प्रतिसंसार ::

आदित्य शुक्ल

मूलभूत प्रस्ताव:

हम सबके पास सत्य है इसीलिए किसी के पास सत्य नहीं है.

जब भी कोई विमर्श शुरू होता है वह इसी मूलभूत मान्यता से अस्तित्व में आता है कि वह आपको सत्य तक पहुंचा देगा. दुनिया की सभी भाषाओं, सभ्यताओं ने अपने-अपने समय में अपने-अपने तरीके से सत्य का अन्वेषण किया है. अगर हम अपना विमर्श भी सत्य-केन्द्रित रखेंगे तो हमारा भी वही हश्र होगा जो दूसरी भाषाओं और सभ्यताओं का हुआ. तो फिर सवाल पैदा होता कि आखिर हम करें क्या? संसार ने इतनी तकनीकी उन्नति कर ली और हमारी आदिम समस्याएं जस की तस हैं. आज भी हम लोग, प्रेम, घृणा, इर्ष्या, लोभ, अहंकारजैसी मूलभूत समस्याओं से प्रताड़ित हैं. उधर बाज़ार हमारी भेद्यता का अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहा है. लेकिन क्या बाज़ार हमसे पृथक है? क्या हम बाज़ार से पृथक हैं? अगर हम द्वंदात्मक भौतिकवाद के दृष्टिकोण से बात करें तो मनुष्य के मनोविज्ञान को अनदेखा कर देते हैं. अगर हम आध्यात्म के दृष्टिकोण से अपना विमर्श शुरू करें तो सामाजिक हकीकतों और मनुष्य के मनोविज्ञान को सन्दर्भ में लेने से चूक जाते हैं. क्यों?

हमारी मानवीय सीमाओं के चलते.

हम एक बार जिस दिशा में बढ़ चलते हैं फिर उस दिशा की जांच-परख नहीं करते. हम यह मानकर चलते हैं कि हमें कहीं पहुंचना है. लेकिन क्या सच में हमें कहीं पहुंचना है? नहीं, असल में हमें कहीं नहीं जाना है और अगर हम यह मानकर चलते भी रहें कि हम कहीं जा रहे हैं, अंततः हम कहीं नहीं पहुँचने वाले. अंततः हम इस अनंत ब्रह्मांड में यत्र-तत्र अपने अंश छोड़कर चले जाएंगे.हमारे सत्य का अधिकांश हिस्सा हमारे साथ दफ्न हो जाएगा.

इसलिए सत्य की तलाश हमारा उद्देश्य नहीं है. सिर्फ जीना, सिर्फ और सिर्फ जीना ही हमारा उद्देश्य है और ऐसे में यह रेखांकित करना आवश्यक है कि वह क्या चीजें हैं जो हमारे जीने को बाधित कर रही हैं?

उपर्युक्त प्रस्तावना के आलोक में मैं फ़िलहाल कुछ राष्ट्रीय समस्याओं की ओर लौटना चाहता हूँ. इन्द्रधनुष पर पिछली दफे एक आलेख में मैंने ‘मतभेद की कला’ का जिक्र किया था. शायद उस आलेख में भी मैं किसी निश्चित सत्य पर पहुंचता हुआ प्रतीत हो रहा था लेकिन वह मेरा अंतिम उद्देश्य यह नहीं था. मेरा उद्देश्य ग़लत उद्देश्य को सम्बोधित कर रहे लोगों को संबोधित करने का है (इसका यह भी मतलब नहीं मेरे पिटारे में अंतिम सत्य आ गया है और मैं वह सबको बाँट देने की लालसा से भरा हुआ हूँ. मेरा यह मानना है कि हमें सबसे पहले ख़ुद को प्रश्नों के कठघरे में रखना चाहिए. हमें खुद से हमेशा यह सवाल करते रहना चाहिए कि आखिर हम जो कर रहे हैं वह क्यों कर रहे हैं. फिर भी मुझे यह आशा है कि मैं मेरे सामने उपस्थित दृश्यों को जिस निष्पक्षता से देखने का यत्न कर रहा हूँ उसे लोगों के सामने रखने पर सम्भवतः नए रस्ते खुलें. यह महज़ एक भ्रम या कोरा आशावाद भी हो सकता है.)

हर ओर शत्रुओं के प्रति आक्रोश है परन्तु लोगों को यही नहीं पता कि शत्रु कौन है

क्या पाकिस्तान हमारा शत्रु है? क्या‘पाकिस्तान का अस्तित्व’ है भी? क्या पकिस्तान के साथ ही वे सभी भारतवासी ‘भारत’ के शत्रु हैं जो पकिस्तान के साथ युद्ध या तनाव जैसी स्थितियों का विरोध कर रहे हैं? किसी राष्ट्र, धर्म या जाति विशेष में जन्म लेना क्या वाकई इतना महत्वपूर्ण है? मुझे भान है कि इस तरह के प्रश्न करते ही मेरे ऊपर एक विशेष किस्म की अमूर्तता और यूटोपिया फ़ैलाने का आरोप लगाया जाएगा जो बहुत हद तक सही भी है लेकिन वह मेरी समस्या नहीं प्रश्नकर्ताओं की समस्या है. मैं शत्रु को पहचानने में दिलचस्पी रखता हूँ. आखिर शत्रु कौन है हमारा? अगर आज हम एक राष्ट्र के रूप में संगठित हो जाएँ और कहें कि पकिस्तान ही हमारा असली शत्रु है तो क्या इससे हमारी सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा? मैं थोड़े और ख़तरे उठाते हुए यह तक कहना चाहता हूँ कि आतंकवाद जैसी समस्या का कोई समाधान नहीं है फिर भी एक आशावादी होकर यह जोड़ना चाहूँगा कि यदि इस्लाम में इस्लामिक विचारक अपनी इस घातक मनोवस्था से उबरने का प्रयास करें और अपने समुदाय को एक बेहतर शिक्षा प्रदान करें तो शायद एक दिन इस समस्या का निदान हो सके. आतंकवाद हमारी सभ्यताओं के लिए एक ऐतिहासिक नासूर है जिसे पश्चिम की पूंजीवादी शक्तियों ने पैदा किया और अभी तक पाल-पोस रहे हैं. ये पश्चिमी आर्थिक शक्तियां किस तरह से आतंकवादी घटनाओं पर एक निर्दोष की तरह मुंह बा देती हैं, उनकी बेशर्मिंदगी का बहुत भी शानदार नमूना है.

हम सभ्यताओं के ऐतिहासिक विकास को क्यों नज़रअंदाज करते हैं? क्यों अपने विमर्श को गलत केंद्र में रखकर उन्माद और हिंसा पर उतारू हो गए हैं? भारत और पाकिस्तान की सत्तासीन शक्तियों के पास अभी भी अवसर है कि अपने प्रजा का कुछ न कुछ भला कर ही लें. लेकिन वे क्या कर रहे हैं? हमारे भारतीय सम्राट क्या कर रहे हैं? चुनावी रैलियों में सीना ठोकते इतने अश्लील दीख पड़ते हैं कि शर्म के मारे मुंह लाल हो जाता है. पकिस्तान(जो अपने आप एक अमूर्त सत्ता है) को शत्रु की तरह प्रोजेक्ट करके आप अपना सीना चौड़ा कर लें, आगामी चुनावों में दूसरी पार्टियों पर बढ़त बना लें लेकिन अंततः आप वही कर रहे हैं जो एक धूर्त सम्राट अपनी प्रजा को छलने के लिए करता है. यह हमारी भोली जनता को समझ नहीं आ रहा तो यह एक विषाद का ही विषय है.

यदि हम अपने सभी आंकलन तर्क और आत्म पर केन्द्रित कर लेंगे तो भले ही यह विश्व तार्किक रूप से एक न्यायोचित संयोजन हासिल कर ले,लेकिन वह एक इतना यांत्रिक विश्व होगा, इतना हिंसक विश्व होगा कि मनुष्यता के लिए इसमें कोई स्थान नहीं बचेगा. हर सदी के अपने दुःख होते हैं, आतंकवाद के साथ ही हमारे सामने दूसरे नासूर भी हैं – दिन-ब-दिन विश्व एक आर्थिक कूड़ेघर में तब्दील होता जा रहा है और हम लोग अभी भी अपने अमूर्त शत्रुओं के खिलाफ़ उत्तेजित भर हैं. यह उत्तेजना भी हमारे लिए कुछ विशेष लेकर नहीं आने वाली है. हम भारतवासियों की वर्तमान उत्तेजना हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ एक अधिनायकवादी पाताल में धकेलने के लिए तैयार बैठी है. हम सत्ताओं के सम्मुख इतने मजबूर क्यों हैं? हमने सत्ताओं और मीडिया  घरों के सामने इस तरह घुटने क्यों टेक रखें हैं? कहीं हमारे अंतरिम शत्रु हम ख़ुद ही तो नहीं?! सच की पड़ताल करना एक जरूरी कार्य है लेकिन कोई एक ‘सच नहीं’ है.

और सत्ता इसी बढ़त का फायदा उठाती है जिसे दार्शनिक पद्धतियों में सेलेक्टिव ट्रुथ कहा जाता है. सत्ता के अलग-अलग पायदे अलग-अलग तरह के सचों का चुनाव करके हमें अलग-अलग तरह से मैनिपुलेट करते हैं और हम मैनिपुलेट होते हैं. आज हम एक ऐसे खतरनाक अस्तित्ववादी संकट से गुजर रहे हैं जहाँ हमें अपने आप से अधिक सूट-बूट पहने अश्लील टीवी रिपोर्टरों के मूर्खतापूर्ण शब्दों पर अधिक यकीन है. हमने प्रश्न करना छोड़ दिया है. हम सिर्फ़ उत्तेजना की तलाश में हैं. प्रश्न करना एक मानवीय गुण है और इतिहास गवाह है कि इस विश्व को बेहतर बनाने में सबसे अधिक योगदान उन्हीं लोगों का रहा है जिन्होंने सत्ता के सम्मुख प्रश्न प्रस्तुत किए. हमारे सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम यांत्रिकता का शिकार न बनें. हम चिन्तन करें, किसी अमूर्त सत्ता के दबाव में झुकने की बजाए अपने विवेक को उन्नति करने दें. अपने आराम-गृह से बाहर निकलें.

ठहरिये! कहीं मेरे ये सभी आंकलन और मसीहाई वक्तव्य ग़लत तो नहीं?!

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम यह सब कुछ जानबूझकर कर रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जानबूझकर असली विमर्श सामने लाने वाले को हाशिये पर धकेल रहे हैं क्योंकि वह हमारे सम्मुख एक चुनौतीपूर्ण सवाल लेकर आ रहा है जो हमें अपने आराम-गृहों से निकालकर सड़क पर ला पटके? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये चुनौतियां हमारी व्यक्तिगत पारिवारिक (पितृसत्तात्मक) और सामाजिक विशेषाधिकारों को ख़तरे में डाल रही हैं? समानता का विचार उनके लिए ख़तरा है जो असमानता की नींव पर अपनी सत्ता का महल तैयार करते हैं.

लेकिन हमारी मनुष्यता इसी में है कि हम समानता के विचार पर कायम रहें.

(पाठकगण‘मनुष्यता’ जैसे अमूर्त विषय का सरलीकरण करने के लिए क्षमा करेंगे. इन आपातकालीन राजनैतिक परिस्थितियों में ऐसा करने की आवश्यकता आन पड़ी है.)

                                                         [आदित्य शुक्ल कवि-गद्यकार हैं. आदित्य से shuklaaditya48@gmail.com पर बात हो सकती है. फीचर्ड तस्वीर गूगल से साभार ली गई है.
                                                                  पेंटिग का टाइटल – Soldier at a Game of Chess (in French – Soldat jouant aux échecs, या Le Soldat à la partie.) है. इसे जीन मेटजिंगर ने बनाया था.  इस फ्रेंच कलाकार ने प्रथम विश्व युद्ध में चिकित्सक के सहायक के रूप में भाग लिया था, और खूब रक्त देखा, टेक्निकली यह “क्यूबिज्म” प्रकार की पेंटिंग कहलाई लेकिन बाद में इसे “क्रिस्टल क्यूबिज्म” प्रकार का माना गया, यह पेंटिंग शतरंज के खेल पर बैठे, सिगरेट पीते हुऐ सैनिक का दृ्श्य है.] 

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