नए पत्ते::
कविताएँ: मनीष यादव

1.

धान के ओसौनी से भरे जिस माथे में ललक थी कभी अफसर बनने की
वह व्यस्त है आजकल
भात और मन दोनों को सिझाने में!

उसने तो नहीं कहा था—
बावन बीघा वाले से ब्याह दिया जाए उसे
जहाँ उसका महारानी बनना तय हो।

सकपका जाती है
नहीं पूछती है
किंतु एक सवाल जो आत्मा की तह से उठ रहा—

जो नौकरी को नौकर का काम समझते हैं
वह घर की औरतों के काम को क्या समझते होंगे?

आलते से गोड़ को रंगती है
कमर में खोंसती है साड़ी का कोर
धम-धम महकती,
रही से घोंट कर बनाती है साग लाज़वाब

वो जिसे कभी जिले की अशिक्षित महिलाओं के रोजगार का
रोडमैप बनाना था!

बुदबुदाती है वो—

“सब जानती थी माँ
माँ को पिता ने समझाया ‌
माँ ने उसे बहलाया, फुसलाया और भरोसा दिलाया

नहीं दीखती है अब कोई राह और नहीं मिलती है
नईहर में जाने पर मिट्टी की वो कोठी
जिसमें छुपा दिए गए हैं उसके सारे बुने स्वप्न।”

पुन:
कोई पुकार आती है
ध्यान बँटता है
और उससे पूर्व आता है एक वाक्य— धत पागल हो क्या!

आत्मा के मध्य धीमी जलती आँच
किसी दिन जरूर विद्रोह करेगी और लड़ेगी अपने ‘मैं’ के लिए।

तब तक देश के किसी और कोने की
अख़बार में आई एक खबर पढ़ रहा हूँ—

कहीं छिटकनी लगी है
औरत के गले की नस चटक गई है

रस्सी से या लात से? अभी तफ्तीश जारी है।

2.

‘धप्पा’ के जैसे अचानक
उसके जीवन में हो गई ब्याह की संधि

वह कौन है जो कहता है—
लड़की जितना पढ़ेगी
उतना खर्च बढ़ेगा ब्याह में करने को!

उसकी अम्मा का पैमाना कहता—
लड़की को हमेशा अपने से ऊंचे ओहदे के परिवार में विदा करना चाहिए
इस भय से उसने अपनी लड़की का ओहदा कमतर ही रखा।

यह बात नयी न होते हुए भी कितनी नयी है कि
माथे का बोझ बता उस लड़की को
आठवीं कक्षा के चौदहवें वसंत के पश्चात ब्याह दिया गया
विलायती मजदूर के साथ

हर बरस उसे देखते हुए मैं सोचता हूँ
औसत होते हुए भी
कितना कठिन है उसका जीवन

हर बरस पति के दो महीने के आगमन पर
करती है ससुराल को प्रस्थान
गले से निगलती है जबरदस्ती का कौर

पति कहता है—
दूर देश साथ ले जाने पर बिगड़ जाती हैं पत्नियाँ
इसलिए लौट आती है अपने घर वापस
पुन: फसल बोती है, और काटती भी
वैसे ही जैसे
पिछले पाँच सालों में वो जन चुकी है चार बच्चे।

मैं पूछना चाहता हूँ कि
ये कैसा एग्रीमेंट है
जो उसकी रीढ़ को
पेट से बाहर निकालने को आतुर है।

3.

जिस आगमन के पदचिन्ह के लिए पुत गए थे घर के सारे दीवाल
अचानक वो समूचे रंग काटने को दौड़ने लगे!

मैं भूल गई
परछाईं और देह के वर्ण का अंतर
खटतरुस हो गया जैसे जीभ का हर स्वाद
क्या प्रायोजित था तुम्हारा लौट जाना?

जैसे किसी ने सारी हवा को उतार लिया हो अपने कंठ के भीतर
तुमने पलक झपकाई
और अटक गयीं हों तुम्हारी साँसें

एकाएक सोचती—
किसी जादूगर ने कैद कर दिए हों गुड़िया के अंदर तुम्हारे प्राण
तब ढूँढती रही मैं तुम्हें वापस लाने के टोटके।

हाँ! ये वही दिन थे
जब अनाथ हो गया था मन,
फूलती थी रोटी के साथ मेरी हर श्वास।

उन दिनों
न खोज़ सकी वो मित्र
जो मेरी पीड़ा की ध्वनि को चुपचाप सुने
फिर पढ़ना शुरू करे अनुराग अनंत की कविता की वो पहली पंक्ति—

“फिर एक शाम जैसे सारी सुंदरता चली गई!”

4.

नौकरीपेशा स्त्रियों के काम
पुनः घर लौटते ही आलान पर टंगे मिले

अपना प्रिय दु:ख ही तो हुआ सच्चा साथी
जो प्रतिदिन छत पर कपड़ों की भाँति पसरा हुआ मिला

अपने सुखों के चिथड़ों की जवाबदेही
केवल उनकी ही नहीं
तब भी किश्तों में क्यों बँध गई उनकी ज़िंदगी?

दफ़्तर जाने वाली वो औरतें
अधिकारी, शिक्षिकाएं, डाॅक्टर थीं

पर अधिकारियों ने भी सहा शोषण
शिक्षिकाओं ने भी ग्रहण किया बेतुका ज्ञान
एवं डॉक्टरों ने भी छिपाया अपना मानसिक टॉर्चर

महीन धागों से लिपटे
इन रिश्तों को बचाने की कोशिश में शिक्षिकाएं नहीं सिखला पाई अपने पुरुष को—
थकने के पश्चात पुन: न थकने का विज्ञान!

हजार प्रयत्नों के उपरांत भी
उनके पुरुषों ने प्राप्त किया कमासुतों की सूची में प्रथम स्थान

उसने पूछा कि पुरुष
तुम्हारे हसीन ट्रिपों के बीच होते बहसों का तुम्हारे पास क्या उत्तर था?
और बताओ तुम— मेरे पसंदीदा गीतकार के कैसेट को तोड़ने का कोई तुक!

तुम इर्ष्या से भरे पुल में डूब रहे थे
और मैं तुम्हें बचाते हुए।

अंततः तुमने केवल चाहा
देहरी पर जो एक दरवाज़ा लगा है उसे सदैव तुम्हारी स्त्री खोले,
तुम लौटो, बैठो और कहो—

प्रिय कितने व्यस्त हैं हम-तुम अपने कामकाज़ में
चलो कुछ सुखद समय व्यतीत करते हैं!

तब सोचो कि
आखिर क्यों तुम पहले जाकर मुंह-हाथ धोते हो
और मैं अपने थके हाथों से तैयार करती हूँ
तुम्हारे पसंदीदा गोंद के लड्डू।

5.

परिणय-सूत्र से बँधा
वही पुरुष
प्रिय के केशों से लिपटी सुगंध लिये
फाल्गुन मास के बाद कमाने चला गया

मन के प्रवेश द्वार पर बैठी
अकुलाहट से भरी स्त्री सोचती है—

किसी की अर्धांगिनी बन
पूरे बरस तक
अगले वसंत की प्रतीक्षा में
दिन किसके ज़्यादा भारी होते होंगे?

धान काटती हुई औरत के
या दिन काटती हुई औरत के!

•••

मनीष यादव आते हुए कवि हैं और वे पटना में रहते हैं। उनसे manishraj5535@gmail.com पर बात हो सकती है।