कविताएँ::
बलराम कांवट
1). बार बार बार
(डैरेन एरोनोफस्की की फ़िल्म ‘मदर!’ देखकर)
मेरी कोई इच्छा नहीं थी
कि अचानक चमक उठे कोई धूम और बनने लगे सृष्टि
लेकिन यह बनी
और बनते बनते फैल गई हर तरफ़
मेरी कोई इच्छा नहीं थी
कि अनंत में तिनके की तरह भटकता यह आग का गोला
एक दिन ठंडा हो –
यहाँ बनने लगे समुद्र
समुद्र में जन्मे जीवन
और वह धरती आकाश हर जगह पहुंच जाए
मेरी कोई इच्छा नहीं थी
मेरी आकांक्षा के बिना ही बात आई वानरों तक
मेरी आकांक्षा के बिना ही
बात मनुष्यों तक पहुँची।
मैंने कभी नहीं चाहा कि जीवन लड़ाई बन जाए
और यह लड़ाई हो जाए इतनी एक तरफा
कि एक प्रजाति
सारी प्रजातियों की चिता पर बैठी गाती रहे मनुष्यता के गीत
लेकिन गीत गाये जाते रहे
मैं पृथ्वी भूनकर नहीं खोजना चाहता दूसरी दुनिया
लेकिन वह खोजी जा रही है
मुझसे किसी ने नहीं पूछा –
कि हम कैसे बनायें ऐसी मशीनी मेधा
जो कभी हमको ही मिटा दे
लेकिन वह बनती जा रही है
और यह देखकर भी नहीं रोक रहा मैं किसी को कुछ भी करते हुए
मैं नहीं चाहूँगा
कि हमारा यही प्रतिनिधि एक दिन जा भिड़े
ब्रह्मांड में किसी और सभ्यता से
लेकिन शायद यह होगा
मैं कतई नहीं चाहूँगा कि एक दिन सूर्य बुझ जाए
गृह नक्षत्र सारे समा जाए किसी काले भँवर में
लेकिन यह होगा
जब कुछ नहीं रहेगा
तो ना हो कोई धमाका और ना हो फिर से सृष्टि का आरम्भ
बस यही इच्छा है मेरी –
एकमात्र!
लेकिन कौन सुनेगा मेरी बात
यहाँ कौन किसकी मानता है
यह कैसी गड़बड़ है
कैसा बवाल
कि कुछ नहीं होने के बाद भी फिर से होने लगेगा सबकुछ
और सबकुछ ऐसे ही
बिना आस और इनिच्छा के चलता रहेगा लगातार
बार बार बार!
मुझे इस बार भी कुछ नहीं आयेगा रास
लेकिन हर बार की तरह फिर से पोछूँगा अपनी आँख
ताकि फिर से रो सकूँ –
एक और बार!
2). आदमी के टुकड़े
(जलवायु न्याय बिना वर्ग संघर्ष के कुछ नहीं, केवल बागवानी है – चिको मेंडेस)
मैंने अखबार में देखा था उसका चेहरा –
थार के एक गांव की वह स्त्री
अपनी माँ से बिछुड़े हिरण के बच्चे को
छाती से लगाकर दूध पिला रही थी।
कुछ माह बाद
उस गांव के करीब से गुजरा तो उसे देखने की चाह उसके घर ले गई
वह आँगन में बैठी
अनाज फटक रही थी
उसका बच्चा
हिरण के बच्चे के साथ खेल रहा था।
मुझे देखकर आस-पड़ोस के लोग
साथ आकर बैठ गए
किसी ने कहा –
मिनख हो जानवर हो रूख बबूल ही क्यों ना हों
सब उसी एक सिरजनहार की संतानें हैं
कोई बोला – किसी का दुःख दरद बाँटना ही तो सच्ची सेवा है
और गुरुओं की वाणी यही तो कहती है।
उस स्त्री ने मुझसे कहा
कि मेरे एक नहीं दो दो बालक हैं
एक छाती से एक को
तो दूसरी से दूसरे को चिपकाए रहती हूँ
उसने बताया –
यह गुण उसे समाज से मिला है
और समाज उसके रक्त में बहता है।
वह बहुत सुंदर बोल बोल रही थी
और वह मुझे थार में बहती नदी सी लग रही थी।
तभी दरवाजे पर आया
एक और अनजान आदमी
लेकिन उसके चेहरे पर
इस देश में उसकी ‘जगह’ का नाम बड़े साफ़ अक्षरों में छपा था।
उसने वहीं खड़े रहकर
मांगा – पानी
स्त्री खड़ी हुई
और बर्तन उठाकर उसे पानी पिलाने चली गई
वह नीचे बैठा
उसने ओक से
पानी पिया
और अपने
रस्ते चला गया
थोड़ी देर बाद
मैंने हाथ जोड़कर सबसे जाने की इजाज़त ली
मैं थोड़ी दूर ही पहुँचा था कि मुझे एक आवाज़ सुनाई दी
वह किसी मटके के टूटने की आवाज़ थी
मुझे लगा जैसे किसी आदमी के टुकड़े हो गए हों!
3). गुल्लक
एक बच्ची
करौली के मेले से खरीदकर लाई
एक गुल्लक
कुछ दिन
रुपये दो रुपये जितने भी जोड़ सकी
जोड़कर
उसमें डालती रही
एक दोपहर स्कूल से लौटकर
उसने एक चिड़िया को देखा अपने घर की दीवार में
घर ढूँढते हुए
अब दीवार पर
एक सूतली से लटका है गुल्लक
उसमें गिलास के आकार का
मुँह खोला गया है
जहाँ सिक्के होने चाहिए थे
वहाँ घासपूस के
तिनके लटके हैं
आँगन से
चोंच भर भरकर
चिड़िया ला रही है अपने बच्चों के लिए दाना-पानी
जीवन की चहकार से
रह रह गूँज रहा है
सारा घर!
4). दुनिया के बारे में सोचते हुए
मैं सड़क पर मोटरसाइकिल से चलते हुए
सोच रहा था
कि धरती पर इतनी ज़्यादा हो गईं हैं सड़कें
कि अब सड़कों को कुछ कम होना चाहिए
मैं पास से गुजरते दूसरे वाहनों को
देखते हुए सोच रहा था
कि इतने ज़्यादा बढ़ गए हैं दुनिया में वाहन
कि अब उन्हें कुछ कम होना चाहिए
मैं तेज गति से पेड़ों और झाड़ियों को
पीछे छोड़ते हुए सोच रहा था
कि रोज़ कितने ही जीव जंतु और पक्षी मारे जाते हैं
वाहनों के कुचले जाने से
और तभी – सड़क पार करने की कोशिश में
भौंचक्क हुई दो गिलहरियाँ
एक साथ कुचली गईं
मेरी ही मोटरसाइकिल से
मैं दुनिया को बर्बाद करते हुए सोच रहा था
कि यह दुनिया
किसी तरह बचनी चाहिए।
5). विदाई
खेतों और छतों के ऊपर
आकाश में
नन्हीं आँख सा चमक रहा है आखातीज का चाँद
चाँद के नीचे
ग्राम्य देवता के चबूतरे पर
नीम के फूलों की महक छा रही है
सामने पगडंडी पर
रंग बिरंगी लूगड़ियाँ ओढ़े स्त्रियाँ
झिलमिल गीत गाती आ रही हैं चाक पूजने
कंधों पर रोशनियाँ लादे युवक
साथ चल रहे हैं
इन्हीं के बीच
कोई है जो चल रही है आहिस्ता पाँव धरते
जो अपनी धरती से बिछड़कर
दूर जाने वाली है
अब यहीं रह जाएँगे
उसकी छाँव में पले माड़ के फूल
उसकी याद में रोते मोर और हिरणों के झुंड
देवता – जो उसका पुरखा था
अब यहीं छूटने वाला है
आँखों में भरकर
खाने खेलने के दिन
वह बसने जा रही है ऐसे पराए देस
जहाँ शायद ही दिखेगा उसे वैशाख का चाँद
शायद ही मिलेंगे
कहीं नीम के पेड़ !
6). घर में मधुमक्खियाँ
हमने अपने बड़े बूढ़ों से सुना था
कि मधुमक्खियों को कभी घर में नहीं बैठने देना चाहिए
उनके घर में बसने से घर उजड़ जाते हैं।
इसलिए जब भी
घर के किसी हिस्से
या आँगन में किसी पेड़ पर आकर छत्ता जमातीं थीं मधुमक्खियाँ
हम हाथों पैरों और चेहरों पर
कपड़े बांधकर
डंडों और झाड़ुओं से उन्हें खदेड़ देते थे।
जैसे वे आईं थीं कहीं से बेघर होकर
यहाँ से भी बेघर होकर चली जातीं थीं
किसी और जगह
फिर से बेघर होने
इस तरह वे इतनी खदेड़ी गईं पृथ्वी से
कि पृथ्वी पर
उनके लिए कोई घर नहीं बचा
लेकिन उनके बिना
मनुष्यों के घर तो बचने ही चाहिए थे
जब याद करता हूँ
अपने बड़े बुजुर्गों की वह सीख और देखता हूँ अपना घर
तो सोचता हूँ
उन्होंने क्यों नहीं बताया
मधुमक्खियों के नहीं होने से
धरती उजड़ जाती है!
7). धरती की पुस्तक
लाखों बरस आँखें गढ़ाकर
पृथ्वी ने एक पुस्तक रची
उस पुस्तक में सबकुछ था
सारे शब्द
सारे रंग
सारे सुख
उसमें एक जगह मेरा भी नाम लिखा था
लेकिन पता नहीं
मुझे क्या जँचा
मैं जो एक शब्द था
उस पुस्तक से
उछलकर बाहर आया
और पुस्तक फाड़ दी!
8). भँवर
उन दिनों वैशाख में
धरती पर ऐसे अंधड़ और बवंडर नहीं उठते थे
जैसे आज उठते हैं
उन पुराने दिनों में
सिर्फ़ छोटे भंवर आते थे कहीं दूर से चलते हुए आहिस्ता
और खेतों को बुहारते हुए
पास से
गुजर जाते थे
उनके आने का पूर्वानुमान
थमी हुई हवा को
भांपकर
खलिहानों में
अनाज बरसातीं
तिपाहों पर खड़ी स्त्रियाँ लगाती थी
और सचमुच
थोड़ी ही देर में दूर किसी पगडंडी को पार करता हुआ
आता दिखाई देता
कोई भँवर
सूखी पत्तियों और धूल को
साथ समेटता हुआ
उनके आने से अवश्य ही होती थीं
कुछ असुविधाएं
जैसे आकाश में उड़ते पक्षियों को
डगमगाकर
पेड़ों पर उतरना पड़ता था
पेड़
मरोड़े खाते हुए
झुक जाते थे
आक और घापात के पौधों को वह झिंझोड़ देता था
खेतों में डोलते रोजड़ों
और खलिहानों में खेलते बच्चों को
आँखें मींचनी पड़तीं थीं
लेकिन जब वह गुज़र जाता
और उसकी ओट
खुल जाती
तो पूर्ववत बहने लगतीं थीं हवाएँ
और फिर से
खलिहानों में हिलती हुई तसलियों से
अनाज बरसने लगता था
इन्हें थोड़ी थोड़ी देर में
आते जाते देख
वहीं बैल गाड़ियों की छाँव में
हथेलियों पर रोटी रखकर खाते किसान कहते थे
ये गोल घूमती हवाएँ
वे आत्माएं हैं
जिन्होंने अपने जीवन में कोई छोटे मोटे पाप किए थे
अब ये भटकती हुई
कैलामाता की जात करने
जा रही हैं
प्रायश्चित के लिए
उन किसानों को सुने हुए अब बीस बरस बीत चुके हैं।
इस दरमियान
ये छोटे भँवर आने
धीरे धीरे
बंद हो चुके हैं
इनकी जगह
अब आते हैं
धरती और आकाश को डराते धमकाते
ऊँचे बड़े विशाल बवंडर
ऐसे में सोचता हूँ
ये कौन आत्माएं हैं
जो इतने बड़े पापों को लेकर घूमती फिर रही हैं पृथ्वी पर
और प्रायश्चित के लिए
अब ये कहाँ जायेंगी
किस देवी या देवता के थान पर!
बलराम कांवट की कविताएँ अपने ‘नए’ विमर्श की वजह से ध्यान खींचती हैं। तकनीक और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी चीज़ों के अत्यधिक प्रचार और प्रकृति से दूरी स्थापित होने के बाद “उत्तरमानुषिक” विचार भी केंद्रीयता के साथ समकालीन में उपस्थित हैं और हिंदी में इस विषय से संबद्ध कविताएँ न के बराबर हैं। बलराम का जन्म, गांव टोकसी, गंगापुर सिटी, राजस्थान में हुआ है और उन्होंने जयपुर, दिल्ली और पुणे से पढ़ाई की है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से विशाल भारद्वाज की फ़िल्मों पर पीएचडी भी की है। तद्भव, हंस, कथन, वागर्थ, वाक्, समकालीन भारतीय साहित्य आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार के तहत एक उपन्यास ‘मोरीला’ अनुशंसित और प्रकाशित है। उनसे balramkanwat@gmail.com पर बात हो सकती है।