लेख ::
संजय कुंदन

प्रस्तुत लेख, सौमित्र मोहन की सम्पूर्ण कविताओं के संग्रह ‘आधा दिखता वह आदमी’ के प्रकाशन के तुरंत बाद एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। यह लेख न सिर्फ़ सौमित्र मोहन की कविताओं के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता है, हिंदी काव्य परम्परा में अकविता और इस शब्द से समकालीन हिंदी कविता के सम्बन्धों का भी एक जायज़ा लेता है। जिसको अकविता कह कर ख़ारिज किया जाता है, उस पर एक समकालीन बहस शुरू हो सके, यह भी एक कामना है। – सं.

पिछले दिनों हिंदी के प्रख्यात कवि सौमित्र मोहन की संपूर्ण कविताओं का संग्रह ‘आधा दिखता वह आदमी’ प्रकाशित हुआ है। सौमित्र मोहन को  ‘अकविता’ का प्रतिनिधि कवि माना जाता रहा है, हालांकि वह स्वयं को उससे जोड़कर नहीं देखते। वह कहते हैं, ‘मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खाँचे में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है। मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है– इसमें अतियथार्थवादी बिम्बों, फैंटेसी और इरॉटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है। अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है। जो बाहर है, वही भीतर है। मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं।’ दरअसल सौमित्र मोहन जिस दौर में लिख रहे थे, उसमें अकविता आंदोलन की प्रमुखता रही और उसका प्रभाव हरेक कवि पर किसी न किसी रूप में रहा। संभवत: यह हिंदी कविता की एकमात्र धारा है, जिसे बार-बार कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है, कभी भाषा को लेकर, कभी यौन संदर्भों के प्रयोग को लेकर तो कभी विदेशी प्रभाव को लेकर। अकविता का चरित्र और उसकी भाषा हिंदी कविता की मुख्यधारा से अलग जरूर रही है पर यह कहना ठीक नहीं होगा कि यह हिंदी की काव्य परंपरा से एकदम विच्छिन्न और थोपी हुई काव्यधारा है। इसका अपने पीछे और बाद की कविता से किसी न किसी रूप में जुड़ाव है। दरअसल अकविता इस बात का उदाहरण है कि किसी कालखंड विशेष में होनेवाली सामाजिक हलचलें किस तरह बौद्धिक-रचनात्मक जगत में अपने तरीके से व्यक्त होती हैं। अकसर कोई हिलोर उठता है और साहित्य-संस्कृति के स्तर पर खलबली मचा जाता है। और उस हिलोर के थमते ही अभिव्यक्ति के स्तर पर भी उसकी उत्तजेना समाप्त हो जाती है।

साठ का दशक पूरी दुनिया में एक खास तरह की बौद्धिक हलचल का समय था। इस दौरान भारत में एक तरह का मोहभंग देखा गया। आजादी के जो सपने थे, वे टूट गए। साधारण आदमी में यह अहसास प्रबल था कि जो सपने हमने देखे थे वे पूरे नहीं हुए। संयोग से यही स्थिति विश्व स्तर पर थी। गिन्सबर्ग जैसे कवि पूंजीवाद की कटु आलोचना कर रहे थे। वे तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को नकार रहे थे और एक वैकल्पिक संस्कृति की वकालत कर रहे थे। इसी क्रम में विश्व स्तर पर अनेक क्षेत्रों में कई तरह के प्रयोग हो रहे थे। संगीत और फिल्मों में नई धाराएं आईं। फिल्म में यह कुरोसावा और गोदार का समय था।

अकविता के कवि मध्यवर्गीय युवक थे जिनका पूरी दुनिया के साहित्य से सीधा परिचय था। यह पीढ़ी अंग्रेजी पढ़ी- लिखी थी। यह ‘प्लेबॉय’ और ‘एनकाउंटर’ जैसी पत्रिका पढ़ती थी। वह बिटनिक  आंदोलन और पॉप कल्चर से प्रभावित थी। उस समय नई कविता के प्रतिष्ठित कविगण युवा पीढ़ी को कोई खास तवज्जो नहीं दे रहे थे। ऐेसे में उस दौर की कविता खीझ और गुस्से से पैदा हुई कविता है। चूंकि नाराज और असंतुष्ट व्यक्ति हर चीज को नकारता है इसलिए इसमें नकारने की प्रवृत्ति है, लेकिन वह अराजक नहीं है क्योंकि इसके पीछे एक संवनेदनशील दृष्टि भी है। इस कविता का कवि बिटनीक कविता की भाषा के ढांचे से प्रभाव ग्रहण कर रहा था क्योंकि वह अपने ही बनाए दायरे में कैद रहा है। वह अपने समाज और व्यापक जनसमुदाय से काफी हद तक कटा हुआ भी रहा है।

सौमित्र मोहन की कविता के केंद्र में एक सामान्य आदमी है, जिसे आजादी के बाद भी कुछ नहीं मिला। वह बड़ी कठिनाई से अपना जीवन जीता है। वह देख रहा है कि भ्रष्ट तत्व उससे कहीं ज्यादा बेहतर जीवन जी रहे हैं। चारों और बेईमानी का बोलबाला है। ऐसे में वह खुद को छला हुआ महसूस करता है। उसके भीतर हताशा और कुछ हद तक कुंठा भी आ जाती है। उसकी हालत देखिए:

जैसे अपने यहाँ कुछ फेंका नहीं जाता
रद्दी अखबारों तक को
उसकी जिंदगी में भी
हर वह चीज बनी रही थी
जो टूटने के बाद भी इस्तेमाल
होती रह सकती थी।
(हर वह चीज़)

बदलाव के तमाम दावों के बावजूद समाज में कोई परिवर्तन नहीं आया है। स्त्री की स्थिति और भी विकट हो गई । एक आम घरेलू औरत की नियति कष्ट भोगना ही है। ‘गृहस्तिन’ की यह तस्वीर देखिए:

वह बातें करती है
और रोती है।
और चुप रहती है
और हंसती है
वह कुछ नहीं करती
और सभी कुछ सहती है।

सौमित्र मोहन की कविता ‘लुकमान अली’ हिंदी की उपलब्धि कही जाती है। प्रगतिवादी कविता के आधार स्तंभ केदारनाथ अग्रवाल ने इसके बारे में कहा है ‘फन्तासी’ की यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है।’ सौमित्र मोहन अपनी अलग-अलग कविताओं में एक साधारण आदमी के चित्र खींचते हैं,जिनका एक चरम रूप या एक संघनित रूप इस कविता में मिलता है। लुकमान अली का बौना होना भी एक रूपक है, जो एक साधारण आदमी की लघुता को दिखाता है। वह शरीर से छोटा है, उसकी सोच और उसका व्यवहार अशिष्ट और अभद्र लगता है लेकिन वह पाता है कि समाज का प्रतिष्ठित और संभ्रांत तबका उससे कहीं ज्यादा अभद्र और अशिष्ट है। यह अलग बात है कि उसने अपने ऊपर सभ्यता का आवरण ओढ़ रखा है। जब लुकमान अली को पता चलता है कि अन्याय,भ्रष्टाचार और मूल्यहीनता के खिलाफ नारे लगाने वाले किस हद तक गिरे हुए हैं तो उसे अपने बौने होने पर कोई अफसोस नहीं होता। इस तरह लुकमान अली के जरिए सौमित्र मोहन व्यवस्था के नियंताओं के दोहरे चेहरे को उजागर करते हैं। वह हमारी व्यवस्था की विद्रूपता से पर्दा हटाते हैं। लुकमान अली एक मामूली आदमी है और उसका दुख-दर्द एक औसत कमजोर आदमी का दुख-दर्द बन गया है। उसे लगने लगा है कि पूरी व्यवस्था पर मुट्ठी भर लोगों का कब्जा है। चुनाव बस एक पाखंड से ज्यादा कुछ नहीं रह गया है। सौमित्र मोहन लिखते हैं:

वह जानता है कि चुनाव
लोगों की राय का प्रतीक नहीं, धन और धमकी का अंगारा है
जिसे लोग अपने कपड़ों में छिपाए पानी
के लिए दौड़ते रहते हैं।

लुकमान अली तत्कालीन समाज में बढ़ रही स्वार्थपरता, मौकापरस्ती और चापलूसी इन शब्दों में एक्सपोज करता है:

वह जानता है कि लोग तब ईमानदार नहीं होते जब
वे नौकरियों की छ्लाँग लगा रहे होते हैं।
वह उनकी पसलियों में रेंगती चापलूसी को अमर बनाकर
हमेशा के लिए भाग जाना चाहता है।

सौमित्र मोहन और उनके समकालीन कवियों ने भाषा-शिल्प में कई प्रयोग किए। कई बार ये महज प्रयोग के लिए प्रयोग भी मालूम होते हैं। सौमित्र मोहन की कविताओं में फिल्म, नाटक और चित्रकला की शब्दावली का प्रविधि के रूप में रचनात्मक इस्तेमाल हुआ है। दरअसल उनके लिए भाषिक संरचना में परिवर्तन एक अहम काव्यगत मूल्य है। वे लिखते हैं-

कविता के रूपक की सलाखें तोड़ी जा रही हैं
और मृत शब्दों की अर्थियाँ भारी होती जा रही हैं। (झील)

इसी तरह एक और प्रयोग देखिए:

कई छोटे बच्चे और आवारा कुत्ते 
                              मनकों की तरह यहाँ वहाँ
                              बिखरे हैं
किसी फिल्म का एक चाक्षुष बिंब बनाते हुए। (देखना-2) 

इस संग्रह की अनेक कविताओं में चित्र फिल्मों के शॉट्स की तरह ही आए हैं। कई जगहों नाटकों के संवाद का सहारा लिया गया है। ‘लुकमान अली’ में क सिंह ख सिंह ग सिंह जैसे कई पात्र आए हैं। कविताओं में कई जगहों पर शब्दों को इस तरह से सजा कर रखा गया है कि एक खास संरचना दिखती है। इस तरह उनकी  कविता अनके विधाओं में आवाजाही करती है। कुल मिलाकर यह एक ऐसा संग्रह है, जो हिंदी कविता के एक विशेष आयाम से परिचित कराता है। स्वदेश दीपक के शब्दों में कहें तो सौमित्र मोहन का लेखन अपने आप से लड़ाई का दस्तावेज है।

[पुस्तक: आधा दिखता वह आदमी, सौमित्र मोहन, संभावना प्रकाशन, रेवती कुंज, हापुड़-245101, मूल्य: 395 रुपये।]

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संजय कुंदन हिंदी के चर्चित कवि-उपन्यासकार हैं। उनसे sanjaykundan2@gmail.com पर बात हो सकती है।

 

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