पछिया हवा ::
आलेख : उपांशु

केवल विचारधारा ही नहीं, सत्ताधारी वर्ग की कार्यशैली और विचार-शैली भी किताबों के माध्यम से, “बुद्धिजीवी” बहसों के माध्यम से, हर दौर के “शास्त्रार्थ” का हिस्सा बनती हैं। जैसे अरस्तु (एरिस्टोटल)ही  हों, वे कहते हैं कि कुछ पुरुषों की प्रकृति ही ग़ुलामी की होती है और बाकी आज़ाद होते हैं। अरस्तु ग़ुलामी को आत्मा से जोड़कर कहते हैं कि इसी आधार पर सभी के लिए यही लाभदायक है कि वो जिसका आत्म निम्न है, श्रेष्ठ की गुलामी करे। न्याय और अच्छाई इसी में है कि एक शासक और एक शासित रहे। ऐसा कहना आज के दौर में नया नहीं होगा कि अरस्तु का समय खत्म हो गया है, कि अपने समय के हिसाब से अरस्तु के समय का आकलन सही नहीं है। फिर ऐसा क्यों है कि अरस्तु से समय में भी न सिर्फ गुलाम वर्ग के लोग, बल्कि अन्य लोग भी ऐसी गुलामी से घृणा करते थे। फिर ऐसा क्यों है कि आज भी फिल्मों, अखबारों, न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया की बहसों में शासक और शासित वर्ग की बाइनरी दिख जाती है, इसे नेचुरलाइज़ करने का प्रयास दिख जाता है।

सत्ताधारी वर्ग की विचार-शैली पर सबसे बड़ा प्रहार मार्क्स के कैपिटल का था। ऐतिहासिक भौतिकवाद डायलेक्टिक्स के तिलिस्मी रूप को मिटाकर उसे भौतिक पृष्ठभूमि पर लाने का सबसे बड़ा प्रयास है। डायलेक्टिक्स, जो हेगेल के हाथों में आध्यात्मिक है, मार्क्स के हाथों में सत्ताधारी वर्ग की कार्यशैली, विचार-शैली और विचारधारा के खिलाफ एक सटीक हथियार है। फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध से सोवियत संघ के विनाश तक की और बाद की राजनीति में “कल्चर” के नाम पर एक नए तिलिस्म का आविष्कार किया गया था। ऐसे लिखने के पीछे का ध्येय महत्वपूर्ण है। संस्कृति और संस्कृति को लेकर चिंतन बीसवीं सदी में शुरू नहीं हुए थे। इनकी बहसें पुरानी हैं, और यही कारण है कि मैंने इस बार अरस्तु से अपनी शुरुआत की है। आखिर पाश्चात्य संस्कृति यूनानी मिथकों से ही तो सींची गई है।

दरअसल, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद और शीतयुद्ध के दौरान पश्चिमी यूरोप और अमरीका के वाम चिंतकों को एक ख्याल खाए जा रहा था। उनके अनुसार इस ख्याल का अपना यथार्थ था जो अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे युरोवादी देशों के मज़दूर वर्ग के विकास से जुड़ा था। सवाल के दो पहलु थे। पहला यह कि समृद्ध हो जाने के बाद कामगार वर्ग, जो कि नया मध्य वर्ग बन गया, ने सत्ताधारी वर्ग की विचारधारा को किस तरह अपना लिया। दूसरा यह कि लगातार यातनाएँ झेल कर भी मज़दूर वर्ग चुप क्यों है। आज के दौर में भी दोनों सवालों को हर तरह की हताशा और आशा के साथ मुनासिब बताया जाता है और बहुत जगह पर “मज़दूर वर्ग” और “आम आदमी” अदल-बदल कर प्रयोग किये जाते हैं। इन सवालों के सामने बीसवीं सदी के कई बुद्धिजीवी मार्क्स और मार्क्सवादी चिंतन की खामियों पर मनन करने के लिए ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग करते हैं। चाहे अमरीका में अदोर्नो और होर्कहाइमर की ‘कल्चर इंडस्ट्री’ हो या ब्रिटेन में रेमंड विलिअम्स और स्टुअर्ट हॉल की ‘कल्चर स्टडीज’। फ्रांस में फुकौ और देरिदा के रास्ते उत्तर-संरचनावाद के डिस्कोर्स का निर्माण भी इसी कड़ी का एक और हिस्सा है। बहुत हद तक इनके सवाल जायज़ प्रतीत होते हैं। बहुत हद तक इनके सवाल मज़दूर वर्ग का शैशवीकरण भी करते हैं। एक हिसाब से कहा जा सकता है कि इन्हीं सवालों के कारण वर्ग संघर्ष में पहली बार ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग हुआ। दूसरी तरफ यह भी कहा जा सकता है कि इन सवालों की सहायता से वर्ग संघर्ष को कमज़ोर बनाया गया। बुद्धिजीवी वर्ग और एकेडेमिया के बीच इसे “कल्चरल टर्न” का नाम दिया जाता रहा है। कुछ मार्क्सवादी इस संशोधनवाद और काउंटर-रेवोलुशनरी भी मानते हैं।

कल्चरवादी बहस की शुरुआत किसी विचारक में ढूँढना व्यर्थ है। फ्रैंकफर्ट स्कूल के दार्शनिक फ्रायड  और मार्क्स के ज़रिये इस बहस की शुरुआत करते हैं, वहीँ फुकौ और देर्रिदा जैसे फ्रेंच एंटी-ह्यूमनिस्ट नीत्शे से आकर्षित दिखते हैं। वैसे दार्शनिक जो अपनी मार्क्सवादी दृष्टिकोण से समझौता नहीं करना चाहते थे, वह मार्क्स के विचारों के पुनर्मूल्यांकन की बात करते हैं- जिनमें रेमंड विलिअम्स, हर्बर्ट मार्कुज़ा, और देलेज़ शामिल हैं। और ऐसे दार्शनिक भी हैं जो मूलतः खुद को मार्क्सवाद के खिलाफ स्थापित करते हैं, जिनमें फुकौ और देरिदा का नाम सबसे ऊपर आता है। बीसवीं सदी के बुद्धिजीवी वर्ग के लिए मार्क्स के नाम पर हो रहा यह ध्रुवीकरण किसी शीतयुद्ध से कम नहीं था। और इसमें भी सच्चाई है कि शीतयुद्ध का प्रभाव इस ध्रुवीकरण को और गहन बना रहा था। आज का समय फुकौ को एक वाम विचारक के रूप में पढ़ना चाहता है, लेकिन एकेडेमिया में फुकौ को इस तरह परोसने के पीछे का कारण वैश्विक थ्योरी उद्योग (गेब्रियल रॉकहिल) को बढ़ावा देना भी है। फुकौ को एक आईकोनोक्लास्ट और रेडिकल के रूप में प्रसिद्धि हासिल है, जिसके पीछे ‘हिस्ट्री ऑफ़ मैडनेस’, ‘हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुअलिटी’ और ‘डिसिप्लिन और पनिश’ जैसी किताबों का एक बड़ा योगदान है। इन पुस्तकों के ज़रिये फुकौ उन संरचनाओं का इतिहास लिखने की कोशिश करते हैं जो ऐतिहासिक रूप से दमनकारी रहे हैं और आज एक शक्तिशाली संस्थान हैं। उदाहरण के तौर पर फुकौ के अनुसार दमन का इतिहास विज़िबल से इनविजिबल की ओर बढ़ा है। जहाँ कभी सज़ा एक प्रदर्शन के रूप में दी जाती थी, जहाँ सत्ता के पास किसी व्यक्ति को खत्म कर देने की ताकत हुआ करती थी, वहीँ आज (फुकौ के समय तक) इन सभी चीज़ों को बर्बर माना जाता है। यदि फुकौ की माने तो मौजूदा ताकतें मिटाने में नहीं, बढ़ाने में यकीन रखती है। इसे वह ‘बायो-पॉवर’ कहते हैं। फुकौ पॉवर को देखने का नजरिया बदलना चाहते हैं, उनके हिसाब से उन्नीसवीं सदी के अंत तक ताकत के तंत्र में कई बदलाव आते हैं, जिसकी वजह से सत्ता शक्ति का उपयोग जीवन के संरक्षण के लिए करती है ताकि अधिक से अधिक लोग पूंजीवादी व्यवस्था के अधीन रहकर अपना श्रम दे सके। नियंत्रण और निगरानी, फुकौ लिखते हैं, कर, शक्तियों का विकास कर, उन्हें एक धारा में बाँधना न कि उनका विनाश करना जिससे पूँजीवाद के विकास में खलल पड़े। अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के बीच फुकौ को यही भेद दिखता है जिसके कारण एक पूँजीवादी दौर शुरू हो सकता है। अठारहवीं शताब्दी तक राजाओं के पास जीवन लेने और देने की शक्ति थी, जिसे वह ‘सॉवरेन-जुडिशल’ ताकत कहते हैं। उन्नीसवीं सदी में जीवन संरक्षण के नाम पर यही शक्ति एक तरफ ‘डिसिप्लिनरी’ मोड़ लेती है – जहाँ निगरानी को प्राथमिकता हासिल है, वहीँ साथ ही साथ दूसरी तरफ ऐसे तंत्रों का आविष्कार करती है जो जन्म से लेकर मरण तक मनुष्य-जीवन के हर मोड़ को नियंत्रित करती है।

साठ से अस्सी के उन दशकों के बीच फुकौ की किताबें, उनके ऐसे विश्लेषण बुद्धिजीवी वर्ग में काफी चर्चित हुए। क्योंकि फुकौ मूलतः कम्युनिस्ट विचारधारा के खिलाफ थे, इनकी किताबों को अमरीका में ज़ोर-शोर से बढ़ावा दिया गया। मार्क्सवाद के खिलाफ वह न केवल अपनी किताब “द आर्डर ऑफ़ थिंग्स” में लिखते हैं, बल्कि देलेज़ और गुआतारी के एंटी-इडिपस की भूमिका में तंज़ करते हैं। कहा जाता है देलेज़ को फुकौ की भूमिका नहीं पसंद आई थी लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग में फुकौ की ताकत कुछ ऐसी थी देलेज़ कुछ नहीं कह पाए और प्रकाशक फुकौ के नाम पर किताब बेचने को इच्छुक भूमिका सहित पुस्तक छापते रहे। लेकिन फुकौ के साथ पहली समस्या उनका एंटी-मार्क्सवाद या सीआईए से उनके करीबी ताल्लुकात नहीं हैं और यदि हैं भी तो इस लेख में उस पर चर्चा नहीं की जाएगी (इच्छुक पाठक फुकौ पर गेब्रियल रॉकहिल के लेख पढ़ सकते हैं)।

समस्या फुकौ के इतिहास से शुरू होती है, या यों कहे तो समस्या तब शुरू होती है जब फुकौ अपने विश्लेषण को ऐतिहासिकवाद अथवा इतिहासवाद का नाम देते हैं। मैं फुकौ को दक्षिणपंथ का मार्क्स नहीं कहना चाहता क्योंकि यह धब्बा मार्क्स के गरेबाँ पर लगेगा और क्योंकि फुकौ के विश्लेषण की सबसे बड़ी कमी ऐतिहासिकता की है। यदि फुकौ ऐतिहासिक भौतिकवाद के बेहतर छात्र होते, उन्हें अपनी कड़ियों को जोड़ने में इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती। उदहारण के तौर पर जब अठारहवीं  और उन्नीसवीं सदी के सत्तातंत्र के बदलावों पर फुकौ अपना विश्लेषण देते हैं, ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये आटोमेटिक प्रक्रिया के तहत हो रहा है। फुकौ उसी जाल में फँस जाते हैं जिसका रूपक बेंजामिन शतरंज के खेल के ज़रिये देते हैं। वह भूल जाते हैं या स्पष्ट नहीं कर पाते कि सत्ताधारी वर्ग से सूई की नोंक बराबर हक़ भी छीनकर ही प्राप्त हुआ है। यूँ ही नहीं अठारहवीं शताब्दी आन्दोलनों के गूँज से काँप रही थी। यूँ ही नहीं इतिहास से रोबेसपिअर का नाम सदा के लिए आतंक से जोड़ दिया गया। यूँ ही नहीं ब्रिटेन में खुद को जेकोबीन कहना या जेकोबीन क्लब से किसी भी तरह की सहानुभूति रखना दंडनीय था। यूँ ही नहीं 1848 को आन्दोलनों का वर्ष कहा गया। यूँ ही नहीं ब्लान्की को इतिहास से मिटाने का हर संभव प्रयास किया गया। लेकिन फुकौ इन संघर्षों को, इनमें बहे लहु को अपने ऐतिहासिक विश्लेषण में कोई हिस्सेदारी नहीं देते हैं। फुकौ पर हमला करना मेरा ध्येय नहीं है इसीलिए अपनी टिप्पणी के अंत में यही लिखना चाहूँगा कि वर्ग-संघर्ष और ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझे बिना फुकौ को पढ़ना कानी आँख से दुनिया को देखना है।

लेकिन फुकौ को कभी कामगार वर्ग से ख़ास मतलब भी नहीं था। वे ‘क्रिटीक ऑफ़ पॉवर’ वाले विचारक (शक्ति के आलोचक) कम और ‘एनालिसिस ऑफ़ पॉवर’ वाले विचारक (शक्ति के विश्लेषक) अधिक थे। लेकिन अदोर्नो पूरी तरह आलोचक के दृष्टिकोण से ही देखे जाते हैं, और ‘क्रिटीक’ (Critique) नाम की उनकी रचना मुझे पीएचडी के कोर्सवर्क के दौरान पढ़ने को भी मिली। फुकौ की पुस्तकों की तरह ही “डायलेक्टिक ऑफ़ एनलाइटनमेंट” भी एक अत्यंत प्रभावशाली पुस्तक प्रतीत होती है और बहुत हद तक है भी। अदोर्नो और होर्कहाईमर के सामाजिक विश्लेषण को आज ‘क्रिटिकल थ्योरी’ के नाम से जाना जाता है। ‘क्रिटिकल थ्योरी’ जगत के लिए डायलेक्टिक ऑफ़ एनलाइटनमेंट एक मैनिफेस्टो की तरह है। एनलाइटनमेंट अठारहवीं शताब्दी का मुख्य बुद्धिजीवी मुद्दा था। एनलाइटनमेंट बहुत हद तक औद्योगीकरण और यान्त्रिकरण के लिए भी महत्वपूर्ण था। अदोर्नो (और होर्कहाइमर) के अनुसार एनलाइटनमेंट की संरचना मिथकों की संरचना से अलग नहीं है। मिथकों की अपनी तर्कसंगतता है, जो कि मिथकीय संसार को अर्थों से सम्पूर्ण करती है। एनलाइटनमेंट का संसार भी अपने अर्थों से सम्पूर्ण है, लेकिन ये वही अर्थ हैं जिन्होंने नाज़ीवाद और फासीवाद को जन्म दिया। लेखकों के अनुसार मिथ पहले से ही एनलाइटनमेंट है, लेकिन बगैर मिथकों के एनलाइटनमेंट मुमकिन नहीं है। पूँजीवादी शक्तियों के विकास में विज्ञान का एक बड़ा हाथ रहा है। भले ही अपनी किताब में लेखक विज्ञान को दोषी नहीं मानते, उनका मानना है कि पूँजीवाद के विकास के लिए विज्ञान को अपने अधीन कर औद्योगीकरण के मार्ग पर चलाया गया। हमारे सभी सामाजिक और तकनीकी तंत्र उत्पादक-उपभोक्ता संस्कृति के बचाव के लिए बनाये जा रहे हैं। हमारी संस्कृति भी औद्योगीकरण के अधीन कुछ इस तरह होती जा रही है कि एनलाइटनमेंट जिसका मकसद, कांट के शब्दों में, विचारों की स्वाधीनता थी, इसी विचारधारा की पराधीनता हो चुकी है। यही ‘कल्चर इंडस्ट्री’ का मूल प्रश्न है। मैं एक अन्य लेख में डायलेक्टिक ऑफ़ एनलाइटनमेंट के दोनों लेखों पर विस्तार से कहूँगा, और फुकौ की पुस्तकों पर भी विस्तृत विश्लेषण करूँगा। वैचारिक रूप से अदोर्नो निश्चित ही पूँजीवाद के विरोध में लिखते हैं। जो विरोध शायद फुकौ में उस तरह ज़ाहिर नहीं, अदोर्नो में है। अदोर्नो केवल पूँजीवाद का विश्लेषण नहीं करते, इसके खिलाफ एक मोर्चा भी खोलते हैं। और अदोर्नो के मोर्चे से मार्क्स के सिद्धांतों में लिप्त कई सारे चर्चित शब्द निकल कर आते हैं। लेकिन अदोर्नो के रास्ते कामगार वर्ग का शैशवीकरण बहुत आराम से किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर विएतनाम युद्ध के दौरान जब अमरीकी जनता अपनी सरकार के खिलाफ प्रतिरोध कर रही थी, अदोर्नो उस समय के प्रतिरोध संगीत को भी ‘कल्चर इंडस्ट्री’ का हिस्सा मान, उसकी आलोचना कर रहे थे। अदोर्नो और जैज़ का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है, और जैज़ का इतिहास बहुत हद तक अफ्रीकन-अमेरिकन कामगार वर्ग का भी इतिहास है। अदोर्नो के अनुसार वह केवल जो है उसी की व्याख्या कर सकते हैं। किसी भी तरह के प्रतिरोध को वह संशय से देखते हैं। ऐसे समय पर अदोर्नो की सम्भ्रान्तता स्पष्ट नज़र आ जाती है।

और शायद ‘कल्चरल टर्न’ की सबसे बड़ी समस्या इसकी सम्भ्रान्तता ही है। न चाहते हुए भी कल्चरल टर्न के सभी विचारक या तो किसी सम्भ्रान्त वर्ग से आते हैं या सम्भ्रान्त हो जाते हैं जिसके कारण कामगार वर्ग से इनका रिश्ता टूट जाता है। मैथ्यू होगार्ट, रेमंड विलिअम्स और स्टुअर्ट हॉल की कहानी कामगार वर्ग से शुरू होती है। ब्रिटेन की भौतिक परिस्थिति अमरीका और फ्रांस से बिलकुल भिन्न थी, शायद इसीलिए संस्कृति की बात करते हुए होगार्ट और विलिअम्स आम जनता की चेतना निर्माण करने वाली सांस्कृतिक वस्तुओं पर ध्यान देते हैं। स्टुअर्ट हॉल कल्चर स्टडीज को एक नई सम्पूर्णता (totality) के तौर पर देखना चाहते हैं जो व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक पहलु के साथ चेतना पर संस्कृति के असर का भी मूल्यांकन कर सके। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का समय ब्रिटेन के लिए मिला-जुला था, एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्यास्त हो रहा था तो दूसरी तरफ पचास और साठ के दशक, आर्थिक समृद्धि का दौर था। ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि औद्योगिक आन्दोलन और औपनिवेशिकता की फसल इसी दौर में काटी जा रही थी। ऐसे में लेबर पार्टी की जीत वेलफेयर स्टेट की जीत थी और वेलफेयर स्टेट की जीत के साथ कामगार वर्ग और अब मध्य-वर्गीय कामगार वर्ग था। यह दौर मॉस-मीडिया और टीवी का वो दौर था जब इश्तेहार लोगों की चेतना और इच्छाओं पूँजीवादी उत्पाद के आधार पर बदल रहे थे। कुछ सौ सालों से लड़ी जा रही लड़ाई का नतीजा यह था कि लोगों के पास बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा थी, काम के बाद घर पर देने के लिए वक़्त था और खुद के बारे में सोचने के लिए कई सवाल थे। लेकिन पचास और साठ के दशकों में लेबर पार्टी लगातार हारती रही। वही कामगार वर्ग जो उन्हें विजयी बनाने का काम करता था अब उनके प्रतिद्वंदियों के खेमें में जा बैठा था। लेबर पार्टी के नेता इसके ज़िम्मेदार टीवी, मोटर कार, और पत्रिकाओं को मानने लगे। कुछ बुद्धिजीवियों का ये तक मानना था कि आर्थिक समृद्धि के कारण पारंपरिक कामगार वर्ग जैसा कुछ रह ही नहीं गया है, और वर्ग संघर्ष अब बीते दिनों का दु:स्वप्न है, जिसे इतिहास के पन्नों के बीच ही दबे रहने देना चाहिए। ऐसा लगने लगा था कि ‘उत्तर-पूँजीवादी’ समाज का यह युद्ध अब सामाजिक और आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक कुरुक्षेत्र पर लड़ा जाएगा। ऐसे में रेमंड विलिअम्स का ‘कल्चर एंड सोसाइटी’ औद्योगिक पूँजीवाद के आलोचकों (दक्षिणपंथी और वामपंथी) के आधार पर प्रमुख (डोमिनेंट) कल्चर की स्थापना करने की कोशिश करता है। वहीँ टॉमसन का ‘द मेकिंग ऑफ़ द वर्किंग क्लास’ उन दबी आवाजों को ऊपर लाने की कोशिश करता है जिन्हें इतिहास की पुस्तकों में नहीं सुना गया। इसमें हर उस कामगार की आवाज़ है जिसकी अभिव्यक्ति और उससे पनपे तथाकथित संस्कृति को इतिहास के पन्नों में दबाया गया है। कल्चर स्टडीज का ख़ास जुड़ाव संस्कृति के वैसे पहलुओं से है जिन्हें प्रमुख, अवशिष्ट और उभरता (डोमिनेंट, रेसिजुअल और इमर्जेंट) कहा जा सकता है। संस्कृति के अवशिष्ट तत्वों को समझाने के लिए उदहारण के तौर पर स्टुअर्ट हॉल लिखते हैं कि वामपंथी सांस्कृतिक विश्लेषक अमूमन धर्म की उपेक्षा करते हैं जबकि धार्मिक विचारों और संस्थाओं को हर दौर के हिसाब से ढाल लिया जाता है। अवशिष्ट सांस्कृतिक शक्ति के रूप में धर्म, स्टुअर्ट हॉल के अनुसार, प्रमुख सांस्कृतिक शक्तियों के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज़ बन सकती है। स्टुअर्ट हॉल और ब्रिटिश कल्चर स्टडीज पर विस्तार से बात किसी और लेख में ही मुमकिन है।

मैंने अब तक कामगार वर्ग की ही बात की है क्योंकि मार्क्स के अनुसार आन्दोलन की क्षमता इसी वर्ग में है। कामगार वो हैं जिनके पास सिवाय अपने श्रम के कोई और शक्ति नहीं है। फैक्ट्री की मशीनें पूँजीवादियों की हैं, स्कूलों में चाक, डस्टर और बोर्ड पूँजीवादियों के हैं। मार्क्स को संस्कृतिवादियों की खुली चुनौती यही है कि यदि कामगार वर्ग में कोई आन्दोलनकारी संभावना होती तो आन्दोलन हो चुका होता। और तो और संस्कृतिवादी किसी शिक्षक को मज़दूर वर्ग का हिस्सा मानने से इनकार करते हैं। श्रम की परिभाषा में बाइनरी शारीरिक और मानसिक श्रम की दी जाती है। इस परिभाषा में श्रम शक्ति और उत्पादन के साधनों पर हक़ की बात नहीं मिलती। शायद यही कारण है कि जब अमरीका विअतनाम को जला रहा था, फिलिपिन्स में नरसंहार कर रहा था, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के बीज बो रहा था, मिडिल ईस्ट में इजराइल को अपना दूत और तेल के कुओं का संरक्षक बना रहा था, कल्चरवादी बहस के मुद्दे वर्ग-संघर्ष की “रूढ़ियों” से थ्योरी की “रक्षा” कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि संस्कृति के मुद्दे गैर-ज़रूरी हैं। मार्क्स भी जानते थे पूँजी की बदलती पृष्ठभूमि के आधार पर थ्योरी का विकास भी ज़रूरी है। लेकिन माइकल परेंटी के शब्दों का इस्तेमाल कर कहूँ तो राजनीतिक अर्थव्यवस्था और सामाजिक शक्ति पर सत्ताधारी वर्ग के प्रभुत्व को समझे बिना संस्कृति के बारे में बात करना संभव नहीं।

आज के दौर में यह बताने की कतई ज़रुरत नहीं है सत्ताधारी वर्ग की पूँजी से किया गया शोध सत्ताधारी वर्ग के फायदे के लिए ही होगा। चाहे वह कोई भी बुद्धिजीवी हो, सामाजिक दायरे में रह कर ही बुद्धिजीवी कहला सकता है। पिंजरे का पता किसी भी चिड़िया को सीखचों से चोंच लड़ाने के बाद ही लग सकता है। बाकी पूँजीवादी समाज का पिंजर विशाल है इसमें कोई दो राय नहीं है। समय-समय पर पूँजीवादी सत्तापक्ष छोटी-मोटी रियायतें देता रहता है। कार्यस्थल पर पितृसत्ता के खिलाफ स्त्रीवाद के संघर्ष को खत्म करने के लिए महिला नेतृत्व को खड़ा करना पितृसत्ता को खत्म तो नहीं करता लेकिन स्त्रीवादी आवाजों को कमज़ोर बनाने का हर संभव प्रयास करता है। कई-कई पीढ़ियों के खून-पसीने से ही आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय कामगार महिला दिवस घोषित किया गया था। यह विरासत केवल क्लारा जेटकिन और व्लादिमीर लेनिन की नहीं बल्कि उन सभी कामगारों की थी जिन्होंने लड़-मरकर यह भविष्य बनाया था। यह दिन मार्गरेट थैचर, हिलरी क्लिंटन या कमला हैरिस जैसी बुर्जुआ महिलाओं का नहीं था। ऐसा बहुत तरह के संशोधनवादों के बाद ही मुमकिन हो पाया है। समाजशास्त्र में इसे ‘रेक्युपरेशन’ (recuperation) भी कहा जाता है। जैसे चे के टी-शर्ट्स और प्राइम विडियो या नेटफ्लिक्स पर कोई एंटी-कैपिटलिस्ट फिल्म या शो। ऐसे में संस्कृति को आकार देने वाली ताकतों पर हर दौर में चर्चा ज़रूरी है। मार्क्स से क्लारा जेटकिन तक तथा ग्राम्शी से परेंटी तक, हर दौर के विचारकों ने पूंजीवादी शक्तियों को सत्ता में रखने वाली संस्कृति की आलोचना की है। मैं किसी को फुकौ, अदोर्नो, रेमंड विलिअम्स या स्टुअर्ट हॉल की किताबें बेच डालने को नहीं कह रहा हूँ। मेरा सन्देश वही है जो पिछले लेख में भी था। किसी भी दौर के प्रमुख विचार सत्ताधारी वर्ग की प्रायोजित विचारधारा से निर्मित होते हैं।

इस विचारधारा का प्रसार हँसी-ख़ुशी मुमकिन नहीं है, कई-कई पीढ़ियों की लाशों पर से मुमकिन हो पाया है। इसीलिए संस्कृति को लेकर ऐतिहासिक भौतिकवाद का और कोई दृष्टिकोण मुमकिन नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पूँजीवाद केवल एक आर्थिक व्यवस्था नहीं है। यह एक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था है। पूँजीवादी दौर में पॉपुलर मीडिया उन किताबों, फिल्मों या गानों से नहीं बनी है जिन्हें लोग पसंद करते हैं। पॉपुलर मीडिया को प्रचलित करने के पीछे, ये टैग देने के पीछे करोड़ो-अरबों डॉलरों का निवेश है। जन सामान्य के लिए यह निवेश कितना जरूरी है, यहाँ तक बात पहुँचते हुए, अपनी शक्ति खो देती है। न्यूज़ चैनलों की, सोशल मीडिया की, और खुद को बुद्धिजीवी स्थापित करने वाले लोगों की बहसों के बीच कामगार वर्ग अपनी आवाज़ की पहचान कैसे कर सकता है? शायद कल्चरल टर्न की राजनीति को इस तरफ भी गौर करना चाहिए।

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उपांशु हिंदी के चर्चित कवि और अंग्रेज़ी के अध्येता हैं। ‘ठहरना-भटकना’ शीर्षक से उनका एक काव्य-संग्रह प्रकाशित है। गए दिनों उपांशु ने इंद्रधनुष पर ‘पछिया हवा’ नाम से पाश्चात्य दर्शन संबंधी एक कॉलम लिखना शुरू किया है, प्रस्तुत आलेख उसी श्रृंखला की दूसरी कड़ी है। पहली प्रस्तुति के लिए यहाँ देखें : इतिहास और डाइलेक्टिक

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