के एक दृश्य में कावेरी अम्माँ और मोहन भार्गव
माँ के किरदार का केंद्र में होना- क्या इसे सब्वर्ज़न मान सकते हैं?“निर्मल…” में क्या होता है? निर्मल घर लौटा है। घर में उसकी माँ है जिसको उसका पति छोड़कर चला गया था। (एक अति प्राचीन कथा में एक बाप के घर से चले जाने के बाद माँ ने दूसरा प्रेमी कर लिया है और पिता की घर वापसी पर प्रेमी के साथ मिल कर उसकी हत्या कर देती है। वहाँ भी जो मुख्य प्रश्न है वह यही है कि बेटे का कर्तव्य क्या हो? माँ से प्रेम या पिता का बदला?) यहाँ एक पूरा परिवार है, एक परम्परा है और एक गाँव है जिसकी एक ऐतिहासिकता है। निर्मल लौटा है और निर्मल अन्याय देख रहा है। फिर यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र में उसकी माँ है जो घर का सारा काम करती है जिसने पिता के साथ घर इसीलिए नहीं छोड़ा क्योंकि वह परिवार की बड़ी बहू थी और ऐसा लगता है कि नायक इसके ख़िलाफ़ विद्रोह करेगा। उससे माँ का दुःख बर्दाश्त नहीं हो रहा और कई बार यह कहा जाता है कि उसमें अपने बाप का खून है इसीलिए उससे बर्दाश्त नहीं हो रहा। या क्या निर्मल की पीठ पर भी ‘the ghost of the father’ है? यह भी याद दिला देना चाहिए कि अस्थियों के रूप में निर्मल के पिता की एक भौतिक और मनोवैज्ञानिक उपस्थिति बनी हुई है। यहाँ तक ऐसा लगता है कि बिसात बिछ गयी है और नायक के सामने जो प्रश्न हैं वे साफ़ हैं। कावेरी अम्मा की तरह यहाँ भी माँ हैं। (कई बार लगता है कि ये क़िस्से कहीं हैम्लेट की retelling तो नहीं और possession of mother की इच्छा से ही तो गाइड नहीं होते?) बहरहाल, मोहन बाहरी था लेकिन क्या निर्मल बाहरी है और ईसा मसीह कॉम्प्लेक्स से यहाँ आया है? चूँकि अभी एक सीजन ही आया है तो आगे क्या घटेगा यह कहना मुश्किल है (उतना भी नहीं)। अस्थियों के मिलने से लेकर निर्मल की माँ की नींद में चलने की बीमारी तक दर्शक असहज होने लगता है। यह भी लगने लगता है कि निर्मल का पात्र दूरी नहीं बनाता/ अन्य-निर्माण नहीं हो रहा बल्कि वह तो स्त्री अधिकारों की बात कर रहा है, अछूतों के यहाँ खाना खा रहा है और सबसे बढ़कर इन्वाल्व्ड है। माँ पात्र का केंद्र में होना क्या किसी प्रकार का सब्वर्ज़न है?
और अंत में यह कि क्या निर्मल मोहन भार्गव से अलग है? क्या यह वेबसीरीज़ बाइनेरी के निर्माण की परतें उघाड़ती और उसके ध्वंस की प्रक्रिया को लेकर आगे बढ़ रही है और वर्ग विशेष के फ़ेटिश-लालसाओं के तुष्टिकरण से आगे बढ़ कर बात करती है? मुझे नहीं लगता। और इसीलिए निर्मल वर्मा की किताबों की उपस्थिति शायद पूरी सीरीज़ की वैचारिकी का सबसे सही प्रतीक बनती है। नायक की माँगें उदारवादी माँगें हैं यह समझना कोई बहुत कठिन बात नहीं लगती जिसका सिरा उत्तरआधुनिकता की उस दीवार से अटका है जो फूस की है और किसी भी दिन शोषण को असल तौर पर रोकने के लिए नहीं बल्कि आवश्यकता अनुरूप अभिजात्य नायक की सर्दी कम करने के लिए जलावन बनाने के काम आता है। उदाहरण के तौर पर कॉन्फ़्लिक्ट (सही या नक़ली) की परिस्थिति आने पर निर्मल पाठक दुनिया की सबसे शोषक और पुरानी संस्था की ओर लौटता है और उसका एक वाक्य जो दरअसल सुनाई इस तरह से देता है कि वह the ghost of the father का निरस्तीकरण है, अंतत: उसी ghost की पुनर्स्थापना है। (भारतीय राजनीति में कन्हैया कुमार से लेकर हार्दिक पटेल तक की यात्रा इसी तरह से देखी-समझी जा सकती है)यह रोचक है कि निर्मल पाठक के पिता का नाम मोहन पाठक है। “मैं मोहन नहीं हूँ जिसे आप घर से निकाल देंगे” कहने वाला निर्मल इस वाक्य में मोहन ही हो जाता है और पितृसत्ता की संस्था में उसकी ‘घरवापसी’ होती है। इस नाते सीरीज़ अपने शीर्षक को सिद्ध करती है। निर्मल पाठक भी अंत में मोहन भार्गव की तरह पूँजीपक्षी तंत्र का नायक साबित है और उसी उदारवादी शोषक परम्परा का उत्तराधिकारी साबित होता है जहाँ सुधारवाद का मतलब ही क्रांति समझा जाता है।
यह कहने की बात नहीं है कि पूँजीवाद जनित उत्तरआधुनिक नवउदारवादी विमर्श जो absolvement of sin या फिर disappearance of guilt (जो पूँजी की सत्ता से पैदा हुए शोषक समाज की सबसे प्रकट पहचान है) की चाह की तुष्टि करता है यहाँ भी लक्षित होता है और पूँजी की सत्ता जिससे अन्य सांस्थानिकताएँ और उपसत्ताएँ निर्मित हैं उनको पुनर्स्थापित करता है। जो समाज या प्रगतिशीलता इस नैतिकता का समर्थन करेगी और इसका अनुमोदन करेगी, उसकी नैतिकता की अभिजात्यता के बारे में कुछ अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है। बड़ा प्रश्न मूल में यही है कि इस षड्यंत्र से लड़ने का उपाय क्या है और इन परिस्थितियों में किन संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है जो कि असल बदलाव की बात करेंगी?
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अंचित कवि हैं। उनसे anchitthepoet@gmail.com पर बात हो सकती है।
बड़ा प्रश्न मूल में यही है कि इस षड्यंत्र से लड़ने का उपाय क्या है और इन परिस्थितियों में किन संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है जो कि असल बदलाव की बात करेंगी? सही किया कि अंत तुमने इस पंक्ति से किया है क्योंकि स्वदेश भार्गव से निर्मल पाठक की घर वापसी के बावजूद यह ज़रूरी प्रश्न है। तुम्हारी स्मृति को भी अच्छे अंक दूंगी कि तुमने बहुत ही ज़हीनी तौर पर कम्पेयर किया है और चूक भी रेखांकित हुई है ।
स्वदेश देखी है इसे भी देखती हूँ।