साक्षात्कार ::
कृष्ण कल्पित हिंदी के जाने-माने कवि हैं। हाल ही के दिनों में उनका एक कविता-संग्रह “रेख़्ते के बीज” राजकमल प्रकाशन से आया है। इंद्रधनुष के प्रधान सम्पादक अंचित ने कृष्ण कल्पित के साथ ये छोटी सी बातचीत की है।
१. ‘बाज़दफ़ा पॉलिटिकली इनकरेक्ट‘ – इसी से शुरू करते हैं। यह किसी काउंसियस थॉट प्रॉसेस के तहत होता है या किसी का रिजेक्शन?
पोलिटिकली करेक्ट। यह मार्क्सवादी आलोचना का पद है। किसी कविता को पोलिटिकली करेक्ट क्यों होना चाहिए? क्या कविता राजनीति की दासी है? कविता राजनीतिक रूप से नहीं मानवीय आधार पर सही होनी चाहिए। बाबा नागार्जुन पर भी पोलिटिकली इंकरेक्ट होने का आरोप आयद है। इससे क्या नागार्जुन छोटे कवि हो गए बल्कि अधिक मानवीय और विस्तृत हो गए। सच्चे कवि हो गए। कवि को सच्चा होना होता है। कविता सताए हुए मनुष्य के पक्ष में ही लिखी जाएगी। जा सकती है। राजनीति कविता को नहीं जांच सकती बल्कि राजनीति को ही कविता की कसौटी पर कसा जाएगा। कवि का निर्माण विचारधाराओं से होता है कविता का नहीं।
२. दूसरा प्रश्न भी शिव किशोर तिवारी के कहे से ही उठा रहा हूँ। ‘उत्तर आधुनिकता की प्रतिनिधि कविता’ – इसको कैसे देखते हैं?
रेख़्ते के बीज कविता को इस जविये से आलोचक शिव कुमार तिवारी ने देखा और उन्होंने इसे उत्तर आधुनिकता की प्रतिनिधि कविता कहा है तो ये उनका विचार है। यह कविता सम्भवतः हिन्दी भाषा का सर्वाधिक लंबा वाक्य है। वेदना से गुंथा हुआ वाक्य। इसमें एक उजड़ती हुई सभ्यता का वर्णन है। कविता क्या है एक हाहाकार है। उड़ती हुई धूल है। अफ़सोस में लिपटी हुई आशा है। इस कविता में यह पँक्ति आती है कि हमारा यह समय देरिदा हाल नहीं दरीदा हाल है। बुरे हाल में है। इसमें उत्तर आधुनिक दार्शनिक जेक देरिदा का ज़िक़्र आया है जिसे अपनी आंतरिक दृष्टि से तिवारी जी ने पकड़ा है। वैसे यह सवाल तिवारी जी से ही पूछा जाना चाहिए।
३. किताब में कई कविताओं में, अंग्रेज़ी के एक फ़्रेज़ का इस्तेमाल करता हूँ, ghalibesque-decadence दिखता है। एक घनघोर निराशा, अन्य तिरस्कारों के साथ एक स्व-तिरस्कार और एक आत्म-तरस।आपके लिए कविता की परिभाषा क्या है?
डेकेडेन्स। इसे क्या कहेंगे पतन या गिरावट। यह ऐसा ही गिरावट भरा शर्मनाक समय है इसे हम सतही दृष्टि से नहीं देख सकते और इसके लिए किसी को आरोपित नहीं कर सकते। यह गिरावट एकतरफ़ा नहीं है चौतरफ़ा है। इसमें हम सब शामिल हैं। कवि ख़ुद को पाक साफ़ नहीं बता सकता। वह साधारण राजनीतिक कवि होगा यदि ऐसा करेगा। ग़ालिब हों, दोस्तोयेव्स्की हों, मीर हो, निराला जैसे हर बड़े रचनाकार को इस से दो चार होना पड़ता है। पतन और उदात्त इन दो पलड़ों पर रचनाकार को संतुलन साधना होता है तभी वह अपने समय का प्रतिनिधि हो सकता। साहित्य और कविता का नैतिकता कोई पैमाना नहीं। सही कविता नैतिकता को कटघरे में खड़ा करती है।
४. एक सवाल मैं स्मृति पर पूछना चाहता हूँ। लेकिन कोई एक वाक्य कह देना स्मृति और इतिहास पर उसको रिड्यूस करना होगा। इसके बारे में कहिए कुछ।
स्मृति और इतिहास। हमारे यहाँ स्मृति थी। इतिहास की हमारी अवधारणा पश्चिम की तरह की नहीं। हमारे यहां महाभारत की गणना इतिहास ग्रन्थों में की जाती है। हमारे यहाँ जो धर्म और सांप्रदायिकता को लेकर जो टकराव है वह दरअसल स्मृति और इतिहास का टकराव है। क्षुद्र राजनीति ने इसे विषैला बना दिया है। स्मृति तो कविता की धरती है। इतिहास और स्मृति की टकराहट से ही कोई बड़ी रचना सम्भव है।
५. ‘मेरी प्रेम कथाएँ’ किताब की मेरी सबसे प्रिय कविताओं में से है। एक सीधा सवाल ये कि प्रेम क्या है और ये भी कि प्रेम कविताओं के पॉलिटिकल करेक्टनेस पर बहुत बात होती है।
प्रेम कविता मेरी दृष्टि में एक विवादास्पद अवधारणा या पद है जो रूढ़ हो गया है। मेरा मानना है कि दुनिया की सारी महान कविताएँ प्रेम कविताएँ ही हैं जो अपनी धरती, अपने मनुष्यों, अपने दुखों और अपने समय से नफ़रत और प्यार करते हुए ही लिखी जा सकती है। निराला की सरोज स्मृति को शोक गीत कहा जाता उसे महान प्रेम कविता क्यों नहीं कहा जा सकता। स्त्री पुरूष प्रेम में इसे रिड्यूस कर दिया गया। उर्दू की ग़ज़ल तो अपने मूल रूप से माशूकाओं/प्रेमिकाओं से बातचीत ही है। प्रेम कविताएँ यदि प्रेमिकाओं को सम्बोधित हैं तो उसे पाठक को क्यों पढ़वाया जा रहा है। अपने विषय अपने मज़मून से गहरे प्रेम के बग़ैर कोई कविता नहीं लिखी जा सकती।
६. क्या कवियों के भीतर से फक्कड़पना ख़त्म होता जा रहा है?
मेरी एक कविता है- आजकल मिलते हैं सजे धजे शराबी/ कम दिखाई देते हैं सच्चे शराबी! असद ज़ैदी भी एक जगह कहते हैं कि आजकल के कवि प्रोपर्टी डीलर की तरह नज़र आते हैं। कवि की एक पारंपरिक छवि है – लुटा पिटा, बर्बाद, नाकाम, बढ़े हुए बाल इत्यादि। इसमें आधी सच्चाई है। यह सच है कि कविता कोई दुनियादारी का काम नहीं है हालांकि आजकल बहुत लोगों ने कविता को केरियर बना लिया है। कवि भी सफल होने लगे हैं। डिज़ाइनर कपड़े पहनने लगे हैं। लेकिन कवि को कवि होना पड़ता है। सिर्फ़ कविता लिखकर आप कवि नहीं बन सकते। बड़े कवियों की कविताओं का जितना अध्ययन होता है उससे कम उसके जीवन उनसे जुड़े किस्सों का कम नहीं। ग़ालिब की जितनी शाइरी पढ़ी जाती है उतना ही उनका लापरवाह जीवन भी। फक्कड़पन कवि के लिए संजीवनी है। मुझे यह रास आता है।
७. नयी सदी के पहले दशक में जो युवा कवि आए, उनकी भाषा और शैली पर कल्पित का प्रभाव ज़ाहिर तौर पर दिखता है- विशेष कर उन कविताओं का जो आपने नब्बे के दशक में लिखी हैं?
इसके बारे में मेरा कुछ कहना उचित नहीं। मैं युवा कवियों से बहुत आश्वस्त हूँ। अविनाश मिश्र, अम्बर पांडे, सुधांशु फ़िरदौस, अंचित, बाबुषा कोहली, विहाग वैभव, अनुज लगुन, अदनान कफ़ील दरवेश, वीरू सोनकर, अमिताभ चौधरी, अनुराधा, जसिंता केरकेट्टा। बहुत नाम हैं और वे अपने अपने ढंग से काम कर रहे हैं। हिन्दी कविता अब आठवें दशक के वर्चस्व से बाहर आ रही है। यह एक सिलसिलबन्दी है।
●●●
बहुत सीधी और स्पष्ट किन्तु सधी हुई और सार्थक बातचीत हुई है | अंचित के सटीक सवालों के स्पष्ट जवाब दिये हैं कृष्ण कल्पित ने | आज की कविता वास्तव में आठवें दशक की कविता के फ्रेम से बाहर आ रही है | “रेख़्ते के बीज” केवल लम्बी कविता नहीं है बल्कि अपने में पूरी भारतीय महाद्वीप की संस्कृति का अवलोकन है | “इन्द्रधनुष” को इस बातचीत के लिये साधुवाद |
खरा और बेबाक साक्षात्कार …! हर सवाल के कल्पित – छाप। फक्कड़ जवाब हैं, जो अपनी सच्चाई और ईमानदारी की वज़ह से मन मोहते हैं ! हर जवाब को पढ़ना बेहद सुखकर था !
बधाई – साक्षात्कारकर्ता ‘अंचित’ को, जिसके माध्यम से, बनावट – दिखावट से दूर , पाठकों और आलोचकों के फूल और शूल सहज भाव से स्वीकार करने वाले, इस युग के इन जांबाज़ कवि का सदा के लिए स्मरणीय इंटरव्यू पढ़ने को मिला !
कृष्ण कल्पित की साफ़गोई और मिजाज़ इस साक्षात्कार में पूरी बानगी के साथ उपस्थित है।