संपादकीय ::
प्रभात प्रणीत

महात्मा गांधी की 150 वीं सालगिरह को इस साल उत्सव के तौर पर मनाया जा रहा है, देवी-देवताओं और त्योहारों के इस देश में यह कोई असाधारण घटना नहीं है। असंख्य उत्सवों के बीच एक और उत्सव। बचपन से 2 अक्टूबर को कमोबेश इसी रूप में देखने की आदत रही है, सार्वजनिक छुट्टी और आयोजनों से ज्यादा मैं इस दिन को कुछ समझ नहीं पाया। लेकिन इस बार कुछ नई बातें भी होती दिखीं। जैसे रोशनी के बीच से बढ़ता हुआ एक अँधेरा जो बड़ी तेजी से सबकुछ निगलने की जल्दी में हो। रोशनी अपने विस्तार की अनुमति उसे भले नहीं दे रही हो लेकिन उसकी हवस पर पाबंदियों से फर्क नहीं। रोशनी धरती के जितने कणों में समाई हो, जितनी नसों में उतरी हो, उसने जितने रेशों को रौशन किया हो, वह पहली बार खुद को निहारते हुई दिखी, इसके अर्थ-अनर्थ के विश्लेषण से महत्वपूर्ण यह कि वह खुद के अस्तित्व तक पहुंचते अँधेरी बियावानों से किंकर्तव्यविमूढ़ दिखी।

हर क्षण अनवरत बदलते रहने वाली इस दुनिया में बहुत कुछ नया हो रहा है, अच्छा-बुरा के परिपेक्ष्य से महत्वपूर्ण कुछ नया होना है, सभ्यता इतिहास की छाती पर भविष्य की कहानी के लिखने लिए पहले से ज्यादा तत्पर है। व्यक्ति, वर्ग, समाज, देश इसके निमित्त मात्र हैं। लेकिन यह समझना भी हर बात सहजता से स्वीकार ले, जरूरी नहीं. कुछ चिंगारियाँ जेहन को झुलसा ही देती हैं। अख़बार, टीवी, सोशल मीडिया पर महात्मा गांधी को दी गई बधाइयों को देखते-देखते 2 अक्टूबर अब बीतने को थी, शाम में फेसबुक पर एक पोस्ट मैं भी कर चूका था और उसे ही ट्विट करने के क्रम में ट्विटर पर उस वक्त टॉप पर चल रहे एक ट्रेंड को देख कर सकते में आ गया। ट्रेंड- #गोडसेअमररहें। किसी मुल्क का व्यवहार हमेशा एक समान हो यह जरूरी नहीं, परिवर्तन भी एक सच है लेकिन इतनी जल्दी, इस तरह, इस हद तक। इसी ट्रेंड में महात्मा गांधी कहीं नीचे थे। यह ट्रेंड प्रायोजित है इसमें कोई शंका नहीं और यह मेरी चिंता भी नहीं लेकिन इसके प्रायोजन और असर को नजरंदाज करना मुश्किल है। आज सुबह अख़बार में पढ़ा कि रीवा में रखा गांधी जी का अस्थि कलश चोरी हो गया, लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह कि चोरी करने वाले ने वहां महात्मा गांधी की तस्वीर पर लिखा- “देशद्रोही”। गांधी और उनके विरोधियों के बीच का सबसे बड़ा अंतर विपरीत विचारों के प्रति सहिष्णुता है जिसके असंख्य उदाहरण मौजूद हैं। 1924 में मुंबई के एक्सेलसियर थियेटर में ‘पारसी समाज’ की बैठक में जिन्ना के सहयोगी और उनकी पारसी पत्नी रूटी जिन्ना के करीबी कांजी द्वारकादास ने गांधी की मौजूदगी में उनकी खुली आलोचना करते हुए जब यहां तक कह दिया कि उन्होंने ‘महात्मा’ होने की आड़ में बहुत से ‘गंदे काम’ किये हैं तो श्रोता भड़क गये और वे कांजी की लानत-मलामत करने लगे तब गांधी उठ खड़े हुए और उन्होंने अपने आलोचक की हिफाजत करते हुए खुद को ‘महात्मा’ पुकारे जाने पर कड़ी आपत्ति जताई। स्टेनली वोलपर्ट ने जिन्ना की जिंदगी पर लिखी अपनी किताब में इस वाकये का विस्तृत विवरण दिया है। आज गांधी जिंदा होते तो रीवा में उन्हें ‘देशद्रोही’ कहने वाले की बात मुस्कुरा कर सुनते, उसे अपनी विशाल बांहों में समेट लेते।

गांधी एक आम आदमी के असाधारण बन जाने की दास्तां अवश्य थे, इतना कि आइन्स्टाइन उन सा होने पर अविश्वास करने की भविष्यवाणी पहले ही कर गये हैं- लेकिन गांधी को एक साथ महात्मा और राष्ट्रनायक घोषित करने के बाद उन्हें ईश्वर तुल्य बनाने के प्रयासों से मैं भी सहमत नहीं। दरअसल इस तरह का कोई भी प्रयास व्यक्ति के विचारों को धुंधला करने की साजिश का भी अंग हो सकता है, विचार जब भी व्यक्ति की छाया में छुप जायेगा वह खुद छूट जायेगा, मिट जायेगा। अतिरेक के अपने गुनाह हैं, और विध्वंस भी।
यह जो हो रहा है, मुल्क के स्वभाव के साथ खिलवाड़ की जो तैयारी है उससे निराश होने की हद क्या हो, यह प्रासंगिक प्रश्न है. मैं यहां व्यक्तिगत प्रतिक्रिया या प्रतिउत्तर प्रयासों की बात नहीं कर रहा क्योंकि इसे निर्देशित नहीं किया जा सकता, यह स्वाभाविक है, सवाल सामूहिक प्रतिक्रिया का है जिसके लिए कोई एक व्यक्ति जिम्मेवार नहीं हो सकता। जिन विचारों से प्रेरणा पूरी दुनिया ले रही हो उन पर उनके ही मुल्क में आघात निराशाजनक अवश्य है लेकिन यह अंत नहीं। गांधी की विशेषता यह है कि वे उन पर प्रहार कर रहे हाथों को भी उनके समक्ष झुकने को विवश करते हैं। यह आज के परिपेक्ष्य में भी हर तरफ सहजता से दृष्टिगोचर है। गांधी पर आलोचनात्मक किताब “ब्रह्मचर्य गाँधी एंड हिज वुमन एसोसिएट्स” लिखने वाले गिरजा कुमार भी शांतिपूर्ण, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और समतावादी भारत के निर्माण के प्रति उनकी निष्ठा पर प्रश्न नहीं उठा सके, अपनी किताब में उनके जिस चारित्रिक पक्ष के प्रति आलोचना करते रहे उसी में वे उनके सत्य के प्रति अनुराग, ईमानदारी और साफगोई को बार-बार स्वीकारते भी रहे। अरुधंति रॉय की किताब “एक था डॉक्टर एक था संत” महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के स्याह पक्षों से भरी पड़ी है लेकिन इसी किताब में वे भी भारत की परिकल्पना के लिए अनिवार्य हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सहिष्णुता और समावेषण हेतु उनके अमूल्य योगदान की प्रशंसा किये बिना नहीं रह पातीं।

यदि हम यह समझते हैं कि कोई एक विचार दूसरे विचार को इसलिए हर लेगा कि उस तरफ किसी तरह की ताकत है तो यह भूल होगी। यदि यह होता तो विश्व इतिहास और मानव सभ्यता का स्वरूप कुछ और ही होता। ऐसी परिस्थितियों के लिए किसी व्यक्ति या संस्था विशेष को दोषी मानकर अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हो जाना भी दरअसल वह बीज है जिस पर अंधेरे की पूरी पैदावार तैयार होती है। और यह किसी के बस में है भी नहीं, न किसी व्यक्ति के न किसी संस्था के। नाथूराम ट्रेंड कर रहे हैं क्योंकि हमने गांधी को खुद भुला दिया है, नाथूराम को देशभक्त घोषित करने की जो नैरेटिव आज असर करती दिख रही है वह एक दिन का प्रयास नहीं है, दशकों से चल रहे इस प्रयास की सफलता की एक वजह गांधी को मूर्ति, फोटों और तस्वीरों से ढक देना भी है। लेकिन यहीं कहीं रास्ता भी है, विकल्प भी है, रात पूरी हुई नहीं और हुई भी हो तो वह सुबह की कोख भी है।

महात्मा गांधी के विचारों के विस्तार को परखने और उन्हें सीमित करने के प्रयासों की न्यूनता को दो तथ्यों से एक साथ समझा जा सकता है। आजादी का पूरा आन्दोलन एक तरफा नहीं था, बाहरी तौर पर एकरूपता के बावजूद अन्तर्विरोध भी थे, गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानी आलोचना के शिकार भी होते थे, कई लोग अंग्रेजी शासन के हिमायती भी थे, उनके सहयोगी भी थे। खुद गांधी 30 जनवरी को मृत्यु प्राप्त करने के पूर्व भी हत्या के ऐसे कई प्रयासों से बाल-बाल बचे थे लेकिन न तो उन्होंने और न ही समकालीन प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों ने कभी भी ऐसे लोगों को देशदोही की संज्ञा दी थी। अब आज के सन्दर्भ में विरोधी विचारों की प्रतिक्रिया, व्यवहार का मुल्यांकन करें। इस अंतर में ही बहुत कुछ छुपा है, इस से भी बहुत कुछ स्पष्ट है। हम आज राष्ट्र की वास्तविक परिभाषा, सीमा और व्यवहार को इससे भी निर्धारित कर सकते हैं। फिर आजादी के पश्चात जब गांधी से ठीक विपरीत विचारों को “हिंदूराष्ट्र” दैनिक के संपादक और गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की “मैंने गांधी वध क्यों किया”, एवं उनके सहयोगी गोपाल गोडसे द्वारा लिखित “गांधी वध और मैं” जैसी किताबों के रूप में प्रसारित करने की कोशिश हुई तो वे भी आसानी से उपलब्ध रहे, न कि इन्हें देशद्रोही कहते रहने का हठ ही किया गया। गांधी को देशद्रोही कहना ही विपरीत विचारधारा की लघुता, बेबसी को दर्शाता है।
अंधेरे के बढ़ते पग से सहमना स्वाभविक है, उनके लिए तो जरुर, जिन्हें खुली या बंद आंखों से दिखता हो लेकिन यह एक मौका भी है रोशनी को संभालने का, और विस्तार देने का, अंधेरे से उलझने की आवश्यकता नहीं क्योंकि उसे भी पता है कि रोशनी को अब तक थामें हाथों की शिथिलता और भटकाव जिस वक्त खत्म हो जायेगी उसका अस्तित्व संकट में होगा। और यह मौका हमें मिला है- यक्ष प्रश्न यह है कि इस ऐतिहासिक मौके को हम किस तरह स्वीकार करते हैं।

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