डायरी::
ललन चतुर्वेदी                                                                                    

बेंगलूरु
03 अप्रैल 2022

संघर्ष की भी एक सीमा होती है

धीरे-धीरे उम्र बढ़ रही है। आगामी 10 मई को जीवन यात्रा के 56 वर्ष पूरे हो जायेंगे। अब लगने लगा है कि कुछ सार्थक नहीं कर पाया या नहीं हो पाया। वही किया जो सब लोग करते हैं, वह भी बहुत बढ़िया से नहीं।
इन दिनों पीछे मुड़कर कुछ ज्यादा ही देखने लगा हूँ। लगता है समय बहुत कम रह गया है। किसी को दोष  देने के बजाय अपने ही निर्णयों से दुखी होने लगता हूँ।
सच पूछिए तो मैं स्वयं से बहुत नाराज़ हूँ। दूसरों से नाराज़गी ज्यादा अहितकर नहीं है लेकिन स्वयं से नाराजगी अधिक पीड़ित करती है।
अपना दुःख दूसरों को या स्वजनों को बताकर उन्हें दुखी करना भी पाप ही है। मेरे लिए यह आत्मप्रतारणा का दौर है। संघर्ष की भी एक सीमा होती है। थक गया हूँ। 

वर्तमान भविष्य का नियंत्रक है

काल की अवधारणा में दर्शन का बीज छुपा हुआ है। केवल तीन खंडों में सब को समेटने का ऐसा उपक्रम अद्वितीय है।
सृष्टि को समझने की इससे अभिनव दृष्टि मिलती है। तीन कालों में दो वर्तमान और भूत मुझे महत्वपूर्ण लगते हैं।
ज्ञानी जनों का मानना है कि भविष्य की चिंता मत करो। फिर भी, हम भविष्य को लेकर ही चिंतातुर बने रहते हैं।
यह चिंता तब और बढ़ जाती है जब भूत हमारे पीछे तथाकथित भूत की तरह हाथ धोकर पड़ जाता है।
यह हमारे दुःख में ईंधन डालने का काम करता है। कुछ लोग तो भविष्य के लिए हर समय चिंतित रहते हैं।
वे दिन-रात ज्योतिषी के पीछे भागते रहते हैं।

काल को यदि समय के अर्थ में हम ग्रहण करें तो भले ही अर्थ-संकोच हो लेकिन कुछ चीजों को सुस्पष्ट करने के लिए थोड़ी  देर इसे स्वीकार करना सुविधाजनक रहेगा।
हम अकसर सुनते हैं कि सब का समय होता है या समय सब फैसला कर देता है। यहीं यह बात समझ आती है कि समय का वर्तमान घटक सबसे महत्वपूर्ण होता है।
तभी तो क्षण में लिया गया निर्णय केवल अपना जीवन ही नहीं भविष्य का निर्धारण कर देता है। यह किसी व्यक्ति या राष्ट्र के संदर्भ में भी समान रूप से सत्य है।
वर्तमान की चूक की कोई अचूक दवा न तब थी, न आज है, न भविष्य में होगी। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि वर्तमान भविष्य का नियामक और नियंत्रक है।
वर्तमान में सब कुछ ठीक होने के बावजूद यदि अप्रत्याशित रूप से कुछ दुखद परिणाम दृष्टिगोचर होता है तो इसे संयोग ही कह सकते हैं।ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है।
सब कुछ वर्तमान है। यदि और सूक्ष्म स्तर पर सोचें तो पल ही महत्वपूर्ण होता है,क्षण ही निर्णायक होता है।
काल की गति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। पलक झपकते ही दुर्घटना हो जाती है। सच है,हम पलों में जीते हैं।
प्रतिपल का सदुपयोग होना चाहिए।


राँची
04 जनवरी 2025


पिछले कुछ दिनों से किताबों की ओर लौटा हूँ। किताबों की एक  खूबी यह होती है कि वे आपका दिल नहीं दुखातीं। वे जैसी हैं, वैसी ही दिखतीं हैं। आपकी उनसे शिकायतें हो सकती है, उनको कभी आपसे कोई शिकायत नहीं होती।
शानी का उपन्यास कस्तूरी पढ़कर समाप्त किया। फिर इसके बाद मिलिंद बोकिल का मराठी उपन्यास “समंदर” हाथ लग गया‌।
बस क्या था, हाथों में समंदर, आंखों में समंदर। नायिका नंदिनी का चित्त भी समंदर, नायक भी समंदर और तेजी से उठती लहरें।
बह गया पूरी तरह इसमें। दो दिनों तक पंचानबे पृष्ठों के समंदर में गोते लगाता रहा। इस अद्भुत किताब पर कभी विस्तार से लिखूंगा। यहां अद्भुत  का मतलब अद्भुत ही है।
निर्मल प्रेमी विकास गुप्ता गंभीर पाठक हैं। निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं। व्यस्तता के बावजूद उनका अध्ययन हमें चौंकाता है। उन्हीं के फेसबुक पोस्ट के माध्यम से समंदर  से मिलना हुआ। आज सुबह उनसे इस विषय पर संक्षिप्त बातचीत हुई।
मैंने कहा कि स्त्री का हृदय समंदर है, मतलब नायिका नंदिनी के हृदय से है। यहाँ नायक भास्कर भी बहुत उदार है, आदर्श है।
स्त्री की आत्मस्वीकृति चौंकाने वाली है और पुरुष का  पूर्व रूप में प्रेम में लौटना भी विस्मयकारी है।
उन्होंने कहा कि सचमुच मिलिंद बोकिल का यह उपन्यास अद्भुत है।  इसे बार-बार पढ़ने का मन करता है।

राँची
05 मार्च  2025  

 गृह-विष्णु-पल्लवी त्रिवेदी की कविता

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर पल्लवी त्रिवेदी ने फेसबुक पर एक कविता “गृह-विष्णु” की थी। संयोग से आज मेरी उस कविता पर नजर ग‌ई। एक बार पढ़ने के बाद मन किया कि इसे दोबारा-तिबारा पढूं।  छ: सौ से अधिक टिप्पणियां  इस कविता पर आयीं हैं। मुझे लगा कि यह कविता उससे कहीं अधिक गंभीर विमर्श की हकदार है। इस पर लिखते हुए अब भी एक आंतरिक दबाव महसूस कर रहा हूँ। मालूम नहीं इस कविता के साथ मैं न्याय कर पाऊंगा या नहीं? फिर भी, बतौर पाठक जिस निहितार्थ की अनुभूति मुझे हो रही है, उसे अभिव्यक्त करने का संतोष होगा। सहृदय पाठक अपना अर्थ निकालने के लिए स्वतंत्र है। हर पाठक का अपना अर्थ होता है। एक अच्छी कविता पाठकों में भिन्न-भिन्न अर्थों के साथ खुलती है और घुलती भी है। यह समय बड़ा सेंसेटिव है और मैं यह पहले ही घोषित कर दूं कि इससे आप सहमत-असहमत होने के लिए स्वतंत्र हैं।

शुरुआत शीर्षक से ही करें– गृह विष्णु! सहृदय पुरुष पत्नी को गृह लक्ष्मी कहते ही हैं। इसके बरअक्स इस शब्द को देखें। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार विष्णु को पालक माना गया है। लक्ष्मी उनके पांव दबाती हैं। यह क‌ई चित्रों में देखा गया है। हमारे इलाके में महिलाएं पति को माथ- मालिक कहतीं हैं। यह अंग्रेजी वाला हेड आफ द फेमिली है। स्वभावत: यहां स्त्री की स्थिति दोयम दर्जे की हो ही गई। स्मरणीय रहे कि पल्लवी सिद्धहस्त व्यंग्यकार हैं। व्यंग्य का व्यक्ति जब कविता में प्रवेश करता है तो व्यंग्य और धारदार हो जाता है। पल्लवी ने इस शीर्षक के माध्यम से ही मीठा नश्तर चला दिया है।अब कविता जब शुरु होती है तो लगता है कि स्त्री जैसे प्रार्थना कर रही हो– तुम पिता हो, पति हो, सर्वस्व हो! यहां प्रश्न उठता है तब स्त्री क्या है?
उत्तर देतीं हैं— पृथ्वी! और उसकी नियति है सहना।

पुरुषों के द्वारा सदियों से संचालित इस  शोषण चक्र की ओर इशारा करती हुई कविता आगे बढ़ती है, बिल्कुल बरसाती नदी की तेज धार की तरह। इसमें कितने भंवर हैं, इसका अंदाजा इस कविता को बार-बार पढ़े बिना लग ही नहीं सकता।आसान कविता सबसे दुरूह होती है। पुरुष के सुबह उठने के साथ ही उसके खखारने मात्र से ही घर में एक अनुशासित माहौल निर्मित हो जाता है।अनुभव है कि घर में पिता के आने से बच्चों तक की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। अब समय थोड़ा बदला है– हाय हेलो वाला। लेकिन पहले पुरुष के प्रवेश से स्त्री, बच्चे सब अतिरिक्त रूप से सतर्क हो जाते थे। स्त्रियां भी बच्चों को पिता का नाम लेकर डरातीं ही हैं। यहां संकेत में यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि स्त्री के जीवन में सूर्योदय यानी प्रारंभ काल में ही पुरुष के प्रवेश से सहजता गायब हो जाती है। यह कविता प्रकारान्तर से यह भी इंगित कर रही है। सूर्योदय होते ही स्त्री के मन में  चूल्हे-चौके का स्मरण हो आता है। वह बिछावन से उठकर सीधे किचन में प्रवेश करती है। उसके मन में भय बैठा हुआ है कि पुरुष के नहाने के बाद तुरंत नाश्ते की तलब होगी। वह कंबल में अलसाई लेटी हुई है। उसे और थोड़ी देर सोने का मन निश्चित रूप से होगा लेकिन उसका मन यह भी सोचता है कि इस पुरुष-विष्णु के हिस्से भी तो समस्त जागतिक काम हैं। दबे मन से ही सही,उसके प्रति परिस्थितिजन्य प्रेम उमड़ता है। कंबल में दुबकी स्त्री  प्रेमिका के अवतार के रूप में किचन में प्रवेश करती है और तब इस पूजन-सत्कार से गृह विष्णु का प्रसन्न होना सहज-स्वाभाविक है। हवाओं में चुंबन की तितलियां अकारण नहीं उड़तीं हैं। कहते हैं न पुरुष के दिल का रास्ता पेट की ओर से जाता है।

तीसरे परिच्छेद में जाकर कविता खतरनाक मोड़ पर पहुंच जाती है मतलब अचानक पूरी तरह टर्न लेती है। पत्नी ट्रेक सूट पहन कर जिम जाने के लिए तैयार है लेकिन उसकी मदमाती आंखों में पति के लिए नेह-निमंत्रण भी है। पति बच्चों के टिफिन लगाने में व्यस्तता का बहाना कर मौन भाव से उसे अस्वीकार कर देता है। कविता में जो यहां अव्यक्त है,वह बहुत सशक्त है। कविता सब कुछ कहने के लिए विवश नहीं है। पाठकों को भी कविता का पाठ करने के लिए तैयार होना चाहिए। कविता लिखना कला है तो पढ़ना  भी उससे कम उम्दा कला नहीं है। यहाँ कौशल भी चाहिए। शक्कर, दूध और चाय-पत्ती रखी‌ हुई है थोड़ा आलस्य त्यागकर चाय तैयार कीजिए। स्वाद लेने के लिए थोड़ी मेहनत करनी होगी। केवल यह कह देने से काम नहीं चलता कि कौन‌ पढ़ता है कविता। मेहनत करनी पड़ती है।

बहरहाल, तीसरे परिच्छेद से निकल कर कविता उसी समतल पर आ जाती है, जहाँ गृह-विष्णु के प्रवेश से घर में सांझ उतरती है और लक्ष्मी शाम होते ही किचन में पकौड़े तलने में व्यस्त नजर आती है। देर रात पति जब बिस्तर पर आता है तो वह पुनः परिचर्या में जुट जाती है। विविध सेवाएं उपलब्ध कराती है। अब पति-परमेश्वर का थोड़ा सा मन पिघलता है। उन्हें लगता है कि स्त्री भी बेचारी कितना कुछ करती है।वह‌ एहसान स्वरूप ही सही “न” नहीं कह पाता। यहां आकर लगता है पत्नी अपने सारे दुःख दर्द,थकान भूल जाती है और कहती है -“तुम ना हो तो मेरे घर का क्या हो….ओ मेरे गृह विष्णु!” कविता यहां क्लाइमेक्स पर पहुंच जाती है और छोड़ जाती है स्त्री की अंतहीन व्यथाओं का मार्मिक दास्तान! स्त्री के ये दर्द समंदर में लहरों के आने के बाद तट पर छोड़े ग‌ए सीप की तरह हैं। कौन ध्यान देता है इस पर!

स्थितियां बदलीं हैं फिर भी यथेष्ट नहीं। पल्लवी ने इस कविता में व्यक्त और अव्यक्त के बीच स्त्री पीड़ा  का मार्मिक आख्यान रचा है जो किसी भी सहृदय पुरुष को बेचैन करने के लिए पर्याप्त है। इसीलिए उन्होंने इस कविता को महिला दिवस के अवसर पर पुरुषों को शुभकामनाएं देते हुए प्रस्तुत किया है। पल्लवी बधाई की पात्र हैं।

राँची
23 मार्च 2025

विनोद कुमार शुक्ल मेरी नज़र में

मेरी दृष्टि में विनोद कुमार शुक्ल पर लिखने के पहले वैसी तैयारी होनी चाहिए जैसे कोई तैराक या धावक या संगीतकार वर्षों की साधना के उपरांत प्रतिस्पर्धा में उतरता है।
विनोद जी असाधारण हैं। आलोचना के प्रचलित मानदंडों में आलोचक उन्हें फिट करने की कोशिश करते हैं और बुरी तरह विफल‌ हो जाते हैं।
उनका गद्य यदि  समंदर है तो कविताएं लहरें। हम दूर से उसका सौन्दर्य देखते हैं। गहराई में उतरने के लिए साधना करनी पड़ेगी।
रंगीन चश्मे से रूपवाद, कलावाद आदि की सीमाओं में उनकी रचनाओं को बांधने से बेहतर है कि दिग्गज आलोचक एक बार विचार-मंथन  करें।

विनोद जी एक ऐसे लेखक हैं जिनकी अपनी, बिल्कुल अपनी शैली है।
यह सही है कि उन्होंने अपनी राह स्वयं बनाई है और इस निजी रास्ते पर दूसरा कोई दूर तक नहीं चल सकता।
हमें याद होना चाहिए कि कहानियों के प्रेमचंद स्कूल, जैनेन्द्र स्कूल आदि हुआ करते थे। कविता या उपन्यास में कोई विनोद स्कूल नहीं हो सकता।
एक उदाहरण से स्पष्ट करूं, हालांकि यह उतना सटीक नहीं है। फिर भी थोड़ी देर के लिए सहारा लेता हूं।
जैसे कोई दूसरा मंटो नहीं हो सकता, वैसे ही दूसरा कोई विनोद कुमार शुक्ल नहीं हो सकता।
विनोद जी के गद्य और पद्य में जादू है।
हमें गेहूं और गुलाब दोनों चाहिए।


 राँची
15 जुलाई 2025

असफल प्रेम की अवधारणा सही नहीं है

प्रेम पर जितने शब्द खर्च किए जाए वे कम ही होते हैं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि इसमें एक भी शब्द व्यर्थ नहीं होता। प्रेम पर जितना समय व्यतीत किया जाये वह कम ही होता है। प्रेमी लम्बी रातों की प्रतीक्षा यूँ ही नहीं करते। प्रेम में अदम्य साहस होता है। यह बिलकुल निर्भय होता है। इसे किसी पाशविक बल का भय नहीं होता। प्रेम से आविष्ट मन को उदासीन (न्यूट्रलाइज) नहीं किया जा सकता। प्रेम की सत्ता जब स्थापित हो जाती है तो वह किसी भी सत्ता की परवाह नहीं करती। यह कोरा सैद्धांतिक ज्ञान या उपदेश नहीं है। प्रेम मार्ग के पथिक जब अपनी राह पर चल देते हैं तो कोई प्रतिकूल मौसम उनकी यात्रा को स्थगित नहीं कर सकता। यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ कि अनेक प्रेमाख्यानों का मैंने अध्ययन किया है। मैं किसी आलोचक की इस स्थापना से सहमत नहीं हूँ कि सबसे ख़राब कविताएँ प्रेम पर लिखीं गयीं हैं। इसके विपरीत यह मानता हूँ कि संसार के श्रेष्ठ काव्य प्रेम पर ही लिखे गए हैं। बावजूद इसके दुनिया में प्रेम का बहुत अभाव है। मैं चाहता हूँ प्रेम के असंख्य बिरवे लगाये जाने की आवश्यकता है। युद्ध काल में भी मैं प्रेम के गीत गाना चाहता हूँ। आग को बुझाने के लिए पानी की जरूरत होती है। समझ सकते हैं कि प्रेम का बीज अति सामान्य लोगों के ह्रदय  में पनपता है। अहंकार के मद में चूर व्यक्ति के द्वार पर प्रेम कभी दस्तक नहीं देता है।

मेरे शब्दकोष में असफल प्रेम जैसा शब्द युग्म नहीं है। प्रेम सदैव विजेता रहा है। प्रेम का विजय पताका नील-गगन में फहराता रहता है। जब तक सृष्टि रहेगी, उसकी अनुगूंज सुनाई देती रहेगी। यह सही कि कुछ प्रेम गुमनाम होता है,इतिहास में दर्ज नहीं हो पाता लेकिन इस आधार पर उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। वह नदियों में बहता है,घाटियों में गूंजता है, पहाड़ों पर विराजमान होता है। हवाओं में सुगंध की तरह बसता  है और उसे कोई मिटा नहीं सकता।


राँची
15 जुलाई 2025

धोती पहने लायक होती है तो फट जाती है        

मैं जब भी कुछ लिखता हूँ, उसकी पृष्ठभूमि में पीड़ा और करुणा होती है। उस पीड़ा का भुक्तभोगी मैं या कोई और हो सकता है। इस कोई में जड़-चेतन सब शामिल हैं। करुणा उमड़ती है और कोई रचना जन्म लेती है— गद्य में या पद्य में। इससे इतर रचना की कोई पृष्ठभूमि मैं नहीं समझता। यही तो कमाल है कि रचना क्षण में जन्म लेती है पर क्षणजीवी नहीं होती।

जीवन के सन्दर्भ में देखूं तो हमें जीवन में किसी को इतना ही स्पेस देना चाहिए जिससे अपने लिए भी सुगमता से सांस लेने भर स्पेस बच सके। समर्पण भी उतना ही ठीक है कि जिससे स्वाभिमान और अस्तित्व बचा रह सके। जो जितना निकटतम है, वह उतना ही आपके अस्तित्व पर हावी होना चाहता है। दूर वाले से कोई खास परेशानी कभी नहीं होती है। जितनी दूरी परेशानी उतनी ही कम। गौर कीजिएगा, पड़ोसी परेशान करते हैं। उससे भी अधिक कष्टदायक पारिवारिक परेशानियां होतीं हैं। और सबसे अधिक परेशानी स्वयं से होती है। ये बहुत सूक्ष्म बातें हैं जिन पर स्थिर चित्त से ही विचार संभव है। हमारी चौकसी दोतरफा होनी चाहिए। हमें सीमा पर भी सतर्क रहना है और घर में भी। यह बात केवल किसी देश के लिए ही नहीं अपितु मनुष्य मात्र के लिए है। हमें अपनी  सीमाएं निर्धारित करनी होंगी और इसकी मजबूत घेराबंदी भी। मनुष्य के लिए यह कार्य मन के स्तर का है। यदि ये सीमा मजबूत नहीं है तो आपका बहुत कुछ मूल्यवान बाहर जा सकता है और अनेक विध्वंसात्मक तथा नकारात्मक तत्व आपकी मानसिक सरंचना को क्षति पहुंचाते रहते हैं। जैसा कि ऊपर कहा है ये सब करने वाले आपके निकटतम स्वजन होते हैं जिनके लिए आपका पूरा जीवन समर्पित होता है। जिन बातों को दार्शनिक और ज्ञानी गूढ़ शब्दावली में कहते हैं,एक सहृदय कवी उन्हें बड़ी आसानी से दो पंक्तियों में कह देता है:

तातल सैकत वारि-बिन्दु सम, सुत-मित-रमनि समाज,
तोहे बिसरि मन ताहि समरपिनु, अब मझु हो कोन काज।
विद्यापति

(पुत्र, मित्र और रमणी समाज तप्त बालुका राशि पर जल-बूँद के समान हैं। हे माधव, मैंने तुम्हें भूलकर अपना मन उन्हें समर्पित कर दिया है।
अब मुझसे कौन सा काम होगा। परिणामस्वरुप हमें निराशा हाथ लगी।)

इस जीवन और जगत में बचाव ही उपाय है। बचाव करेंगे तो “बचाओ” कहने की नौबत नहीं आयेगी।
ये बातें बहुत विलम्ब से समझ में आतीं हैं। एक लोकोक्ति है— “धोती पहने लायक होती है तो फट जाती है।”



ललन चतुर्वेदी हिंदी के चर्चित कवि हैं। उनकी कविताएँ हिंदी की सभी परिचित और प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उनसे lalancsb@gmail.com  पर बात हो सकती है।

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