कविताएँ ::
आमिर हमज़ा
1.उसके घर रास्ते बीच मदार के फूल आते हैं
कवियत का लक़ब चेहरे पर मढ़े तुम जो तुम हो
दरिया को पार करना डूबे बग़ैर
उसके गहरे की पकड़ में हरगिज़ न आना।
बुग्गी रेत से पानी से थकन से चूर होगी
किनारे उसके ढहे जाते रहेंगे।
मछलियाँ आएँगी फिर फिर लौट जाने के लिए
जलमुर्गियाँ आएँगी फिर फिर तैरते जाने के लिए
बूढ़ी मेढ़की आएँगी फिर फिर मर जाने के लिए
तुम बगुले की खोट भरी चोंच देखना
उसके दबे पाँव चलते चले जाने को देखना।
एक झोपड़ी में चूल्हे ऊपर हँडिया में भूख तुम्हें पुकारेगी
तुम सिर्फ़ धुआँ देखना
तुम सिर्फ़ छप्पर देखना
तुम सिर्फ़ सरसों के फूल देखना।
तुम पत्ती गिरे खेजड़ी पर झूलती पतंग देखना
बच्चों की पा लेने की आँखें देखना।
मासूमियत भरे चेहरे के दो हाथों को भस्म जान माथे से रगड़ अपने
मदार के फूल भीतर आलिंगनबद्ध राजा और रानी के अंधेपन को लानत भेजना
तुम खिले के आसपास के जामुनी से मुहब्बत करना।
याद रखना हमेशा याद रखने के लिए—
प्रेमियों के हिस्से आते हैं क़िस्से
राजाओं के हिस्से आती हैं मूँछ।
तुम राजा न होने के लिए
अपनी फ़क़ीरी पर ख़ूब हँसना!
सब घर सब लोगों के लिए नहीं होते
कुछ घर नमक के भी होते हैं
नमक होते हुए।
तुम जीवन और कविता में
नमक हो जाने की दीवानगी पर ख़ूब हँसना!
यात्रा की थकन तुम्हें बताएगी—
सारी सभ्यताएँ नदियों की कोख से जन्म पाती हैं
और एक दिन वहीं ख़ाक हो जाती हैं
लोग कोख को भूल जाते हैं मृत्यु को याद रखते हैं
लोग सभ्यताओं को याद रखते हैं नदियों को भूल जाते हैं।
तुम एक औरत की कोख भीतर खो जाना!
तुम यात्रा आगे सिर नवा शुक्रिया कहना
कि उसने तुम्हें बचाए रखा।
कह देना नेमत है
न कह सकना मृत्यु!
2. बोगेनवेलिया
बोगेनवेलिया को बालों में खोंस एक रोज़ गुम हुईं
ओ! लड़कियों
जेएनयू की लड़कियों!
तुम बोगेनवेलिया की ख़ातिर लौट आओ!
सुर्ख़ गुलाबी ज़र्द सफ़ेद की ख़ातिर लौट आओ!
लौट आओ कि बोगेनवेलिया की अब किसी को याद नहीं।
गंगा यमुना गोदावरी कोयना शिप्रा की ख़ातिर लौट आओ!
बेनाम के पत्थरों पर ज़ाहिर पत्तों की ख़ातिर लौट आओ!
झरे मिट्टी हुए हरसिंगार की ख़ातिर लौट आओ!
धूप खाती गिलहरियों की पीठ की ख़ातिर लौट आओ!
पार्थसारथी से उगते सूरज की किरणों की ख़ातिर लौट आओ!
रिंग रोड़ पर बिखरे कनेर सेमल की ख़ुशबू की ख़ातिर लौट आओ!
इमली के कत्थई की ख़ातिर लौट आओ!
जामुन के जामुनी की ख़ातिर लौट आओ!
चरती चलती नीलगायों की आँखों में ठहरे पानी की ख़ातिर लौट आओ!
बारिश की आहट देते मोरों की आवाज़ की ख़ातिर लौट आओ!
खोह भीतर रहती चींटियों की ख़ातिर लौट आओ!
लोककथाओं के सफ़र पर निकले जुगनुओं की ख़ातिर लौट आओ!
फ़ैज़ फ़राज़ परवीन जालिब की ग़ज़लों की ख़ातिर लौट आओ!
उजाड़ पड़ी दीवारों पर उजाड़ कविताओं की ख़ातिर लौट आओ!
अरावली पर भटकते कवि होते लड़के की ख़ातिर लौट आओ!
तुम जेएनयू की ख़ातिर लौट आओ!
ओ! बोगेनवेलिया सी अमलतास लड़कियों…
ओ! बोगेनवेलिया सी गुलबहार लड़कियों…
लौट आओ कि बोगेनवेलिया की रुलाई अच्छी नहीं लगती।
लौट आओ कि बोगेनवेलिया को इंतज़ार तुम्हारा अब भी है।
लौट आओ कि बोगेनवेलिया गुलदस्ते का नहीं बालों का फूल है!
3. अलविदा के दिसंबर आगे एक दरख़्त आता है
“ये सीढ़ियाँ कहाँ तक पहुँचाती हैं?”
अलविदा तक!
“अलविदा के आगे क्या आता है?”
शहतूत का एक दरख़्त आता है!
उसकी बेरंग की आँखों से पानी बह निकला
एक कश्ती थी जो डूब गई
कुछ मछलियाँ डुबाई के गीत गाने लगीं
किनारा, किनारे से जा मिला, क़िस्सा उसका ख़ाक हुआ
गीली रेत का घर एक ढह गया।
पत्थर आवाज़ से मुख़ातिब हो
एक जोड़ी आँखें पत्थर हुईं, कहा—
मुझे मार्च बहुत अज़ीज़ है। मैं मार्च के धीरे में पैदा हुई। पत्ते ज़मीं को रोशन किए जाते थे। मेरी माँ की उम्र उस बखत पन्द्रह साल थी। मेरी माँ के गले में एक गवैया था। चेहरे पर उसके सादगी का बसेरा था। दीवार पर छिपकलियों का एक जोड़ा था। माँ के दहेजवा नेमतखाने में बरकत थी। टांड़ ऊपर पर्दे पीछे तांबई कुछ बर्तन कमरे के रहवासी थे।
मेरी स्मृतियों में बीते का धुंधलका अभी भी ज़िन्दा है
क्यों नहीं तुम मेरे लिए मार्च हो जाते!
मैं दिसंबर में मार्च का शहतूत हो जाऊँगा—मैंने कहा।
मैं दिसंबर में मार्च का पीला हो जाऊँगा—मैंने कहा।
मैं दिसंबर में मार्च का राग हो जाऊँगा—मैंने कहा।
मैं तुम्हारे लिए दिसंबर से गिरूँगा तो मार्च तक पहुँच जाऊँगा
तुम यों करना : मेरे लिए मार्च में बची रहना!
शहतूत की रौनक़ के दिसंबर में झरते आते पत्ते
मार्च के पतझड़ की ग़ज़ल-ख़्वानी करते थे
मैं वायलिन की धुन को कानों में भर घंटों रोता था।
यक़ीन जानो दुनिया वालों
मेरा मार्च मर गया!
4. चाकू की रगों में बहता ख़ून मछलियों का था
मन की उगन समंदर पर एक पत्थर को डुबा ले गई
एक विशालकाय जहाज़ उसके सीने को चीरता आगे बढ़ गया
लोगों ने आँखें तरेरकर भद्दी गालियाँ बकना शुरू किया
तुम स्साले…! मादरचो….बहनचो….
शीशे से छलक समंदर में गिरी शराब की बूँदें समंदर के खारे से हार गईं
जाल फेंकते मछुआरे ने कछुओं के ख़ाब को नेस्तनाबूद कर दिया
मछलियों ने पकड़े जाने पर कहीं किसी से कोई शिकायत नहीं की
वो मान बैठीं—
तैरना इश्क़ है, पकड़ा जाना मुक़द्दर।
उस दिन मछलियाँ मर गईं
उस दिन उनका तैरना मर गया
उस दिन तहमदी कसाई के चाकू की रगें
मछलियों के ख़ून से सनी क़र्ज़दार हो गईं।
उस रात घर लौट
तहमदी कसाई ने अपनी औरत का इज़ारबंद खोला
अपनी औरत के जिस्म पर थूक रगड़ा
उस रात साहिल तक आती जाती लहरें दुनिया को रेत कर गईं।
उस रात रेत से साँप निकले
उस रात रात की रानी ख़ूब खिली
उस रात साँप मदहोश होकर मर गए।
उस रात गहरा होता समंदर
मन की गहराई पर बेतहाशा हँसा।
पल पल बाल नोचता नाख़ून चबाता कस्तूरी होता कवि
उस रात मुखौटों का क़त्ल चाहने लगा क़र्ज़दार चाकू से!
सज़ा मुक़र्रर हुई—
मछलियाँ!
इश्क़!
थूक!
चीख!
5. लोधी गार्डन
क़ब्र भीतर घास नहीं उगती
पत्थरों के कठोर ने उसे अबतक रोके रखा है।
क़ब्र भीतर कोई ख़ाब नहीं जन्मता
मुर्दों को नींद मयस्सर नहीं।
सूरज की तपिश क़ब्र के ऊपरी को तपाती गुज़र जाती है
अंदरुनी उसका रोज़ महरूम रहा आता है।
उपस्थिति के ठहाकों बीच उड़ती चील के दुख खो जाते हैं।
गुड़हल को देखती रोती लड़की के आँसू किसी को दिखाई नहीं पड़ते।
अजवाइन की गंध में दो देही होंठ एक देही हो जाते हैं।
मस्जिद के हिस्से अज़ान वुज़ू मुसल्ला नमाज़ कुछ नहीं आता।
अज़ान-ची की आवाज़ ज़ख़्म उगलती है।
मशरूमी शाम की निगहबानी में
मस्जिद की दीवार पर
प्रेमी प्रेम को खुरच लौट जाते हैं।
पास क़ब्र के उकड़ू गुमसुम फ़ाख्ताही शख़्स एक
बैठा रहता है लिए आँखों में पीड़ा।
वह एक जो गया
अबतक न लौटा।
6. सुंदर नर्सरी
पतझड़ी दोपहर में फूलों से प्यार करती मर गईं तितलियाँ
परवाने मर गए इबादत में
रंगरेज़ भूल गया रंग हाथों का
फ़ाख्ता डाल से उतरने को राज़ी नहीं।
याद में बचे रहने का स्वांग रचते हुए
लौट आने वाले जाने की प्रक्रिया में मर गए।
इंतज़ार के आँसुओं में लौटने की राख बह गई।
मैं यहाँ पंक्तियों की तलाश में बैठा रहता हूँ
मेरे आसपास कई बेगाने चेहरे घूमते आते हैं
अजनबिय्यत का भार कंधों पर लादे हुए
एक काला नाला पानीभर मुसलसल बहता रहता है
नाव को उसकी चाह कभी नहीं होती।
मैं अपनी आँखें नोच नोच खा रहा हूँ
मैं कव्वे से कोई गुज़ारिश नहीं करता ।
तुम अब कभी नहीं लौटोगी
शाम जाने को है ।
7. मग़्फ़िरत
मेरी बीनाई साथ छोड़ रही है
मेरे हाथों के फूल मुरझाने लगे हैं
बेग़म अख्तर की आवाज़ अच्छी नहीं लगती
किताबें अधूरी छोड़ने लगा हूँ
सिगरेट मुझसे छूटती नहीं।
मेरे दिल पर
मेरे अपने दिल पर
कभी भी टाँके लग सकते हैं।
यहाँ अब भी कोई एक रोज़ आटा डाल जाता है।
यहाँ कोई एक रोज़ पानी रख जाता है।
यहाँ सर्दियाँ आकर फिर गुज़र गईं।
यहाँ हवाई जहाज़ अब भी उड़ते हैं।
यहाँ फूल अब भी झरते हैं।
तुम यहाँ से चली गई कभी न आने के लिए
मैं तुम्हारा जाना अब भी देखता हूँ
तुम चले जा रही हो…
मेरी ज़िन्दगी
मेरी अपनी ज़िन्दगी
तुम्हारे चलते चले जाने में खो गई है।
मुझे ख़त लिखना कभी आया नहीं
काश आता कि लिख पाता—
मेरी देह
मेरी अपनी देह
चींटियों का क़ब्रिस्तान हुए जाती है
यहाँ जलावन की भी कोई कमी नहीं।
तुम मुझे राख कर जाने के लिए लौट आओ!
8. कुन-फ़यकुन
आसमान को भेदने का अभिनय रचती चील
बादलों के स्याह-सफ़ेद में खो जातीं हैं।
रात के नशे में बोतल फोड़ते धुत्त दारुखोर को
पैरों का ख़याल कभी नहीं आता।
फूलों को किताबों में अब कोई नहीं रख छोड़ता
वो ज़मीं पर गिरते हैं ज़मीं उन्हें चबा जाती है।
पहाड़ के नीचे रहता है पहाड़ का दुःख
पहाड़ कभी नहीं कहता।
नदी के नीचे रहती है नदी की हाय
नदी कभी नहीं कहती।
समंदर के नीचे रहती है समंदर की रेत
समंदर कभी नहीं कहता।
चींटियों का जत्था मुँह चिढ़ाता निकल जाता है।
गिलहरियाँ पेड़ पर चढ़ जातीं हैं।
गौरैया पकड़े जाने के भरोसे से भरी उड़ जातीं हैं।
एक झील चली आती है दरख़्तों को आधा डुबाने
वहाँ तैरती जलमुर्गी चुन चुन कीड़े खाती है।
गिद्ध होते ज़माने में
अरावली से अरावली पर चलती देह जब थक जाती है
याद करता हूँ—
न कह सकना मेरे दिल के लिए सदा मौत बनकर आया
मेरे पास एक ही दिल था ।
मैंने मन ही मन कईयों को दे दिया!
9. मार्च की कविता मार्च जैसी लड़की के लिए
When the sun shines hot and the wind blows cold :
when it is summer in the light, and winter in the shade. —Charles Dickens
(1)
लोहे के पुल पर लोहे की रेल ठहर ठहर चलती है
बीती बरसात में लाल क़िले तक आया यमुना का पानी लौट गया है
वो जिन्हें काम नहीं मिला फाँसी का फंदा कस रहे हैं
किरायेदार के सपनों का घर ढह रहा है
नाले उबाल खाकर लौट गए हैं
मेढ़क पैदा होकर मर गए हैं
दीवारों पर सीलन के धब्बों के निशाँ अबतक बाक़ी हैं।
मेरा एक दोस्त अपनी क़ब्र पर मुझसे फूल चाहता है—काले।
गिरते पीले पत्तों की दिखाई में
मैं गुलाबी में खोया गुलाबी सुनता हूँ।
(2)
मैं धुआँ होता जा रहा हूँ
राख होता तो बदन पर मल लिया जाता
मिट्टी होता तो पेशानी से सज्दे में चूम लिया जाता।
(3)
नीम शिरीष सेमल सहजन
उतार रहे हैं पत्ते छाल
मृत्यु जैसे सुंदर जीवन जैसे उदास।
(4)
नाज़िम हिकमत से तुम्हें कोई दिल्लगी नहीं।
निज़ार कब्बानी को तुम चूमने का शायर कहती हो।
महमूद दरवेश तुम्हें रुलाई का काँच लगता है।
बशीर बद्र पर तुम जान लुटाती हो।
प्यार रचते गोरी चोरी के फूलों बीच
मैं हर रोज़ देखना सीखता हूँ
मैं तुम्हें हर रोज़ और और ज़्यादा चाहने लगता हूँ।
(5)
तुम कहती हो—
कवियों को इस मौसम में विरह लिखने से परहेज़ करना चाहिए
न जाने कब आँसू छलक आएँ!
मैं विरह लिखने से ख़ुद को बचाए फिरता हूँ।
मैं आँसू लिखने से ख़ुद को बचाए फिरता हूँ।
उसके वास्ते जिससे एक तरफ़ा मुहब्बत की।
उसके वास्ते जिसने चाहा और मैं उस तक कभी न पहुँचा।
उसके वास्ते जिसके क़दमों में फूल बिछाना आया।
बिछावन ने मुझे अधूरा कर दिया!
(6)
रोना जानते हो!
मेरी आँखों ने सिर्फ़ दूर जाना देखा
हाँ : उससे कभी कह न पाया।
(7)
अनरूझा की याद वायलिन पर लिए
निर्वासन की आग में जलता फ़रीद फ़रजाद
अपनी बीवी मित्रा तवाक्कोली को साथ लिए
अपने मुल्क की सरहद पर खड़ा है ।
आबनूस की देह कुल्हाड़ी की चोट से चीख रही है।
अखरोट की स्मृतियों में क्रांति की धुँध बची है।
(8)
सितारे दमक रहे हैं आसमान में
चाँद ख़ालिस आँखों से दीख रहा है
फूल मधु कामिनी के रुबाई में ढल गए हैं
थकन देह को छलनी कर गई है
मुझे अब नींद में चले जाना है।
कचनार के वास्ते आज की रात
मैं मरना टाल रहा हूँ ।
(9)
करंज का झरा पत्ता आज की सर्द रात
मेरी बाट जोहता होगा!
(10)
मुर्दे से पहले क़ब्र में ज़िन्दा देह उतरती है।
(11)
अजान के वृक्ष पर फूल अजान के
खिल रहे हैं गा रहे हैं
अरावली पर ज्ञानेश्वर के अभंग जैसे।
(12)
इत्यादि के फूल मीर अनीस का मर्सिया हो गए हैं।
(13)
तुम्हें निर्मल वर्मा को ज़रूर से पढ़ना चाहिए!
मैंने माज़ी में निर्मल वर्मा को पढ़ना न पढ़ना
कुछ कहे बग़ैर स्वीकार कर लिया।
मैंने उससे सितंबर की शाम के बारे में कभी कुछ नहीं कहा।
मैंने उससे गिरजे के सामने बेंच पर धूप के टुकड़े के बारे में कभी कुछ नहीं कहा।
मैंने नहीं कहा कि लतिका से मुझे ख़ूब मुहब्बत थी।
मैंने नहीं कहा कि वे दिन उदासी से भरे हुए थे।
मैं इन दिनों याद को कॉफ़ी के स्याह से धो रहा हूँ।
वह अब यहाँ नहीं है!
(14)
कहीं जा रहा होता हूँ या जाने को होता हूँ
भूल जाता हूँ।
जाने का उत्साह मन में लगातार उमड़ता है
आँखें हों या फिर दिल।
मैं भुलाई का कुआँ हो गया हूँ
मुझे अब तारीख़ याद नहीं रहती।
अभी कुछ पहले तारों भरा आसमान देखा
पूरा चमकता चाँद देखा
ख़त्म होती रोशनी देखी
घिरता हुआ अँधेरा देखा
एक पूरा दिन देखा।
फूल फ़ीरोज़ी डालभर असुगंधित के नज़र आए
चलते चलते जहाँ पहुँचा।
ये कैसे दिन हैं!
•••
आमिर हमज़ा हिंदी के चर्चित युवा कवियों में से हैं। उन्होंने कुछ बहुत ही अनूठी किताबों का संपादन भी किया है। उनकी कविताएँ समालोचन, सबलोग, हिंदवी, परिसर आदि विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। वे जेएनयू में शोधरत हैं।उनसे amirvid4@gmail.com पर बात हो सकती है।