कविताएँ ::
सुमित झा
१. जमापूंजी
मैं हमेशा अकेला ही रहा
इतने से जीवन में काफी नहीं
कि कुछ ऐसे दोस्त मिलें
जिनसे वाकई आप जुड़ गए हों
तमाम लोग आए और गए
कुछ दो पल रुके भी
कुछ बिना बताए चले भी गए
इतने से ही जीवन में
मैंने कुछ स्त्रियों से प्रेम किया
और कुछ स्त्रियों ने मुझसे प्रेम किया
मैंने मोहब्बत की खूबसूरती भी देखी
और दिल टूटने का दुःख भी जाना
दो स्त्रियों से मैंने प्रेम किया
एक लड़की ने मुझे प्रेम करना सिखाया
दूसरी लड़की को मैंने अपना प्रेम दिखाना चाहा
पहली प्रेमिका अब नहीं रही
दूसरी प्रेमिका ने मेरा प्रेम नकार दिया
एक प्रेमिका के लिए स्वतः कविताएँ लिखीं
दूसरी प्रेमिका ने जबरदस्ती लिखवाईं
एक समय में शराब भी खूब पी
नशे में धुत रहा महीनों
अँधेरे कमरे में कैद भी किया खुद को
दिन रात रोया भी खूब
कई शहर भी घूमे
राजस्थान के बंजर गाँवों में रात गुजारी
तो कभी रात भर बनारस में मणिकर्णिका
दिल्ली की भीड़ भी देखी
लखनऊ का अदब भी देखा
अब जब खुद को स्थिर देखता हूँ
तो डर लगता है कभी कभी
कि वह दीवानगी कहाँ गई
वह पागलपन कहाँ गया
कहाँ गया वह पागलपन
अब भाग दौड़ परेशान करती है
लोग हैरान करते हैं
प्रेम संदेहास्पद लगता है
राजनीति डराने लगी है
जितने उत्तर नहीं बचे हैं जीवन में
उससे कहीं ज्यादा प्रश्न हो गए हैं
मृत्यु के सिवाय अब कुछ भी शेष नहीं
जो मैंने देखी ना हो
वह भी किसी रूठे हुए प्रेमिका की तरह हो जैसे
मनाने के बावजूद नहीं आती
और संभवतः जब इंतज़ार छोड़ दूँगा
तो स्वतः मुझसे आकर गले लगेगी।
२. एक दूजे के लिए
मैं गलत था
कि मैंने तुम्हारे जाने के एक अरसे के बाद
ये घोषित कर दिया कि मैं तुम्हें भूल चुका हूँ
या तुम्हारे लिए अब मेरे दिल में कोई जगह नहीं बची
जब कभी सोचता हूँ अब
तो जान पड़ता है कि
तुम्हारे जाने के बाद से जो खालीपन आया है
वो हमेशा खाली ही रहेगा
और जो स्थान तुम्हारा मेरे दिल में था
वो हमेशा के लिए रिक्त ही रहेगा
तुम्हारे जाने के बाद ये घोषित कर देना
कि मैं अब इन सबसे उबर रहा हूँ
साबित करता है कि मैं कितना डरपोक किस्म का आदमी हूँ
हालाँकि तुम्हारे रहते मुझे बस साँपों से डर लगता था
जैसा तुम कहती थी
तुम्हारे जाने के बाद से मैं हर उन लोगों से डरने लगा
जो मेरे करीब आने की चेष्टा रखते थे
या मेरे करीब आये
हम एक दूजे के लिए ही बने हुए थे
हमें बिछड़ना पड़ा एक दूजे से
तुम्हारे लिए मेरी आँखो का पानी कम है
मैं चाहता हूँ कि मेरी आंसुओ की धारा
जा मिले दूर कहीं बंगाल की खाड़ी में
जहाँ रहते हों मछलियों के दो प्रेमी जोड़े
जहाँ उनका अपना संसार हो
गा रहे हों वे कोई प्रेम गीत
क्या मछलियों की कोई अपनी भाषा नहीं होती होगी
क्या नहीं होता होगा उनका अपना कोई प्रेम गीत
ठीक उसी तरह जैसे ढलती रातों में
मैं तुम्हें सुनाया करता था ‘लग जा गले’।
३. बीता हुआ प्रेम
जैसे हर साल लौटता है सावन
लौटती है पुराने प्रेमिका की याद
स्मृतियाँ आती हैं असंख्य बार
जब पड़ती हैं बारिश की बूँदे
दिन महीने साल बीत जाएँ भले ही
नहीं बीतती है पुराने प्रेम की याद
तुम जितना आगे बढ़ते जाओगे
उतने ही जतन से याद आएगा पिछला प्रेम
याद करो तो उस शाम को याद करो
जब किसी सड़क के किनारे तुमने
बारिश से बचने के लिए एक पेड़ का सहारा लिया था
याद करना प्रेमिका की स्कूटी को
जिससे नापते रहे तुम शहर भर की सड़कें
यह भी याद रहे तुम्हें कि कितना भीगे तुम उसके साथ
उसके साथ बैठे सीसीडी में कॉफ़ी की गन्ध नहीं भूलना
मत भूलना कि कैब में बैठकर कितना किया तुमने उसका इंतज़ार
कितने गुलाब ख़रीदे तुमने उसके लिए यह मत भूलना
याद रहे आजीवन तुम्हें संगम का बहता हुआ पानी
याद रहे कि बंद कमरों में कितना किया तुमने प्रेम
याद रहे कि कितना उलझे रहे उसके बालों से
याद रहे तुम्हें उसकी चमकती हुई आँखें
उसको किया पहला चुम्बन याद है तुम्हें?
याद है कब थामा था उसका हाथ पहली बार?
कब बैठे थे उसकी स्कूटी पर याद है?
कब लायी थी घर का खाना पहली बार भूल गए?
यहीं रुको कवि, जरा ठहरो
भले ही तुम आगे बढ़ गए हो जीवन में
लेकिन मत भूलना कभी उसका प्रेम
कि कितना रोयी थी वो तुम्हारे लिए स्टेशन पर
नया प्रेम बड़े शौक़ से करो तुम
लेकिन मत भूलो कि
किसी ने ठंड से बचने के लिए
तुम्हें अपनी रजाई दी थी।
४. मृगतृष्णा
असल ज़िंदगी में न मिल पाने का दुःख
कैसे कम कर सकूँगा आख़िर मैं
इसीलिए रोज़ इस उम्मीद में सोता हूँ
कि सपने में तुमसे मुलाक़ात कर सकूँ
और कह सकूँ अपने दिल की बात
कि तुम्हारी आँखें कितनी सुन्दर हैं
और उतनी ही गहरी
जहाँ डूब जाता हूँ कंठ तक
कितना महीन आइ लाइनर लगाती हो तुम
यह ठीक ठीक देख सकूँ बैठ कर
तुम्हारे लहराते केशों में ऐसे उलझूँ
कि जीवन भर गाँठे बंधी रहे मन में
कितनी बारीक लगाई है तुमने लिप्स्टिक
जिसके निशान तक ना उभर सके मेरे होंठों पर
क्या तुम्हारा कांधा बाँध पाएगा मेरा मन
पूरी हो सकेगी नींद मेरी
या फिर भटकता ही फिरूँगा आश्चर्य में
जैसे कोई नयी आकाशगंगा मिल गई हो मुझे
जैसे फिसलता है मेरा दिल
तुम्हारे सीने के उस तिल पर
क्या सचमुच ऐसा ही है
कैसी माया रची है तुमने
कैसा तूफ़ान समेटे हुए है उदर
जिसके भँवर में फँस जाता हूँ बार बार
वह नदी जो मुड़ती है तुम्हारी कमर पर
क्या टूट जाएगी मेरी नाव वहाँ
बाँध पाएगा कोई किनारा मुझे
या तुम बहने दोगी मुझे उस रास्ते जीवन भर
जिसके अन्त में मृत्य नहीं आती
खुलता है द्वार मोक्ष का
लालसाओं में डूबी हुई आँखें
अतृप्ति से सूख चुकी जीभ
सुन्न पड़ी हुई उँगलियाँ
और जिज्ञासाओं से भरा हुआ मन
क्या पर्याप्त होगा मेरी आत्मा के लिए
खो जाने दो मरीचिका में मुझे
विचरने दो मुझे बनकर कोई मृग
जिसने ढूँढ ली है कस्तूरी
जिसे पूर्ण कर दिया तुमने
प्रेम और प्यास की दीवार ढह जाएगी
खो जाऊँगा सदा के लिए
मरूँगा सुखी हर रोज़
मोक्ष की लालसा में
उसके द्वार पर सर पटकता हुआ।
५. प्रिय कवि के लिए
कविता की शुरुआत यहीं से करते हैं
कि जो बीत जाता है
उसी से प्रेम किया जा सकता है
साहस का हर तिनका जोड़कर ही
यादों के पुल बनाए जा सकते हैं
किसी से प्रेम करना और टूटकर चाहना
और याद रखना हर दिन का हिसाब
कितने दुःखों का पहाड़ टूटता है छाती पर
यह रात के दो बजे ही मालूम पड़ता है
दिन के उजालों में भागते दौड़ते
यूनिवर्सिटी की सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते
जब थक जाते हैं पैर
तब शाम का सहारा बनती है
एक कप दार्जिलिंग चाय
और एक ऐसी कविता
जो आधी रात को नींद से जागकर लिखी थी कभी
मैं अब और कुछ भी जानना नहीं चाहता
दुःख और वियोग का अल्पज्ञान
मेरी असमर्थता नहीं है
मेरे पास इतना कौशल और साहस नहीं
स्मृतियों में इतने फ़ासले तय कर पाना
मेरे बस की बात नहीं है
महसूस कर सकता हूँ तो बस
उस कमरे में फैला हुआ अन्धेरा
और उस गन्ध को जो फैली हुई है
अब भी कहीं आसपास
लेकिन अब भी बीतता है जीवन
रखते हिसाब एक-एक दिन का
जिसको जोड़कर बनता है एक पुल
जिसके पाये में भरी जाती है याद
एक ना भुलाए जा सकने वाली स्त्री की
एक शाम पटना के किसी घाट पर
प्रिय कवि ने मेरी सिगरेट जलाई
और मुझसे कहा कि मत भूलना
मैं कहता हूँ कैसे भूल सकता हूँ मैं
भला भूलना भी कोई सीख पाया है आजतक
बचपन से ही सिखाए जाते हैं
याद करने के हज़ार तरीक़े
भूलते कैसे हैं यह किसी ने नहीं सिखाया
भूल पाने की लड़ाईयों के बीच
याद करते हुए जीना हर रोज़
रखना हिसाब हर दिन का
आदमी सब कुछ कर सकता है
मगर भूल नहीं सकता
एक ना भुलाए जा सकने वाली स्त्री का प्यार
उसके साथ बंद कमरों में किया मनुहार।
***
सुमित झा आते हुए कवि हैं। उनसे और परिचय और संपर्क के लिए यहाँ देखें : तुमसे दूर जाकर भी कितना दूर जा सकूँगा