गजानन माधव मुक्तिबोध के कुछ उद्धरण ::
तथ्य का अनादर करना, छुपाना, उससे परहेज करके दिमागी तलघर में डाल देना न केवल गलत है, वरन् उससे कई मानसिक उलझनें होती हैं।
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मुझे लगता कि मन एक रहस्यमय लोक है। उसमें अँधेरा है। अँधेरे में सीढ़ियाँ है। सीढ़ियाँ गीली हैं। सबसे निचली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है। वहाँ अथाह काला जल है। उस अथाह जल से स्वयं को ही डर लगता है। इस अथाह काले जल में कोई बैठा है। वह शायद मैं ही हूँ। अथाह और एकदम स्याह-अँधेरे पानी की सतह पर चाँदनी का एक चमकदार पट्टा फैला हुआ है, जिसमें मेरी ही आँखें चमक रही हैं, मानो दो नीले मूँगिया पत्थर भीतर उद्दीप्त हो उठे हों।
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गाँधीवाद ने भावुक कर्म की प्रवृत्ति पर कुछ इस ढंग से जोर दिया है कि सप्रश्न बौद्धिक प्रवृत्ति दबा दी गयी है। असल में यह गाँधीवादी प्रवृत्ति प्रश्न, विश्लेषण और निष्कर्ष की बौद्धिक क्रियाओं का अनादर करती है।
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वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।प्रश्न थे गंभीर, शायद खतरनाक भी,
इसी लिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी –
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सजा दी !
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पूँजीवाद की प्राथमिक क्रान्तिकारी वैज्ञानिक (दृष्टिकोण सम्बन्धी) स्फूर्ति का पर्यवसान, पूँजीवाद के क्रान्तिकारित्व के समाप्त हो जाने के अनन्तर, अलौकिक श्रद्धालु अवैज्ञानिक सिद्धान्तों में परिणत हुआ, जिसका मूल कारण है पतनोन्मुख पूँजीवाद की घोर वैयक्तिकता। पतनोन्मुख पूँजीवादी साहित्य और दर्शन की दो विशेषताएँ हैं प्रथमतः घोर वैयक्तिकता; दूसरे, दृष्टिकोण की अवैज्ञानिकता। इन दोनों की जड़ एक ही है और ये दो विशेषताएँ एक सिक्के की दो बाजुएँ हैं।
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सच [यह ] है कि लेखक महापुरुष बनकर पैदा नहीं होता, वह आदर्शवादी, अध्यात्मवादी, साम्यवादी बनकर नहीं जनमता। वह अपने सामाजिक वातावरण में साँस लेकर अपने परिवेश से प्रतिक्रिया करता है। उसे अपने परिवेश के भीतर जो कटु अनुभव प्राप्त हैं, उन कटु अनुभवों की बारम्बारता उसमें सघन निबिड़ कटुत्व का भाव उत्पन्न करती है, और यह भाव स्थायी भाव भी बन सकता है। उसी प्रकार अन्य अनुभवों के सम्बन्ध में भी यह सच है। एक विशेष जीवनावस्था की विशेष परिस्थितियों में, और उन परिस्थितियों की प्रायः नित्यता की स्थिति में एक विशेष प्रकार की एक विशेष रूप-शैली की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ अपनी तीव्रतम बारम्बारता स्थापित कर लेती हैं। और ऐसी प्रतिक्रियाओं की तीव्रतम बारम्बारता जब प्रायः नित्यत्व में बदल जाती है, तो लेखक के हृदय में वे संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ, क्रमशः, अपनी अभिव्यक्ति के कलात्मक उपादानों का विकास करने लगती है, और अन्त में, एक कलाकृति नहीं, कलाकृतियों में परिणत हो जाती है।
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काव्य-रचना केवल व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं, वह एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है। और फिर भी वह एक आत्मिक प्रयास है। उसमें जो सांस्कृतिक मूल्य परिलक्षित होते हैं, वे व्यक्ति की अपनी देन नहीं, समाज की या वर्ग की देन हैं। यह ध्यान में रखने की बात है कि नई कविता वर्तमान ह्रासग्रस्त, अधःपतनशील सभ्यता की असलियत को जब तक पहचानती नहीं है, सभ्यता के मूलभूत प्रश्नों से अपने को जब तक जोड़ नहीं लेती हैं, मानवता के भविष्य निर्माण के संघर्ष से जब तक वह स्वयं को संयोजित नहीं कर पाती, जब तक उसमें उत्पीड़ित और शोषित मुखों के बिम्ब दिखाई नहीं देते, उनके हृदयों का आलोक नहीं दिखाई देता, तब तक सचमुच हमारा कार्य अधूरा रहेगा। यह ठीक है कि शायद हम यह काम एक दिन में नहीं कर सकते। किन्तु विवेक-संवेदना, अनुभव पीड़ा और अथक श्रम की सहायता से हम उस ओर बढ़ तो सकते ही हैं।
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वह कलाकार जो अपने काव्य-वैभव को और भी विकसित करना चाहता है, वह वस्तुतः, द्विमुखी संघर्ष करता है। उसका एक संघर्ष कलाकृति को उसके पूर्ण सौन्दर्य में उद्भासित करने से, कलाकृति के अन्तर्बाह्य नियमों के अनुसार आकृति- गठन प्रस्तुत करने से, उसमें पूर्ण भाव- वैभव लाने से, सम्बन्धित है, तो उसका दूसरा संघर्ष अपने वास्तविक जीवन में अधिकाधिक मानव-अनुभव तथा आधिकाधिक वैविध्य के दर्शन प्राप्त करने से है, अपने को अधिकाधिक संवेदनक्षम, जगरूक और विस्तृत करने से है, तथा ऐसा एक लक्ष्य प्राप्त करने से है, जो लक्ष्य उसके सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व को सार्थक कर दे।
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आज का कवि एक असाधारण असामान्य युग में रह रहा है। वह एक ऐसे युग में है, जहाँ मानव सभ्यता-सम्बन्धी प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो उठे हैं। समाज भयानक रूप से विषमताग्रस्त हो गया है। चारों ओर नैतिक हास के दृश्य दिखाई दे रहे हैं। शोषण और उत्पीड़न पहले से बहुत अधिक बढ़ गया है। नोच-खसोट, अवसरवाद, भ्रष्टाचार का बाजार गर्म है। कल के मसीहा आज उत्पीड़क हो उठे हैं। अध्यात्मवादी विचारक, जनता से दूर जा बैठे हैं। अधिकांश समीक्षकों का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। वे जीवन के कलात्मक साहित्यिक बिम्बों की तो व्याख्या करेंगे, किन्तु जीवन से दूर रहेंगे।
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आज के विकासमान कवि को तीन क्षेत्रों में एक साथ संघर्ष करना है: (1) तत्त्व के लिए संघर्ष (2) अभिव्यक्ति सक्षम बनाने के लिए संघर्ष और, (3) दृष्टि-विकास के लिए संघर्ष। तत्त्व के लिए संघर्ष का अर्थ अपने वास्तविक जीवनानुभव को सन्दर्भ – सहित व्यक्त करने के लिए उचित विषय-संकलन के विवेक से सम्बन्धित है। हमें अपने ही युग के ऐसे सारभूत बिम्बों और मूल प्रवृत्तियों को उठाना और चित्रित करना होगा, जिससे कि हम अपना युग वस्तुतः जी सकें, और हम सच्चे अर्थों में समसामयिक हो पाएँ। विषय-संकलन का विवेक हमारी अपनी अनुभूतिजन्य मार्मिक ज्ञान दृष्टि से उत्पन्न होगा।
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साधारण जनों के लिए कबीर का सदाचारवाद तुलसी के सन्देश से अधिक क्रान्तिकारी था। तुलसी को भक्ति का यह मूल तत्त्व तो स्वीकार करना ही पड़ा कि राम के सामने सब बराबर हैं, किन्तु चूँकि राम ही ने सारा समाज उत्पन्न किया है. इसलिए वर्णाश्रम धर्म और जातिवाद को तो मानना ही होगा। पं. रामचन्द्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं। इसके पीछे उनकी सारी पुराणमतवादी चेतना बोलती है।
क्या यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति शाखा के अन्तर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया ? क्या यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति शाखा के अन्तर्गत रसखान और रहीम जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर रहे आए, किन्तु रामभक्ति शाखा के अन्तर्गत एक भी मुसलमान और शूद्र कवि प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका ? जबकि यह एक स्वत: सिद्ध बात है कि निर्गुण-शाखा के अन्तर्गत ऐसे लोगों को अच्छा स्थान प्राप्त था।
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किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अन्तःस्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्त्व रूपायित किये हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरुपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्त्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है ?
तुलसीदासजी के सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न अत्यन्त आवश्यक भी हैं। रामचरितमानसकार एक सच्चे सन्त थे, इसमें किसी को भी कोई सन्देह नहीं हो सकता। रामचरितमानस साधारण जनता में भी उतना ही प्रिय रहा जितना कि उच्चवर्गीय लोगों में। कट्टरपन्थियों ने अपने उद्देश्यों के अनुसार तुलसीदास जी का उपयोग किया, जिस प्रकार आज जनसंघ और हिन्दू महासभा ने शिवाजी और रामदास का उपयोग किया। सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदास जी के वैचारिक प्रभाव संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।
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गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917-11 सितंबर 1964) अत्यंत महत्वपूर्ण कवि-गद्यकार-आलोचक हैं। यहाँ प्रस्तुत उनके कुछ उद्धरण ‘मुक्तिबोध समग्र’ से चयनित हैं और यहाँ साभार प्रस्तुत हैं।