कविताएँ ::
नीरज
१. जीने की दशा में
क्षय के अंतिम स्तर के अंतिम किनारे पर खड़े
हम नहीं दे पा रहे हैं ज़मीन बीज को
उस पर मूर्खता यह है कि
खोजते हैं अपने पैरों की ज़मीन
क्रूरताओं का प्रायश्चित कैसे होना है?
इसकी सुनिश्चितता के ढोंग में खोते रहेंगे रोज-रोज जीवन
धीरे-धीरे झर जाएंगे
इस आश्वस्ति में कि—फिर वसंत लौटेगा
जबकि
यह आख़िरी होगा
कोसों दूर एक-दूसरे को याद करते हुए
तारे तकना
उनसे बतियाना
इन आधारों पर टिके हैं
हम दोनों इस मैदान में प्रेम में
उपेक्षित है दूरियां
प्रतीक्षित है ज़मीन
जहाँ टिक सके दो जोड़े पैर
और हम छू सकें एक दूसरे की ऑंखें,ऑंखों से।
जीने की दशा में
झझकी अनुष्ठानों से क्या लाभ हो जाएगा
जपते रहना है जब जीवन
तो क्यों ना जपें जीवन के साथ
इस तरह के द्वंद्व का क्या दायित्व होगा
तुम्हारे लिए;
मरना तो नियत है
मिला है जीवन
तो
क्यों ना इसे स्वीकारा जाय!
२.संवेग
खेल धीरे-धीरे शुरु हुआ
धीरे-धीरे बढ़ा
समय के साथ
रुका
फिर
शुरु हुआ
और
अंततः ख़त्म भी हुआ।
मैंने जब इच्छाऍं टटोलीं
हाथ दुखों से सने मिले
और
जब छिटकना चाहा
तो चिपटे मिले देह से
मैंने समाधान की ओर ताका
मुझे संभावनाऍं दिखीं
थोड़ी दूर
मेरी तरफ हाथ किए
मुझे बुलाते हुए
जब-जब उनके पास जाने का यत्न किया
वो थोड़ी-थोड़ी खिसकती रहीं ज़मीन से
पूरी उमर गुजार दी
इस खेल के बारे में पूरी तरह जानने को
विशेषज्ञ बनने के लिए
लेकिन केवल धीरे-धीरे ही हाथ लगा।
३. औसत
यह रात बीतने को है
कल के लिए
एक और दिन पड़ा है
कल भी
एक दिन पड़ा था
दोनों में घटा-बढ़ा हूँ
खोजी मन है
चाहता है
बीते को कुछ लौटाना
आते हुए से कुछ पाना
पर
मैं इस औसत रात को
जीते जाते हुए ही जीना चाहता हूँ।
४. नकली
हम
तहों के नीचे छिपे हुए लोग हैं
निकालते हैं मौसमों के हिसाब से मुँह बाहर
और टर्र-टर्र करके फिर छिप जाते हैं
आवाज़ों से दुखी हैं
अपने रोने से कारण से ज्यादा
हँसने के कारण में ज्यादा दिलचस्पी वाले
अपनी मकानों के मिट्टी को भूल
पक्के घरों के शिल्प पर सवाल उठाना हमारी खूबियों में रचा बसा है
और
बारिश में
उसी के स्वप्न में हाथ-पैर पटकने में तीव्रतम लोग
कुछ तो नकली है
हमारे भीतर
दिन में
कंडोम खरीदते आदमी पर ठहाका लगा लेते हैं
रात में
जनसंख्या नियंत्रण पर उन्हीं को गरियाते हैं!
अपनी तरफ मुड़ना कबका भूल चुके हैं।
इस झूठ के सिलेंडर से साँस भरते हुए जीते हैं
कि कीचड़ में हैं—कमल की तरह
जबकि
सच यह है कि
हम हमारी बंजर जमीन पर पैर गड़ाने से बचते हैं
उँगली तो बहुत दूर की बात है
और
बीज तो लगभग-लगभग नामुमकिन दशा के पास खड़ा दिखता है
हम डरे हुए लोग
गए-गुजरों के बीच रुके हुए
एक बढ़िया किताब पढ़कर
एक बढ़िया सिनेमा देखकर
हाइलाईटेड नोट्स में लिखते हैं—सुधार, बदलाव, क्रांति
और
उस रात चैन से सोते हैं
अगली सुबह से फिर वही दोहराते हैं
अगली सुबह के प्रतीक्षा में!
५.अवमानना
इस कमरे में सब स्थैतिक हैं
सिवाय एक दम तोड़ते मन के
ज्यों-ज्यों नज़र घुमाता
माँ की खींचती लंबी-लंबी साँसों में वह कटा जा रहा है
पलंग से सटा धीरे-धीरे खुरचता है नाखून से
मृत्यु की लकीर
चाहता है मिटाना।
सच है— आत्मा के अविभाज्य का कथन
पर जैसे-जैसे
देह ठण्डी पड़ती जाती है
एक विभाजन निरंतर होता जाता है
जो घटाव की नहीं
बल्कि कटाव की नियति बनती जा रही है
देह गलती जा रही है
ऑंख देखता हूँ
चादर पर गिरे उसके टुकड़े देखता हूँ
फिर टुकड़े ही टुकड़े
डॉक्टर के “कुछ दिनों के मेहमान हैं” वाले बयान पर कॉलर पकड़ लिया
अगर-मगर
लेकिन-वेकिन करते कॉरिडोर में आते-आते
उसी कॉलर को पकड़े खूब रोया
फिलहाल
सच से ईर्ष्या होती है,
नफ़रत होती है
और
इस अवमानना से प्रेम होता है
संतोष होता है।
६. चोटें
एक
वो दृश्य
उत्तल लेंस से उतरते हुए
आँखों में ठहर गया
मैं भर गया
बहुत देर बाद सोचते हुए
काश मैं बैठता सड़क पर
रोता आधे मुँह
रखता उसके खुले घावों पर हाथ
या फिर रहता जस का तस सुन्न उसके पास
पर रहना था बड़ा ज़रूरी
रुकना था प्राकृतिक
क्या थक्के बने होंगे चोटों पर?
क्या रुका होगा खून?
थक्के क्यों नहीं बनते मुझ जैसों में
मुझे भी रोग है—
“मुँह बिचकाए गर्दन घुमाए
थोड़ा-सा हाय
फिर मुझे क्या” वाला
घर के सीलिंग फैन को देखते हुए
सोच रहा हूँ
ख़ाक आदमी हूँ
कविता तो लिख दी
पर
अब इसका करूँ क्या?
कहूँ किससे?
दो
बाहर दुनिया है
जिसकी हवाओं में नमक-मिर्च है
ज़ख्म हैं
तुम्हारी देह पर
रिसती है धीरे हवा
बढ़ती है देह में
चोटें जो दब गयी थीं समय के परतों में
खुल गयी हैं।
एक आदमी धीरे-धीरे फुसफुसाता है— कुरेदने का समय है।
तीन
उस परत को नोचे बगैर
मैं पूरा नहीं कर पाता हूँ अपना संवाद
और
खाल उतरते ही
रक्त फूटता है
रंग हरा होता है।
चार
घावों में साँस लेते हुए
एक दोस्त से कहता हूॅं—लोग अपनी बातों से सेप्टिक फैला रहे हैं
कंधे पर
हाथ फेरते हुए वह दोहराता है— कुछेक एंटीबायोटिक बचे भी हैं!
हाहा!
७. तुम्हारी मृत्यु के उपरांत
एक
भोर हुई
लेकिन याद नहीं रात कैसे बीती
बल्ब देखते-देखते सूरज हो गया
खिन्नताओं से मुँह भरा है
अंतिम रेलगाड़ी छूट गयी
जरूरी खरीदी के पहले
बटुआ खो गया
मेरा निश्चित
फटी जेब के माफ़िक़ है
जहाँ से
तुम सरक गये धीरे से।
दो
वह एक अच्छी रात थी
भले-भले टहल रहे थे
चाँद-तारे
नजर भर समय के बाद
चाँद एकाएक एक ओर ढ़रक गया
पीछे-पीछे सारे तारे भी
वह एक अच्छी रात थी—अच्छी नींद के लिए
उस रात से
एक अच्छी नींद भी सपने में तब्दील हो गई।
तीन
अफनाते हुए हटा लेता हूँ चादर मुँह से
देखने की कोशिश करता हूॅं घर की छत
नहीं दिखता है कुछ इस अंधेरे में
ऑंखें बंद कर लेता हूँ।
ज्यों
सब दिखने लगता है
त्यों
ऑंखें खोल देता हूँ
वो जो अंतिम “निश्चित” है
उसे समझने को
उसे देखने के बाद भी
किसी निश्चित स्थिति में नहीं होता हूँ
लौटता हूँ हर रोज।
चार
बेखटके दरवाजे से दाखिल हुई
सर्द हवा
नंगी देह पर आके चिपट गयी
गल गयी देह अगली सुबह तक
अवसाद कुंडली मारे
सिर है
डँसता है
जब भी निशान भरने लगते हैं
एक देह के गलने के पश्चात्
मेरी ऑंख में
छाले फूटते हैं
देह डूबी हुई है
पानी है
पानी है
रूका हुआ पानी
कोई
धरती नहीं है
जो सोख ले इसे।
•••
नीरज हिन्दी के संभावनाशील कवियों में से हैं। उनकी कविताएँ लगभग हर प्रमुख जगह से प्रकाशित हैं। उनसे kumneeraj005@gmail.com पर बात हो सकती है।
सुंदर, संवेदनशील कविताएँ।