नए पत्ते::
कविताएँ: राज भूमि
मिट्टी का घड़ा
ये उस वक़्त की बात है,
जब गीली मिट्टी,
घड़े का आकार ले रही थी।
बारिश के आगे-आगे दौड़ते हुए
घर पहुंचना,
किसी मैराथन से कम नहीं था।
और कोयल की कूक पर,
ऊँचे सुर का रियाज हुआ करता था।
ये उस वक़्त की बात है,
जब जुगनुओं की रोशनी में,
आँखें चमक उठती थीं।
कहीं दूर से आती कीर्तन की आवाज,
अक्सर रातों में मीठी नींद सुला जाती थी।
और बाबू जी की दी हुई अठन्नी,
मुट्ठियों की दौलत थी।
ये उस वक़्त की बात है,
जब गिरने या चोट लगने पर,
रोने की आजादी थी।
प्रेम की सारी रेखाएं,
माँ तक पहुंचती थीं।
और बड़े-बड़े झगड़े,
बुजुर्गों को देखते ही खत्म हो जाते थे।
लेकिन अब…!
अब बारिशें छतरियों के ऊपर से
छिटक जाती हैं,
कोयल अब कम मीठा गाती है,
रातों को जुगनू दिखाई नहीं देते।
और अठन्नी का जमाना नहीं रहा।
अब रोने की इजाजत नहीं है।
प्रेम की रेखाएं अब,
उलझी हुई हुई सी लगती हैं।
और बुजुर्गों से डरता ही कौन है ?
अब मिट्टी का घड़ा,
वक्त की आँच पर पक चुका है।
फिटनेस
आज कल हर कहीं एक शब्द
आपको सुनने को मिल ही जाता होगा ‘फिटनेस’।
अगर आप को भी ज़िंदगी निरोग बन कर अच्छे से जीनी है
तो जरुरी है ये ‘फी…ट…ने…स’ ।
लेकिन उनका क्या जो फिट नहीं है ?
मेरा तात्पर्य यहाँ शारीरिक फिटनेस से नहीं है।
मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूँ…
जिन्हें स्कूल कॉलेजों से ठुकरा दिया जाता है,
क्योंकि वो प्रतिस्पर्धा में फिट नहीं बैठते।
जिन्हें दोस्तों द्वारा ठुकरा दिया जाता है,
क्योंकि वो उनकी कसौटीयों पर फिट नहीं बैठते।
उन्हें कोई स्त्री प्रेम नहीं करती,
क्योंकि वो उनकी महत्वाकांक्षाओं पर फिट नहीं बैठते।
उन्हें अपने घर से भी निराशा हाथ लगती है,
क्योंकि वे रिश्तों की मर्यादाओं पर फिट नहीं बैठते।
जब हर जगह से उन्हें ठुकरा दिया जाता है।
तब उन्हें उनका एकांत अपनी गोद में पनाह देता है।
वे लोग किसी के ना होते हुए भी खुद के हो जाते हैं।
उनके हृदय का निश्चल प्रेम…
वायु-ऋतु ना मिलने से बरस नहीं पाता,
और कुंठित रह जाता है,
अस्तित्व के आखिरी क्षण तक।
प्रिये
कवि ने कविताओं को चुना
और मैंने तुम्हें…
मुझे ये कतई गँवारा नहीं,
कि कोई और मेरी पसंद को पढ़ें।
कवि को मिली लय, छंद, शेर, गज़ल
मैंने निहारीं तुम्हारी आँखें।
कवि कल्पनाओं में,
धुंधली छवि तलाश रहा था।
और…
मैंने तुम्हारा साक्षात्कार किया।
लाल रंग
मुझे लाल रंग पसंद है।
सूरज की पहली और आखिरी किरण का
हल्की लिपस्टिक वाले तेरे होठों का
कश्मीर के बागानों में पके सेबों का
सर्दी के मौसम में तेरे गालों का
दूर किसी टीले पर टिमटिमाते दीपक का
तेरे माथे पर चमकती बिंदी का
हवन कुंड में धधकती आग का
गुस्से में तेरी आंखों का
दिल की धमनियों में संचारित खून का
चटकदार नेल पॉलिश वाले तेरे नाखून का
बसंत में गुलमोहर के फूलों का
सजते हुए तेरे पैरों के महावर का
मुझे लाल रंग पसंद है।
बारिश
दो जल तालाबों के बीच एक दीवार है।
जो दोनों जल तालाबों को,
अलग-अलग होने का एहसास दिलाती है।
फिर अचानक से मौसम बदलता है।
मेघ आते हैं,
हवाएं चलती हैं,
और झमाझम बारिश होने लगती है।
तालाबों का जल-स्तर बढ़ने लगता है,
और दीवार पानी से ढक जाती है।
दोनों तालाब एक हो जाते हैं।
और उनकी रुकी हुई धाराएं गतिशील हो जाती हैं।
फिर कुछ दिन बाद कड़कती धूप आती है,
जल-स्तर नीचे चला जाता है।
और दीवार फिर से दिखने लगती है।
मुझे बारिश ज्यादा पसंद है!
***
राज भूमि सम्भावनाशील रंगकर्मी और कवि हैं। उनसे raj20511@gmail.com पर बात हो सकती है।
बेहतरीन सृजन
Wow. So nice Raj. Ab rone ki izazat nahi hain. After reading this poem, it is became one of my fav poems❤️❤️❤️