कविताएँ::
केतन यादव

1. दालान में लालटेन

झमाझम बरसती अंधेरी रात में
खपड़ैल की छत के दालान में लालटेन
सोती नहीं थी सारी की सारी रात,
शीशे की चिमनी से घुलती थी
काले में पीली रोशनी
और सब कुछ धुँधला-धुँधलाकर दिखने लगता।

वह माथे के आगे चलती थी
और उसके पीछे आदमी
कई बार टॉर्च होने के बाद भी
ले जाई जाती थी लालटेन

बाहर से लौटने पर फिर वापस
दालान में लालटेन
और जलने तक एकटक
खुली जुड़वा आँखें।

कुएँ के चौखट पर
खेत की मेड़ पर
गुसलखाने के दीवार पर
चूल्हे के सामने थोड़ी दूर

खंडहर की हवेली के
बंद अंधेरे कमरे के भीतर।

न जाने अब जब न लालटेन है न मिट्टी का तेल
लोग कैसे फूँकते हैं खून रंगे कपड़े।

2. स्मृति-भंग

उसने कहा—
जो तुम्हारा है वह लौटकर जरूर आएगा!
मैंने खिड़कियाँ खोल दीं
ताकि तुम्हारे बाल उड़कर चेहरे पर आ जाएँ
और मैं किसी पुरानी किताब के पन्नों सा आहिस्ता
उन्हें करीने से हटा कर एक ओर पलट सकूँ
मेरी टेबल पर एक ओर ऐश्ट्रे है
और दीवार के पोट्रेट पर नीले समुंदर का किनारा
जिसकी लहरें उठती-गिरती रहें धड़कनों में
और हम पार्श्व संगीत सुन पाएँ पत्तियों की कुलबुलाहट से,

तुम्हारी नज़रें फेरने से मैं यथार्थ में लौटता हूँ
और तुम्हें देखते हुए? उसे कह पाना संभव नहीं है।

दिन में तुम पुन: मनुष्य बन जाते थे
और रात में वैसे जैसे तुम नहीं थे सार्वजनिक
और उस वक़्त मानों मैं किसी थिएटर के दरवाजे पर खड़ा होता,
तुम्हारी कविताएँ एक खुला संधि-पत्र रहीं
जिसमें मृत्यु और जीवन के बीच का कोई रास्ता होता
जिसे पढ़ते हुए मेरी पीठ पर
स्मृतियों की खरोचें उभर आती हैं
जो मेरी देह को सम्भालने के लिए दी गई थीं सोच-समझकर

ये सब बताते रहे गुलाब की पंखुड़ियों पर उभरे—
हथेलियों की रेखाओं की तरह के निशान कि वह मेरी जूठन है
और मानों कोई अदृश्य स्पर्श उभर आएगा सबके सामने
आखें और होंठ की कुराफाती चुप्पी के बीच गुलाबी सा,
तुम्हारे मन पर उतना ही भार हो मेरा
जितना होता है तुम्हारे वक्ष पर मेरे लाए हुए गुलाब का भार
यह अलग बात है कि वह बातचीत की एक
औपचारिक शुरुआत के लिए ही होता है ।

गुस्से भरे पूरे संवाद के बाद अचानक एक आलिंगन
कि मानों फिर मिलने की आत्मीय गुंजाइश जिंदा रहे
और हल्के-फुल्के प्यार और विदा के मिश्रित वाक्य सा मैं,
तुमने मुझे अपनी तरह क्यों बना दिया?
इस वाक्य का उसके पास कोई जवाब नहीं था।
जिसने मुझे सबसे ज्यादा दुख दिया;
सबसे ज्यादा प्यार भी उसी ने किया
अजीब है पर जो कुछ भी है यही सच है!
जिंदगी की प्रयोगशाला में हम बार-बार प्रेम करते रहे
पहले से कुछ अधिक आहत होने की जोखिम के साथ।

3. जंगलराज

वह जो दिख रहा सुनाई पड़ रहा छाया हुआ है जो
वही जिसमें हम शामिल नहीं हैं फिर भी वह हमारी ही बात है
धुंध के पार रास्ता तो है पर हर चार कदम आगे बढ़ने पर
लगता रहा केवल धुंध ही सच है
वह जो तय किया गया है हमारे लिए
जिस रास्ते पर चलकर हम होते रहे अपने सच से दूर

एक झूठ को सौ बार बोलने पर वह सच हो जाता है
लिहाज़ा झूठ को जोर से उछाला गया अंतरिक्ष से
मसलन यह धरती कोयले के रंग-जाति वाले लोगों की नहीं

पियरा चुके बादलों ने ढक लिया है
हमारे हिस्से के चाँद को
मगर इसका यह मतलब नहीं कि चाँद निकला ही नहीं।

वह किसी एक के द्वारा तय किया जाता रहा
और बहुत करीने से कर दिया गया सार्वभौमिक
सबका सच एक नहीं होता
मेरा सच तुम्हारे सच से भिन्न‌ है पार्टनर
तुम्हारा इतिहास हमारा इतिहास नहीं है
यही सच है कि कोई भी सच अंतिम सच नहीं।

हम जंगल जितने असभ्य रहे
और हमें जंगली कहना हमें सबसे पुराना बताना ही है
जहाँ पर सब बराबर कदम रखते हैं—
सूरज जितना बराबर, पानी जितना, हवा जितना
आग और आसमान जितना चाँदनी जितना
जंगल में जितना जंगली शेर है
उतना ही जंगली हिरण भी है।

हमारे खेतों जमीनों के ऊपर
वे कभी देवता बनकर बरसे थे कभी पुरोहित बनकर
कभी सामंत बनकर और आज मल्टी नेशनल कंपनी बनकर
बहुत कम दाम में साँसें खरीद रहे वे हमसे

बुल्डोजर पर सवार पूँजी का पिशाच
विस्थापित करने को बढ़ रहा हमें हमारी जड़ों से
उसके साथ केवल प्रधान, अंधे नौजवान, और धर्म-ध्वजा ही नहीं
बल्कि हमें गुमराह करने के लिए
हमारी ओर के लोग भी हैं उसके पास।

सावधान! उन्हें पता नहीं है—
जंगल उनके अवशेषों पर उग जाएगा एक दिन
ये बेलें एक रोज पसर जाएँगी शहर के उनके बेडरूम तक
बोंसाई गमलों को फोड़कर बढ़ने लगेंगे अक्समात
सब्जियाँ और फल तोड़ देंगे ऑक्सिटोसीन के इंजेक्शन
कीट-पतंगे निगल जाएंगी कीटनाशक को
सभी खर-पतवार अचानक से जरूरी हो जाएंगी
प्रासंगिक हो जाएंगे घास-पूस उनकी सुरक्षा के लिए।

तुमने किया उनके रहवासों का अतिक्रमण
वे नदी बन लौटेंगे बदले हुए रास्तों पर एकदिन
सभ्यता के तुम्हारे सीमित प्रपंच टूट जाएँगे और कहेंगे
अपनी पशुता में अधिक लोकतांत्रिक हैं हम।

साम्राज्यवाद की सभी तहों को उधेड़ डालेंगे
मकड़ियाँ फेकेंगी अपना जाल
हिरण-बकरी-भेड़ हो जाएँगे माँसाहारी
कटफोड़वे माँजेंगे सान पर चोंच
यह करेंगे ऐलान सब मिलकर
कि यह धरती हमारी अपनी धरती है।

वे पेड़ों की प्रदर्शनी लगाते हैं
पर जंगल को बर्दाश्त नहीं कर पाते।
खुद को उदार व प्रगतिशील साबित करने के लिए
हमारे बगल में आकर बैठ जाएंगे वे
जंगल के आंदोलन के नारे भी लगाएँगे
आयोजनों में बुलाएँगे पुरस्कृत करेंगे
हमें मूर्ति में तब्दील करने की करेंगे हर कोशिश।

यह उनके अपने खोल से
बाहर आने का क्षण है
यह तुम्हें लोकतंत्र का सबसे बड़ा
पहरुआ बताने का कालखंड है
यह तुम्हारे मुहावरे बदलने का समय है।

•••

केतन यादव हिंदी की सबसे नई पीढ़ी के प्रतिभावान और चर्चित कवि हैं। उनसे yadavketan61@gmail.com पर बात हो सकती है। 

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