कविताएँ ::
ज्योति रीता
कहानी की नायिका
दुनिया के किसी भी कैलेंडर में
औरतों के लिए छुट्टी शब्द दर्ज़ नहीं था
अपने शौक़ को जीने वाली औरतें महान थीं
नीम अंधेरी रात में जला आती थीं दीया
इतिहास में दर्ज़ हर ईंट से लगा सीमेंट
औरत की रीढ़ की हड्डी से बहता नमकीन पसीना है
जो दिखता नहीं
जिसे चखा जा सकता है
जीवन के स्वाद में उतरी औरत
तुम्हारी कहानी की नायिका है
जिसके केश बिखरे हैं
चेहरे पर काला निशान है
औरत का जीवन गठरी में बंधा सामान है
जिसे कभी भी लात मारकर देहरी से बाहर किया जा सकता है
औरत तुम्हारे घर आकर खोलती है गठरी
संजोती है जीवन
तुम उसके स्वप्न पर ठोकते हो कील
औरत ने आधे मन से तुम्हें जिया
आधे मन से जिया स्वप्न
औरत उधार में मांगती है वक्त
तुम उसके वक्त में चाहते हो आनंद की पराकाष्ठा
औरत ढूंढती है कोई रास्ता
जिससे होकर दिखता हो खुला आसमान
औरत आसमान की छाती पर उगा आती है एक फूल
आसमान सुगंध से भर जाता है
यह मत कि औरतों का संसार दु:खों से पूर्ण है
इस मत पर एक औरत गोइठा थापती है।
आख़िरी निशानी
कितना कुछ सहेजा जाना बाक़ी था
हमने किया प्रेम
आरंभ से अंत तक प्रेम
कितने चित्र उकेरे जाने बाक़ी थे
हमने छुआ तुम्हारा चेहरा
बनने लगे थे कई-कई चित्र
एक पूरा समंदर तय करना बाक़ी था
हमने देखी तुम्हारी आंखें
उम्मीद से भरी तुम्हारी आंखें
कितने रास्तों पर चलना बाक़ी था
हमने नापी अंगुलियों के पोर से तुम्हारी पीठ
और पीठ का नमक
कितनी ही किताबों के पन्नों को चखा जाना बाक़ी था
हमने चखा तुम्हारी छाती का स्वाद
हाथ लिए रही रसीदी टिकट
कितना कुछ लिखा जाना बाक़ी था
पन्नों पर खींचती रही लकीर
गढ़े जाते रहे शब्द
मां को कितनी शिकायतें हैं मुझसे
मां चाहती है मैं पकाऊं खाना
मैं सिर उठाए घूरती रही आकाश
प्रेमी को चाहिए था
उठती-गिरती सांसों का हिसाब।
गले की ज़ंजीर में लटकता लॉकेट
उसके प्रेम की आख़िरी निशानी है।
यह स्त्रियों के बिगड़ने का माकूल समय था
स्त्रियों को बहुत पहले बिगड़ जाना था
स्त्रियों ने बिगड़ने में बहुत वक्त लगा दिया
साहित्य से संगत करती स्त्रियाँ बुरी थीं
उंगलियों में कलम फँसा कर चलती स्त्री भयावह लगती
तर्क-वितर्क करती स्त्री पर दबी जुबान से लोग हँसते
तनकर चलती स्त्रियों पर फब्तियाँ कसते
अलस्सुबह काम पर जाकर शाम घर लौटती स्त्री
जाने कितनों की भाभियाँ हो जातीं
चेहरे पर गुस्से का आवरण ओढ़ते-ओढ़ते
जब थक जातीं
मुस्कुरा देतीं
तो ना जाने कितनों के रास्ते खुलते
हर रिवाज़ को एड़ी से कुचलकर पीठ पर धप्पा कहती स्त्री बेनज़ीर थी
आफत थीं वे स्त्रियाँ
जो हजारों कोड़ों के बाद भी सर उठाए खड़ी थीं
अचंभित थे वे लोग
जो पौरूष बचाने आए थे
ईमान की बात कहकर बिस्तर तक खींचने को आतुर थे
एहतियातन स्त्रियों ने दो-चार और बिगड़ी स्त्रियाँ को सखी बना लिया था
रात अंधेरे बैठकर बदलने लगी थीं इतिहास
उसी वक्त लालटेन के सीसे के चटकने की आवाज़ आई
कातिब बनने की स्थिति में रोशनी से मरहूम हुईं
क़लम की निब को पेशाबघर में बहा दिया गया
जनाना कमरे तक कुशल क्षेम पूछने कोई नहीं गया
जनानियाँ इसे अपना साझा दुःख बतातीं
गलीज़ बदजात स्त्रियाँ रात्रि में बिस्तर से अर्धनग्न अवस्था में किले से बाहर आ गई थीं
सारी स्त्रियों ने एक साथ ताज अपने सिर रखकर स्वयं को तख़्त में तब्दील किया था
यह स्त्रियों के बिगड़ने का माकूल समय था
स्त्रियों को तो बिगड़ना ही था
स्त्रियों ने बिगड़ने में बहुत वक्त लगा दिया।
स्त्रियों को भी महसूसना था प्रेम
स्त्रियों को भी महसूसना था प्रेम।
वह प्रेम कमाल था
जो बिस्तर से पहले बिस्तर के बाद भी रहा।
वह स्त्री जिसका प्रेमी बस देह तक रहा
वह फिसलता हुआ एक दिन कहीं विलीन हो जाता
बेहद निजी पलों में बालों को खींचते हुए कहता—
तुम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत औरत हो।
उसके बाद दिन भर का ताना था।
मुझसे ज्यादा ज़ाहिल औरत उसने कहीं नहीं देखी थी
मैं दुनिया की सबसे बेवकूफ़ औरत थी
मुझे रसोई से ज्यादा का स्वाद नहीं पता था।
घर बैठे वह ना जाने किन-किन गलियों में घुमा देता
हर तीसरा आदमी मेरा प्रेमी था
हर घूरता हुआ आदमी मेरे द्वारा किया गया इशारा
उदासी में कहता— याद आ रहा है वो
हँसती तो कहता— बात हो गई लगता है
समुद्री नमक से भी ज्यादा नमकीन मेरी पीठ से रिसता पसीना था
बालों की लटों से उलझाऊं कोई जंजीर कहां थी।
कयासों की दुनिया में अनेकों कहानियां थीं
मिश्रित भाव से गढ़ा गया पात्र मुझसे बंधा था
उपले की आग-सा सुलगता जीवन द्वेष से भरा था
कमल की जड़ में छिपे थे कई रहस्य
कई प्रेम पत्र हथेली पर लिखे थे
तालू से चिपकीं थीं कई दास्तानें।
लड़की बोलने से ज्यादा पढ़ने में सहज हुई
लिखकर अंदर की सारी पीड़ा भूल जाती
कॉलेज के दिनों में एक दिन धर्मवीर भारती आए
कब चंदर से प्रेम हुआ
सुधा का पात्र कब अंदर तक जा धंसा किसे पता है
‘एक चिथड़ा सुख’ लेकर निर्मल वर्मा आए
फिर विनोद कुमार शुक्ल ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’
थमा गए
लड़की खामोश रही
किताबों के पात्रों में हमेशा उलझी रही
और अत्यधिक भावुक हुई
एक कविता में निज़ार क़ब्बानी कहते हैं—
प्रेमी की इच्छा करती स्त्री को क्या भाषा और व्याकरण के विद्वानों की शरण लेनी चाहिए?
अग्निसंभवा
वह अलसाई-सी सुबह थी
जाते हुए तुम लौट आए थे
लौट आई थी घर में रौनक़
रसोई में बना पकवान सुगंधित हो उठा था
मन दूब घास-सा लतर आया था
ग़ोता लगा आया था तुम्हारे तानूर में
वह बरामदा
जहां बैठकर कनखियों से तुम प्रेम जताते थे
वह बरामदा अल्पनाओं से भर गया था
पाँव में आलता
हाथ में मेहंदी के रंग उतर आए थे
ठोस से तरलता में देह परिवर्तित हो रहा था
बिस्तर केवड़ों के गंध से भर गया था
भींच कर हथेली तुमने कहा—
अग्निसंभवा! तुम्हारे होने में ही प्रेम है।
मिहिरदेव तुम्हारे प्रेम से ही जीवित है अग्निसंभवा।
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ज्योति रीता नई पीढ़ी की कवि हैं। उनकी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उनका एक कविता-संग्रह “मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ” प्रकाशित है। उनसे jyotimam2012@gmail.com पर बात हो सकती है।
काफ़ी दिनों बाद कुछ ऐसा पढ़ा। बहुत सुंदर।🌻